कृष्ण
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अन्य नाम द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी आदि
अवतार सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश-गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल यदुकुल
पिता वसुदेव
माता देवकी
पालक पिता नंदबाबा
पालक माता यशोदा
जन्म विवरण भादों कृष्णा अष्टमी
समय-काल महाभारत काल
परिजन रोहिणी संतान बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु संदीपन, आंगिरस
विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान प्रद्युम्न
विद्या पारंगत सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ गीता
शासन-राज्य द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ महाभारत, भागवत, छान्दोग्य उपनिषद
मृत्यु पैर में तीर लगने से
यशकीर्ति द्रौपदी के चीरहरण में रक्षा करना। कंस का वध करके उग्रसेन को राजा बनाना।
कृष्ण / Krishn / Krishna
सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका गीता- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भगवत गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।
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ब्रज या शूरसेन जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, मगध-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान भीषण संग्राम हुआ जिसे महाभारत युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है।
राधा-कृष्णमथुरा नगरी इस महान विभूति का जन्मस्थान होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही,साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।
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वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू0 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य[1] में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण या विष्णु के अवतार रूप में।
इतिहास और पुरातत्व
बंसी बजाते हुए कृष्णदामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्ज़ापुर ज़िले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफ़ाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जबकि, मोटे तौर पर, वाराणसी में पहली बस्ती की नींव पड़ी। *
चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही (इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है। जो मूल चित्र मैं नहीं है।)ये रथारोही आर्य रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफ़ाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , ॠग्वेद में कृष्ण को दानव और इन्द्र का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से यदु क़बीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, अंधक-वृष्णि भी, और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) देवकी के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति वसुदेव सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इन्द्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर कालिय नाग का, जिसने मथुरा के पास यमुना के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई बलराम ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।
नारद कृष्ण संवाद
कृष्ण जन्मभूमि, मथुरानारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम बलराम था जो अपनी शक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे प्रद्युम्न अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष नारद के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।
महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम। वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे। रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
जन्म और जीवन परिचय
कंस की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र वसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने वासुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और उग्रसेन के भाई देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी ।
देवकी से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।* यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।[2] जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र नंद के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।[3]बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने बालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'
कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- राजा रवि वर्माराक्षस आदि का संहार
पूतना वध,
शकटासुर वध,
यमलार्जुन मोक्ष,
कलिय दमन,
धेनुक वध,
प्रलंब वध,
अरिष्ट वध
गोवर्धन पूजा
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षा काल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर इन्द्र देवता की पूजा किया करते थे।[4] इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा गोप-गोपिकाओं, गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन पूजा की स्थापना की गई।[5]
रास
कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- राजा रवि वर्माकृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार शरद पूर्णिमा की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम रास प्रसिद्ध हुआ।,[6]धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।
धनुर्याग
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुण्डों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन
राधा-कृष्णकृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रूर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में अंधक-वृष्णि संघ के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरुष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।
कंस ने पहले धनुर्याग की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।[7] अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वधार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।[8]
कृष्ण का मथुरा-गमन
एक दिन सन्ध्या समय कृष्ण ने समाचार पाया कि अक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहाँ अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।[9] नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे सन्ध्या समय मथुरा पहुंचे थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगे।
कंस-वध
कंस-वधमहाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
कृष्ण:-
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये[10]और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।[11] कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। [12]
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" [13] मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।[14] इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान आदर्श उपस्थित किया।
कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर श्रद्धालुओं की भीड़, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरासंस्कार
कंस-वध तक कृष्ण का जीवन एक प्रकार से अज्ञातवास में व्यतीत हुआ। एक ओर कंस का आतंक था तो दूसरी ओर आकस्मिक आपत्तियों का कष्ट। अब इनसे छुटकारा मिलने पर उनके विद्याध्ययन की बात चली। वैसे तो वे दोनो भाई प्रतिभावान्, नीतिज्ञ तथा साहसी थे, परन्तु राजत्य-पंरपरा के अनुसार शास्त्रानुकूल संस्कार एवं शिक्षा-प्राप्ति आवश्यक थी। इसके लिए उन्हें गुरु के आश्रम में भेजा गया। वहाँ पहुँच कर कृष्ण-बलराम ने विधिवत् दीक्षा ली[15] और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी सुदामा ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ। जरासंध की मथुरा पर चढ़ाई कंस की मृत्यु का समाचार पाकर मगध-नरेश जरासंध बहुत-कुद्ध हो गया। वह कंस का श्वसुर था। जरासंध अपने समय का महान् साम्राज्यवादी और क्रूर शासक था। उसने कितने ही छोटे-मोटे राजाओं का राज्य हड़प कर उन राजाओं को बंदी बना लिया था। जरासंध ने कंस को अपनी लड़कियाँ संभवत: इसीलिए ब्याही थी जिससे कि पश्चिमी प्रदेशों में भी उसकी धाक बनी रहे और उधर गणराज्य की शक्ति कमज़ोर पड़-जाय। कंस की प्रकृति भी जरासंध से बहुत मिलती-जुलती थी। शायद जरासंध के बल पर ही बैठा था। अपने जामातृ और सहायक का इस प्रकार वध होते देख जरासंध का कुद्ध होना स्वाभाविक ही था। अब उसने शूरसेन जनपद पर चढ़ाई करने का पक्का विचार कर लिया। शूरसेन और मगध के बीच युद्ध का विशेष महत्व है, इसीलिए हरिवंश आदि पुराणों में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है।
जरासंध की पहली चढ़ाई
गोवर्धन पर्वत उठाते हुए कृष्णजरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद पर चढ़ाई की। पौराणिक वर्णनों के अनुसार उसके सहायक कारूप का राजा दंतवक, चेदिराज, शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रूक्मी, काय अंशुमान तथा अंग, बंग, कोषल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, दरद देश का राजा तथा कौरवराज दुर्योधन आदि भी उसके सहायक थे। मगध की विशाल सेना ने मथुरा पहुँच कर नगर के चारों फाटकों को घेर लिया।[16] सत्ताईस दिनों तक जरासंध मथुरा नगर को घेरे पड़ा रहा, पर वह मथुरा का अभेद्य दुर्ग न जीत सका। संभवत: समय से पहले ही खाद्य-सामग्री के समाप्त हो जाने के कारण उसे निराश होकर मगध लौटना पड़ा। दूसरी बार जरासंध पूरी तैयारी से शूरसेन पहुँचा। यादवों ने अपनी सेना इधर-उधर फैला दी। युवक बलराम ने जरासंध का अच्छा मुक़ाबला किया। लुका-छिपी के युद्ध द्वारा यादवों ने मगध-सैन्य को बहुत छकाया। श्रीकृष्ण जानते थे कि यादव सेना की संख्या तथा शक्ति सीमित है और वह मगध की विशाल सेना का खुलकर सामना नही कर सकती। इसीलिए उन्होंने लुका-छिपी वाला आक्रमण ही उचित समझा। उसका फल यह हुआ कि जरासंध परेशान हो गया और हताश होकर ससैन्य लौट पड़ा।
कृष्ण जन्मभूमि, मथुरापुराणों के अनुसार जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासन कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कृष्ण बलदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा।[17]
महाभिनिष्क्रमण
अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारकापुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी संख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को न जाने देना चाहते थे और कृष्ण स्वयं भी ब्रज को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा-
कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा'जरासंध के साथ हमारा विग्रह हो गया है दु:ख की बात है। उसके साधन प्रभूत है। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी अनेक है। यह मथुरा छोटी जगह है और प्रबल शत्रु इसके दुर्ग को नष्ट किया चाहता है। हम लोग यहाँ संख्या में भी बहुत बढ़ गये हैं, इस कारण भी हमारा इधर-उधर फैलना आवश्यक है।'
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार उग्रसेन, कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी संख्या में मथुरा से प्रयाण किया और सौराष्ट्र की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये।[18] द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी संख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ।[19] मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम-से-कम दो बार ख़ाली की गई थी-पहली बार शत्रुध्न-विजय के उपरांत लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर ख़ाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। कालयवन और जरासंध की सम्मिलित सेना ने नगरी को कितनी क्षति पहुँचाई, इसका सम्यक पता नहीं चलता। यह भी नही ज्ञात होता कि जरासंध ने अंतिम आक्रमण के फलस्वरूप मथुरा पर अपना अधिकार कर लेने के बाद शूरसेन जनपद के शासनार्थ अपनी ओर से किसी यादव को नियुक्त किया अथवा किसी अन्य को। परंतु जैसा कि महाभारत एवं पुराणों से पता चलता है, कुछ समय बाद ही श्री कृष्ण ने बड़ी युक्ति के साथ पांडवों की सहायता से जरासंध का वध करा दिया। अत: मथुरा पर जरासंध का आधिपत्य अधिक काल तक न रह सका।
दाऊजी मन्दिर, बलदेवबलराम का पुन: ब्रज-आगमन
संभवत: उक्त महाभिनिष्क्रमण के बाद कृष्ण फिर कभी ब्रज न लौट सके। द्वारका में जीवन की जटिल समस्याओं में फंस कर भी कृष्ण ब्रजभूमि, नंद-यशोदा तथा साथ में खेले गोप-गोपियों को भूले नही। उन्हें ब्रज की सुधि प्राय: आया करती थी। अत: बलराम को उन्होंने भेजा कि वे वहाँ जाकर लोगों को सांत्वना दें। बलराम ब्रज में दो मास तक रहे। इस समय का उपयोग भी उन्होंने अच्छे ढंग से किया। वे कृषि-विद्या में निपुण थे। उन्होंनें अपने कौशल से वृन्दावन से दूर बहने वाली यमुना में इस प्रकार से बाँध बांधा कि वह वृन्दावन के पास से होकर बहने लगी।[20]
कृष्ण और पांडव
कृष्ण और अर्जुनद्वारका पहुँच कर कृष्ण ने वहाँ स्थायी रूप से निवास करने का विचार दृढ़ किया और आवश्यक व्यवस्था में लग गये। जब पंचाल के राजा द्रुपद द्वारा द्रौपदी-स्वयंवर तथा मध्य-भेद की बात चारों तरफ फैली तो कृष्ण भी उस स्वयंवर में गये। वहाँ उनकी बुआ के लड़के पांडव भी मौजूद थे। यही से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्टता का आरंम्भ हुआ। पांडव अर्जुन ने मध्य भेद कर द्रौपदी को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट किया। इससे कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के प्रति वे विशेष रूप से आकृष्ट हुए। वे पांडवों के साथ हस्तिनापुर लौटे। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पांडवों को इन्द्रप्रस्थ के आस-पास का प्रदेश दिया था। पांडवों ने कृष्ण के द्वारका-संबंधी अनुभव का लाभ उठाया। उनकी सहायता से उन्होंनें जंगल के एक भाग को साफ करा कर इन्द्रप्रस्थ नगर को अच्छें ढंग से बसाया। इसक बाद कृष्ण द्वारका लौट गये। कृष्ण के द्वारका लौटने के कुछ समय बाद अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए निकले। अनेक स्थानों में होते हुए वे प्रभास क्षेत्र पहुँचें। कृष्ण ने जब यह सुना तब वे प्रभास जाकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने साथ द्वारिका ले आये। यहाँ अर्जुन का बढ़ा स्वागत हुआ। उन दिनों रैवतक पर्वत पर यादवों का मेला लगता था। इस मेलें में अर्जुन भी कृष्ण के साथ गये। उन्होंनें यहाँ सुभद्रा को देखा और उस पर मोहित हो गये। कृष्ण ने कहा-सुभद्रा मेरी बहिन है, पर यदि तुम उससे विवाह करना चाहते हो तो उसे यहाँ से हर कर ले जा सकते हो, क्यों कि वीर क्षत्रियों के द्वारा विवाह हेतु स्त्री का हरण निंद्य नहीं, बल्कि श्रेष्ठ माना जाता है।[21]
अर्जुन सुभद्रा को भगा ले चले। जब इसकी ख़बर यादवों को लगी तो उनमें बड़ी हलचल मच गई। सभापाल ने सूचना देकर सब गण-मुख्यों को सुधर्मा-भवन में बुलाया, जहाँ इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ। बलराम अर्जुन के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रुद्ध हो गये थे और उन्होंने प्रण किया कि वे इस अपमान का बदला अवश्य लेंगें। कृष्ण ने बड़ी कुशलता के साथ अर्जुन के कार्य का समर्थन किया। श्रीमान् कृष्ण ने निर्भीक होकर कहा कि अर्जुन ने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है।[22] कृष्ण के अकाट्य तर्कों के आगे किसी की न चली। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर शांत किया। फिर वे बलराम तथा कुछ अन्य अंधक-वृष्णियों के साथ बड़ी धूमधाम से दहेज का सामान लेकर पांडवों के पास इंन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अन्य लोग तो शीघ्र इन्द्रप्रस्थ से द्वारका लौट आये, किंतु कृष्ण कुछ समय वहाँ ठहर गये। इस बार पांडवों के राज्य के अंतर्गत खांडव वन नामक स्थान में भयंकर अग्निकांड हो गया, किंतु कृष्ण और अर्जुन के प्रयत्नों से अग्नि बुझा दी गई और वहाँ के निवासी मय तथा अन्य दानवों की रक्षा की जा सकी। [23]
राधा-कृष्णपांडवों का राजसूय यज्ञ और जरासंध का वध
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ कर दी। और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्णा को बुलाया। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने राजसूय यज्ञ के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय। कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार भीम और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया।[24] फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध-जैसे महापराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पांडवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता।
विरहिणी राधाअब पांडवों का राजसूय यज्ञ बड़ी धूमधाम से आरम्भ हुआ। कृष्ण ने यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों के पैर आदर-भाव से धोये। ब्रह्मचारी भीष्म ने कृष्ण की प्रशंसा की तथा उनकी `अग्रपूजा` करने का प्रस्ताव किया। सहदेव ने सर्वप्रथम कृष्णको अर्ध्यदान दिया। चेदि-नरेश शिशुपाल कृष्ण के इस सम्मान को सहन न कर सका और उलटी-सीधी बातें करने लगा। उसने युधिष्ठिर से कहा कि 'कृष्ण न तो ऋत्विक् है, न राजा और न आचार्य। केवल चापलूसी के कारण तुमने उसकी पूजा की है।'[25] शिशुपाल दो कारणों से कृष्ण से विशेष द्वेष मानता था-प्रथम तो विदर्भ कन्या रुक्मिणी के कारण, जिसको कृष्ण हर लाये थे और शिशुपाल का मनोरथ अपूर्ण रह गया था। दूसरे जरासंध के वध के कारण, जो शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था। जब शिशुपाल यज्ञ में कृष्ण के अतिरिक्त भीष्म और पांडवों की भी निंदा करने लगा तब कृष्ण से न सहा गया और उन्होंने उसे मुख बंद करने की चेतावनी दी। किंतु वह चुप नहीं रह सका। कृष्ण ने अन्त में शिशुपाल को यज्ञ में ही समाप्त कर दिया। अब पांडवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पांडवों की बढ़ती को देख उनके प्रतिद्वंद्वी कौरवों के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पांडवों को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।
युद्ध की पृष्ठ भूमि
यज्ञ के समाप्त हो जाने पर कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा ले द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से छल द्वारा जुए में पांडवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा। पांडव द्रौपदी के साथ काम्यकवन की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यक वन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेगें और उनका राज्य वापस दिलावेंगे। इसके बाद कृष्ण सुभद्रा तथा उसके बच्चे अभिमन्यु को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल राजा विराट के यहाँ व्यतीत किया। कौरवों ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा कृष्ण बलदेव भी सम्मिलित हुए।
इसके उपरांत विराट नगर में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नही था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये ? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। अतं में सर्व-सम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्धोधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने की राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्री कृष्ण ने सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन ने पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को ? दुर्योधन ने तत्त्काल सेना मांगी। कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेगें और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेगें।
कृष्ण अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये। कृष्ण के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करने हुए कहा- हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणाबत और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेगें, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने भी किया। वह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जाये। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।
महाभारत युद्ध
कृष्ण-अर्जुनइस प्रकार कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, पंचाल, चेदि, कारूश, पश्चिमी मगध, काशी और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवो के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम अद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, अवंति, विदर्भ और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्वकि ने पांडव-सैन्य की ब्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन के युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों और उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से युधिष्ठर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक अश्वमेध यज्ञ किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट् घोषित हुए। कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। अब वे वृद्ध हो चुके थे। महाभारत-संग्राम में उन्हें जो अनवरत परिश्रम करना पड़ा उसका भी उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
द्वारिकाधीश मन्दिर, द्वारकाश्रीकृष्ण का द्वारका का जीवन
द्वारका के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है कि यह नगर बिलकुल नवीन नही था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र शर्याति को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई।[26] यहाँ आकर कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर[27] की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई रूक्मी था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से कृष्ण उसे हर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस घटना से शिशुपाल कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।
हरिवंश के अनुसार बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ।[28] संभवत: पहले बलराम का विवाह हुआ, फिर कृष्ण का। बाद के पुराणों में बलराम और रेवती की विचित्र कथा मिलती है। कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों में मिलता है।[29] इनके नाम सत्यभामा, जांबवती, कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को कृष्ण विजय में प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि कृष्ण के संतानों की संख्या बड़ी थी ।[30] रुक्मिणी से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़ा प्रद्युम्न था। भागवतादि पुराणों में कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध का विवाह शोणितपुर[31] के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।
यादवों का अंत
द्वारिकाधीश मन्दिर, मथुराअंधक-वृष्णि यादव बड़ी संख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके। श्रीकृष्ण-बलराम अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे और संभवत: यादवों के ऊपर उनका प्रभाव भी कम हो गया था। पौराणिक विवरणों से पता चलता है कि यादवों में विकास की वृद्धि हो चली थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन प्रभास के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, वे आपस में लड़ने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया।[32]
अंतिम समय
प्रभास के यादवयुद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नही लिया, जिससे वे बच गये। ये थे-कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और बभ्रु। बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नही चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।[33] कहते है मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया।[34] शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि जरा नामक एक बहेलियें ने हरिण के भ्रम से तीर मारा। वह वाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। श्रीकृष्ण के अंत का इतिहास वास्तव में यादव गण-तंत्र के अंत का इतिहास है। कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। कही-कहीं उन्हें इन्द्रप्रस्थ का शासक कहा गया है।
आकर्षक वस्त्रों से सजे श्रीकृष्णअंधक-वृष्णि संघ
यादवों के अंधक-वृष्णि संघ का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस संघ की कार्य-प्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक-वृष्णि-संघ काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद़्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था; चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग-अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये। प्रत्येक दल अब अपना राजनैतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी। एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था। जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है, उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे। महाभारत के शांति पर्व के 82 वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और नारद के बीच संवाद के रूप में है। उसका हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जाता है ।
वसुदेव उवाच
देवर्षे! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो- ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं।(3)
स्वर्ग विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।(4)
मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। (5)
देवर्षे! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे ह्रदय को सदा मथता और जलाता रहता है।(6)
नारद जी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ।(7)
नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं।(8)
ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।(9)
आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान् दु:खदायी होता है)(10)
महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता। (11)
नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें। (12)
श्रीकृष्ण, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरानारद उवाच
नारद जी ने कहा- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत[35] और परकृत[36] भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। (13)
अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हूई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं। (14)
आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया। (15)
सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते। (16)
श्री कृष्ण! अक्रूर और उग्रसेन के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते। (17)
बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान् संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा। (18)
अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोहो का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है , परिमार्जन[37] और अनुमार्जन[38] करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें- उन्हें मूक बना दें(जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो) (19)
माखनचोर कृष्णवासुदेव उवाच
भगवान श्री कृष्ण ने कहा- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।(20)
नारद उवाच
नारद जी ने कहा- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बीना लोहे का बना हुआ शस्त्र है। (21)
जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें। (22)
राधा-कृष्णजो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें। (23)
समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं। (24)
केशव! आप इस यादवसंघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस संघ का- इस यादवगणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए। (25)
बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है। (26)
श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये। (27)
प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों के यथासमय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है।(28)
महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ॠषि-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं।(29)
आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुलतिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।(30)
उक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि अंधक-वृष्णि संध में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अंतर और वाह्म विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण-मुख्यों-अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी। `सभापाल' परिषद् बुलाता था। प्रत्येक सदस्स्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाडंवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से । इससे स्पष्ट है कि महाभारतयुद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी जोर हो गया था।[39]
वीथिका
कृष्ण जन्म के समय भगवान विष्णु
बाल कृष्ण को यमुना पार ले जाते वसुदेव
कृष्ण
राधा-कृष्ण, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
टीका टिप्पणी और संदर्भ
1.↑ छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे0 तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। महाभारत तथा हरिवंश, विष्णु, ब्रह्म, वायु, भागवत, पद्म, देवी भागवत अग्नि तथा ब्रह्मवर्त पुराणों में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। (श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)
2.↑ ) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के कटरा केशवदेव मुहल्ले में औरंगजेब की लाल मस्जिद (ईदगाह) के पीछे माना जाता है।
3.↑ हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।
4.↑ प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग0 पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ0 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र0 वै0 (22 और भाग0 (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग0 (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।
5.↑ हरि (72-76) तथा पद्म0 ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु0 (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इन्द्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग0 (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरुण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।
6.↑ हरि0 77; ब्रह्म0 189, 1-45; विष्णु0 13; भाग0 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै0 के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है। भाग0 पु0 (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।
7.↑ हरिवंश 79; ब्रह्म0 190, 1-21; विष्णु0 15, 1-24; भाग0 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म0 और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।
8.↑ हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म0 190,22-48, भाग0 37, 1-25; विष्णु0 16, 1-28।
9.↑ हरिवंश 82; ब्रह्म0 191-92; विष्णु0 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै0 70, 1-72। हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करुण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।
10.↑ ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरुद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।
11.↑ पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र0 वै0 (अ0 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे ।
12.↑ भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है। कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु0 5, 20, 91) तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ0 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।
13.↑ हरि0 87, 52। sS
14.↑ "ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु0 5,21,120)
15.↑ हरिवंश में कृष्ण-बलराम के यज्ञोपवीत का कोई उल्लेख नहीं है, पर शिक्षा से पहले उसका विधान है। उनका विद्यारंभ संभवत: गोकुल में हुआ। बाद के पुराणों-जैसे पद्म (273, 1-5), ब्रह्मवैवर्त (99 -102) और भागवत (45, 26-50) में यज्ञोपवीत का वर्णन है। इनके अनुसार गर्गाचार्य ने उन्हें गायत्री-मन्त्र का उपदेश दिया। सांदीपनि के आश्रम में ये चौंसठ दिनों तक रहे। इतने दिनों में वे गुरुकुल की प्रथा का पालन करते हुए धनुर्विद्या में ही विशेश शिक्षा प्राप्त कर सके होंगे। उनकी अवस्था अब बढ़ चली थी, क्योंकि हरिवंश के अनुसार अब वे युवा (`प्राप्त यौवनदेह:') थे। देवी भागवत (24,25) के अनुसार सांदीपनि के यहाँ से लौटने पर उनकी अवस्था केवल बारह वर्ष की थी।
16.↑ हरिवंश (अ0 91)। पुराणों में यद्यपि अनेक देश के राजाओं का उल्लेख हुआ है, पर यह कहना कठिन है कि वास्तव में किन-किन राजाओं ने जरासंध की पहली मथुरा की चढ़ाई में उसकी सहायता की और अपनी सेनाएं इस निमित्त भेजीं। भागवत् के अनुसार जरासंघ की सेना 23 अक्षौहिणी थी; हरिवंश 20 अक्षौहिणी तथ पद्म 100 अक्षोहिणी बताता है।
17.↑ हरिवंश और भागवत के अनुसार जब कृष्ण ने यह सुना कि एक ओर से जरासंध और दूसरी ओर से कालयवन बड़ी सेनाएँ लेकर शूरसेन जनपद आ रहे हैं, तो उन्होंने यादवों को मथुरा से द्वारका रवाना कर दिया और स्वयं बलराम के साथ गोमंत पर्वत पर चढ़ गये। जरासंध पहाड़ पर आग लगा कर तथा यह समझ कर कि दोनो जल मरे होंगे, लौट गया। दूसरी कथा के अनुसार कृष्ण सब लोगों को द्वारका भेज चुकने के बाद कालयवन को आता देख अकेले भगे। कालयवन ने इनका पीछा किया। कृष्ण उसे वहाँ तक ले गये जहाँ सूर्यवंशी मुचकुंद सो रहा था। मुचकुंद को यह वर मिला था कि जो कोई उन्हें सोते से उठायेगा वह उनकी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो जायगा। कृष्ण ने ऐसा किया कि कालयवन मुचकुंद द्वारा भस्म कर दिया गया। (हरिवंश 100, 109; भागवत 50, 44,-52) आदि।
18.↑ महाभारत में यादवों के निष्क्रमण का समाचार श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर को इस प्रकार बताया गया है -
'वयं चैव महाराज जरासंधभयात्तदा।'
'मथुरां संपरित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम्।।' (महाभारत ,2, 13,65)
19.↑ हरिवंश (अ0 113) में आया है कि शिल्पियों द्वारा प्राचीन नगरी का जीर्णोद्धार किया गया। विश्वकर्मा ने सुधर्मा सभा का निर्माण किया (अ0 116)। दे0 देवीभागवत (24, 31)- 'शिल्पिभि: कारयामास जीणोद्धारम।'
20.↑ पुराणों में इस घटना को यह रूप दिया गया है कि बलराम अपने हल से यमुना को अपनी ओर खींच लिया (देखिए ब्रह्म पुराण 197,2, 198,19; विष्णु पुराण 24,8; 25,19 भागवत पुराण अ0 65) परंतु हरिवंश पुराण (103) में स्पष्ट कहा है कि यमुना पहले दूर बहती थी, उसे बलराम द्वारा वहाँ से निकट लाया गया, जिससे यमुना वृन्दावन के खेतों के पास से बहने लगी। कई पुराणों में बलराम द्वारा गोकुल में अत्यधिक वारुणी-सेवन का भी उल्लेख है और लिखा है कि यहाँ रेवती से उनका विवाह हुआ। परंतु अन्य प्रमाणों के आधार पर बलराम का रेवती से विवाह द्वारका में हुआ।
21.↑ 'प्रसह्म हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
विवाहहेतु: शूराणमिति धर्मविदो बिदु: ।।' (महाभारत, आदि पर्व महाभारत 219,22)
22.↑ उनका स्वयं का दृष्टान्त भी सामने था, क्योंकि वे विदर्भ-कन्या रुक्मिणी को भगा लाये थे और फिर उसके साथ विवाह किया था।
23.↑ ये दानव संभवत: इस भूभाग के आदिम निवासी थे। पुराणों तथा महाभारत से पता चलता है कि मय दानव वास्तु-कला में बहुत कुशल था और उसने पांडवों के लिए अनेक महल आदि बनाये। शायद इसी ने कृष्ण तथा पांडवों को अद्भुत शस्त्रास्त्र भी प्रदान किये । ॠग्वेद में असुरों के दृढ़ और विशाल किलों, महलों और हथियारों के उल्लेख मिलते हैं। खांडव-वन में मय असुर तथा उसके कुछ काल पहले मधुवन में मधु तथा लवण असुर का होना एक महत्वपूर्ण बात है।
24.↑ कृष्ण और पांडवों के पूर्व से लौटने के बाद सहदेव के कई प्रतिद्वंदी खड़े हो गये, जिन्होंने मगध साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया। कुरुराज दुर्योधन ने कुछ समय बाद कर्ण को अंग देश का शासक बनाया, जिसने बंग और पुंड्र राज्यों को भी अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार दुर्योधन को पूर्व में एक शक्तिशाली सहायक प्राप्त हो गया।
25.↑ नैव ऋत्विङ् न चाचार्यो न राजा मधुसूदन: ।
चर्चितश्य कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया ।। (महाभारत 2,37,17)
26.↑ यह स्थान आजकल 'मूल द्वारका' के नाम से ज्ञात है और प्रभास-पट्टन के पूर्व कोडीनार के समीप स्थित है। औखामंडल वाली द्वारका बाद में बसाई हुई प्रतीत होती है। सौराष्ट्र में एक तीसरी द्वारका पोरबंदर के पास है।
27.↑ यह कुंडिननुर विदर्भ देश (बरार) में था। एक जनश्रुति के अनुसार कुंडिनपुर उत्तरप्रदेश के एटा ज़िले में वर्तमान नोहखेड़ा के पास था। किंवदंती है कि कृष्ण यहीं से रुक्मिणी को ले गये थे। नोहखेड़ा में आज भी रुक्मिणी की मढ़िया बनी है, जहाँ लगभग आठवीं शती की एक अत्यंत कलापूर्ण पाषाण-मूर्ति रुक्मिणी के नाम से पूजी जाती है। खेड़े से अन्य प्राचीन कलावशेष प्राप्त हुए हैं। यह स्थान एटा नगर से क़रीब 20 मील दक्षिण जलेसर तहसील में है।
28.↑ हरि0, अ0 116। बलराम का विवाह आनर्त-वंशी यादव रेवत की पुत्री रेवती से हुआ।
29.↑ भागवत पुराण (56-57), वायु पुराण (96, 20-98), पद्म पुराण (276, 1-37), ब्रह्म वैवर्त पुराण (122), ब्रह्माण्ड पुराण (201, 15), हरिवंश पुराण (118) आदि । पुराणों में नरकासुर का श्रीकृष्ण के द्वारा वध तथा उसके द्वारा बंदी सोलह हज़ार स्त्रियों के छुड़ाने का भी वर्णन मिलता है और कहा गया है कि कृष्ण ने इन सबसे विवाह कर लिया।
30.↑ दे0 भागवत पुराण 61, 1-19; हरिवंश पुराण118 तथा 162; ब्रह्मवैवर्त पुराण 112, 36-41 आदि।
31.↑ यह शोणितपुर कहाँ था, इस संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे गढ़वाल ज़िले में रुद्रप्रयाग के उत्तर ऊषीमठ के समीप मानते हैं। कुमायूँ पहाड़ी का कोटलगढ़ आगरा के समीप बयाना, नर्मदा पर स्थित तेवर (प्राचीन त्रिपुरी) तथा आसाम के तेजपुर को भी विभिन्न मतों के अनुसार शोणितपुर माना जाता है। श्री अमृतवसंत पंड्या का मत है कि शोणितपुर असीरिया में था और श्रीकृष्ण ने असीरिया पर आक्रमण कर बाणासुर (असुरबानी पाल प्रथम) को परास्त किया (ब्रजभारती, फाल्गुन, सं0 2009, पृ0 25-31)।
32.↑ विभिन्न पुराणों में इस गृह-युद्ध का वर्णन मिलता है और कहा गया है कि ऋषियों के शाप के कारण कृष्ण-पुत्र सांब के पेट से एक मुशल उत्पन्न हुआ, जिससे यादव-वंश का नाश हो गया। दे0 महाभारत, मुशल पर्व; ब्रह्म पुर0 210-12; विष्णु0 37-38; भाग0 ग्यारहवां स्कंध अ0 1,6,30,31; लिंग पु0 69,83-94 आदि
33.↑ संभवत: इस अवसर पर अर्जुन की कृष्ण से भेंट न हो सकी। कृष्ण पहले ही द्वारका छोड़ गये होंगे। महाभारत (16,7) में श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव से अर्जुन के मिलने का उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि वसुदेव इस समय तक जीवित थे। इसके बाद वसुदेव की मृत्यु तथा उनके साथ चार विधवा पत्नियों के चितारोहण का कथन मिलता है।
34.↑ महाभारत 16,8,60; ब्रह्म0 212,26।
35.↑ जो आपत्तियाँ स्वत: अपना ही करतूतों से आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।
36.↑ जिन्हें लाने में दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती है।
37.↑ क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 'परिमार्जन' कहलाता है।
38.↑ यथायोग्य सेवा-सत्कार के द्वारा हृदय में प्रीति उत्पन्न करना 'अनुमार्जन' कहा गया है।
39.↑ विस्तार के लिए देखिये के. एम.मुंशी-ग्लोरी दैट वाज़ गुर्जर देश, पृ.130 तथा वासुदेवशरण अग्रवाल-इंडिया ऎज़ नोन टु पाणिनि(लखनऊ,1953),पृ.452।
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Thursday, October 14, 2010
Friday, October 8, 2010
17. ललित निबंध का स्थापत्य
ललित निबंध यह अभिधा या विधा समीक्षकों के बीच विवाद का विषय रहा हा – व्यंग्य विधा की तरह। बहरबाल इस विवादक से बचते हुए ललित निबंधों के बीच से उभरे मूल्यों और उनकी बनावट-बुनावट के संबंध में एक संवाद स्थापित कनरे का यह एक विनम्र प्रयास है। पहले भाषा बनती है। उसका बहुशः प्रयोग होता है। बाद में उसका व्याकरण बनता है। उसका मानक रूप बनता है। ठीक इसी तरह पहले रचनाएँ जन्म लेदी हैं, उनकी प्रवृत्तियों व शैली-शिल्पों को देखकर ही उनका स्थापत्य या शास्त्र बनता है, जो हमेशा विकासशील रहता है – सभ्यता संस्कृति की तरह। ललित निबंध को इसी परिप्रेक्ष्य में तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया – अन्य विधाओं के सदृश। परिभाषाएँ कम पड़ती गईं तो ऐसा है, वैसा नहीं, नेति नेति कहकर छोड़ दिया जाता है – ब्रह्म की तरह।
व्यक्ति व्यंजक निबंध, रम्य निबंध, आत्मव्यंजक निबंध, ललित निबंध, पर्सनल एस्से, अदि अदि नामों से प्रचलित यह साहितय रूप अपने स्वरूप का संकेत दे देता है। लल् धातु से क्त प्रत्य और इट् आगम से बना ललित शब्द इस विधा का नाम है, मूल्य और विधान भी, जैसे आदरणीय क्षेमेन्द्र ने औचित्य को स्थिर काव्य का जीवन कहा है – औचित्यं स्थिर काव्यस्य जीवन, वैसे ही लालित्य को इस विधा का जीवन कहा जा सकता है – लालित्यं ललित निबंधस्य जीवनम् (इति से मतिः) ऐसा मेरा मानना है। इस विधा के पुरोधा आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ललित शब्द की बड़ी व्यापक व्याख्या की है। मतलब य कि इन रचनाओं के भीतर चाहे संस्कृति गान हो, लोक गाथा हो, भावना-कल्पना की उड़ान हो, विचार-चिंतन हो, आत्मकथा हो, बीती व्यथा हो, यथार्थ हो, व्यंग्य – सब कुछ ल्लित्य से लिपटे होते हैं, मधुमिश्रित होते हैं।
कोश के अनुसार – “अनाचार्योपदिष्टं स्याल्ललितम्”, अर्थात जो आचार्यों या उनके शास्त्रों से उपदिष्ट न हो, हर प्रकार की जकड़बंदी से मुक्त हो, ऐसी बनावट और बुनावट वाली रचना या कला ललित है। साहित्य दर्पण के अनुसार जिस रचना के अंग-विन्यास में सुकुमारता हो, वह ललित है – “सुकुमारतयाङगानाम विन्यासो ललितं भवेत्।” इस परिभाषा का प्रयोग देखना हो तो आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’, ‘अशोक के फूल’ तथा अन्य प्रतिष्ठित निबंधकारों की रचनाएँ पढ़ सकते हैं। नाखून जैसी नाचीज़ को भी चीज़ बना देना, पाठ्य बना देना, अशोक के फूल जैसे निर्गन्ध फूलों को भी स्मृति गंध का विषय बना देना इस लालित्य का प्रताप है। समस्त साहित्य लालित्य या रमणीयता का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप है। “रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्” यह काव्य लक्षण इसी तथ्य का संकेत है।
ललित निबंध विधा अविचारित रमणीय का रूप है, इसलिए वह रम्य निबंध भी कहा जाता है। अविचारित रमणीयता का आशय रहाँ यह कतई नहीं है कि इसमें विचार को अनर्गल समझा जाता है। तर्क और यथार्थ से यहाँ परहेज किया जाता है। यहाँ यथार्थ से पलायन नहीं है। रम्य पूर में सब स्वीकार है। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, परसाई जीने के ललित निबंधों की चर्चा करते हुए ठीक ही कहा है कि “परसाई के गद्य की पठनीयता इसी वृहत्तर लालित्य की धारणा से प्रभावित है जिसमें व्यंग्य-विनोद, क्रोध, तनाव सबके लिए जगह है। परसाई के ललित निबंधों में व्यक्ति और आत्म का जो स्पर्श है, वह निरंतर गहरी सामाजिकता में रचा-बसा है।” – ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 25
जाहिर है अविचारित रमणीय का आशय अनर्गल या निरर्थक रमणीयता से नहीं है। “बुध विश्राम सकलजनरंजनि” रमणीयता ही काम्य है। इस काम्य उद्देश्य को अनदेखा कर अथवा समझने की शिद्दत न उठाकर कुछ समीक्षक इसके स्थापत्य पर ‘नास्टेल्जिया’ या उन्मानद का पंक प्रक्षेप करते पाये जाते हैं। अतीत जीविता का आरोप लगाया जाता है। स्मृति का प्रलाप इसे मानने की भ्राँति पाली जाती है। मानने और पालने की अपनी-अपनी रुचि है, दृष्टि है, कोई क्या कर सकता है। ललित निबंध की प्रासंगिकता पर ऊँगली उठाते हुए श्री राजेन्द्र यादव का कहना है कि “हिन्दी में ललित निबंध की मूल चेतना नास्टेल्जिया है।... छूटे हुए अतीत को हाय हाय भाव से याद करना, चूँकि यहाँ रचनाकार अतीत में स्थित होता है, इसलिए वर्तमान को भी रुमानीया धिक्कार भाव से देखता है।”
– ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 31
यथार्थवादियों का ऐसा अभियोग वस्तुतः भ्राँति मात्र है या नकार की प्रवृत्ति की सूचना। ललित निबंधों का सच इसके विपरीत साक्ष्य देता है। वस्तुतः यह विधा न वर्तमान या यथार्थ से पलायन को उकसाती है न अतीत के प्रति अतिरिक्त मोह को प्रश्रय देती है। अतिरिक्त मोह किसी भी विधा के लिएदोष है – अनोचित्य दोष की तरह। यथार्थ से साक्षात्कार सभी रचनाकार अपने-अपने संवेदन तंत्र से करते हैं और उसे अपने-अपने ढंग से व्यक्त करते हैं। प्रोफेसर रमेशचन्द्र शाह का मन्तव्य है कि “यथार्थ आत्मतः आविष्कृत करते चलने की प्रक्रिया साहित्य में गहरी मौलिकता को जन्म देती है। निबंध की समस्या आत्म को आत्म से और आत्मसे ही परात्म और अनात्म को पकड़ने की है।”
– शैतान के बहाने, पृष्ठ 4 भूमिका
बात साफ है, न अतीतजीवी होना गुण है न निखालिस वर्तमान में जीना। अपने समय से साक्षात्कार करने वाले प्रभाष जोशी ने कहा है “यथार्थवादी वर्तमानवादी होते हैं। वर्तमान में सिर्फ पशु ही जीते हैं, क्योंकि उसका कोई अतीत नहीं होता।... आदमी आदमी हुआ तो इसलिए कि उसके स्मृति मिली और वह भविष्य के सपने देखने लगा। वर्तमान यथार्थ हो सकता है, परन्तु यथार्थ सत्य नहीं हो सकता। सत्य को यथार्थ केआर-पार देखकर ही आप पा सकते हैं।” – जनसत्ता में छपे लेख से
दरअसल अतीत से कटे लोग कटी पतंग की तरह होते हैं। छने हुए ्तीत या परम्परा का स्मरण या गान गौरव गान है। भूमि वंदना का विधान है। संस्कृति का अभइनंदन है। इसी गान के द्वारा क्या भारतेन्दु और मैथिलीशरण गुप्त ने सुप्त भारतीयता को जगाने का प्रयास अतीत गान द्वारा नहीं किया था। क्या गांधी, आज़ाद, भगत सिंह, राणाप्रताप,शिवाजी जैसों की याद अतीत स्मरण नहीं है ? क्यायह स्मरण राष्ट्रीयता-जागरण काविधान-सा नहीं है ? हमारी परम्परा ‘स्मृति’ को देवी के रूप में स्मरण करती है,जो सभी प्राणियों के भीतर व्यक्त-अव्यक्त रूप से विद्यमान है – कदाचित इसलिए नमन करती है। यह देवी हमें वह ताकत देती है। क्रूर वर्तमान की मार सहने की शक्ति देती है। टूटने से बचाती है। भारतीयसोच के बारे में एग्स विल्सन ने ठीक ही कहा है कि “भारत एक भौगेलिक वास्तविकता से कहीं अधिक परम्परा तथा एक बौद्धिक आध्यात्मिक ढाँचा है।” ललित निबंध भौतिक वास्तविकता का यथोचित आदर करता है, पर अपनी शर्त पर। वह भौगोलिक या भौतिक वास्तविकता से अधिक भारत की आत्मा जिन परम्पराओं, आध्यात्मिकता और संस्कृति में निवास करती है उनकी आराधना करता है। एक घड़ी-आधी घड़ी की नास्टेल्जिया या अतीत की आह-ओह भाव से भरा गान यदि जीवन को, नहला जाये तो क्या बुरा है ? प्रसाद जी ने तो मधुआ के हवाले से कह ही दिया है कि ‘मौज-मस्ती की एक घड़ी भी ज्यादा सार्थक होती है एक लम्बी निरर्थक जिंदगी से।’ क्या यथार्थावादी भीतर से रुमानी तबियत के नहीं होते ? फिर रुमान की वास्तविकता से हाय-तौबा क्यों। उन्हें फ्रायड के पास जाकर सच से पिरचित होना चाहिए। फिर क्या यथार्थ बोध केवल करुआ, कषैला, खट्टा, तीता का ही नाम है, उनमें मधु भाव शामिल नहीं ? जीवन का यथार्थ सब का मिश्रण है – मौसम की तरह, आम की खटमिट्ठी की तरह, पनहा (प्रपाषक रस) की तरह। राम और श्याम की लीलाओं में मारण, मोहन, धारण-निवारण – सब कुछ साझा है।
किसी एक लेखक या उसकी या और की कुछेक रचनाओं को पढ़कर किसी विधा के प्रति धारणा बना लेना भ्राँति को आमंत्रित करना है। प्रोफेसर रमेश चन्द्र शाह जैसे स्थापित निबंधकार और समर्थ समीक्षक जब मुझ जैसे नवसिखुये निबंध लेखक की पहली कृति पर ऐसा अभिमत प्रकट करते हैं तो मेरे भीतर का निबंधकार आश्वस्ति से तृप्त होता ही है, ललित निबंध का स्थापत्य भी रेखांकित हो जाता है। बड़ी विनम्रता और संकोच के साथ आप सब की कृति ‘स्मृति गंध’ पर की डॉ. शाह की टिप्पणी मैं प्रस्तुत करना चाहता हूँ – इस क्षमायाचना के साथ कि आप इसे आत्मप्रशंसा न समझेंगे –
निबंध – विशेषकर वह निबंध जो ‘पर्सनल एस्से’ के नाम से जाना जाता रहा – एक विलक्षण विधा है और हिन्दी खड़ी बोली ने उसे आरंभ से ही बड़ी ललक और सहज सांस्कृतिक आत्मविश्वास केसाथ अपनाया, न केवल अपनाया, बल्कि उसे एक विशिष्ठ भारतीय रंग और स्वर में भी ढाला। यहाँ उसने ललित निबंध के रूप में अपनी अलग ही पहचान स्थापित की।
शोभाकांत झा को यदि यह विधा रास आई है तो इसका कारण यही है कि उनके स्वभाव तथा संस्कार में वे आधारभूत अर्हताएँ विद्यमान हैं, जिनके बिना कोई भी लेखक इसविधा में प्रवेश करने को प्रेरित नहीं हो सकता। इन अर्हताओं में जहाँ एक ओर मिथिला की रसमयी आँचलिकता से अभिषिक्त उनकी रसात्मक संवेदना की सुस्पष्ट भूमिका कार्यरत देखी जा सकती है, वहीं भारत के हृदय की कुंजी स्वरुप हिन्दी और उसकेसाहित्य के अखिल भारतीय स्वरूप का परिश्रमपूर्वक अर्जित बोध भी (शोभाकांत का सोचने और महसूस करने का अपना स्वाधीन ढंग है। प्रचलित साहित्यिक रुढि़यों (नई-पुरानी) की जकड़बंदी से वे ग्रस्त नहीं, यह उनके लेखों में साफ देखा जा सकता है। इसी से जहाँ एक ओर वे तुलसी के कृतित्व को लेकर वे कुछ काम की बातें कह सकते हैं, वहीं दूसरी ओर वे विद्यापति के प्रति अपनी रीझ-बूझ को पाठक के लिए नये सिरे से, नई सूझ-बूझ के साथ सार्थक और उत्तेजक बना सके हैं। यह लचीलापन-संवेदना तथा रुचि दोनों का – उनके विवेकी साहित्यिक भाव-बोध को दर्शाता है। फिर, जिस खुली संवेदना और भावप्रवणता के साथ वे साहित्य को पढ़ते हैं, उसी खुली संवेदना और सहज भावप्रवणता के साथ अपने जीवनानुभवों को भी। ‘स्मरणं त्वदीयम’ और ‘स्मति गंध’ जैसे ललित निबन्ध इस प्रतीति को बल देते हैं। महज नास्टेल्जिया से अपने को अलगा सकने वाली गुणवत्ता इन निबन्धों में दिखाई गई है। उम्मीद करनी चाहिए का आगे लेखक की साहित्यिक रीझ-बूझ तथा जीवनानुभूति का और भी एकाग्र तथा गाढ़ा मेल उसके निबंधों के जरिए प्रकट होगा।
ललित निबंध या किसी भी विधा के स्थापत्य के संबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है और कहा जा चुका है। कोई कहना अंतिम नहीं होता क्योंकि स्थापत्य निरंतर सृजन के कारण बदलता रहता है – नये नये वास्तुशास्त्र की तरह। ‘अदबुत अपूर्व स्वप्न’ जिससे विवेच्य विधा और आधुनिक हिन्दी गद्य का आरंभ माना जाता है। तब से लेकर आज तक इसकी निरंतरता बनी हुई है। ललित निबंधों का लेखन कम जरूर हुआ है, पर बंद नहीं। इसकी प्रासंगिकता चुकी नहीं है। आत्म को परात्म का व्यक्ति को समष्टि का पाठ्य बना देने की कला में निपुण यह विधा मरेगी नहीं – गीत काव्यकी तरह, कविता की तरह। यह कविता का गद्य विकल्प है। जरूरत है अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में “अन्य विधाओं के साथ चलने को आज ललित निबंध को नितांत वैयक्तिक हाहाकर, चिन्ता, धुर ग्राम्य प्रेम या संस्कृति के रंगीन कुहासे से बाहर आकर नए भावबोध के साथ सन्दर्भों से टकराना होगा।” – ललित निबंध; भूमिका पृष्ठ 2
अंत में आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के मन्तव्य से बात को समेटना चाहता हूँ – “आचार, रीति-रिवाजों से लेकर धर्म, दर्शन, शिल्प सौन्दर्य तक में सर्वत्र नये सिरे से सोचने कीआवश्यकता है। कोई नैतिक मूल्य अंतिम नहीं; कोई शिल्प विधि सर्वोत्तम नहीं कही जा सकती, कोई अभिव्यक्ति पद्धति सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती।” – ललित निबंध; लेख रमेश कुंतल मेघ पृष्ठ 19
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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16. हरसिंगार
आंगन का नाम अधर पर आते ही मन ग्राम्यगंधी हो उठता। उसमें भी आंगन के कोने में उगा हरसिंगार और तर करके रख देता है। उसके ऊपर नीचे झरे-बिछे जोगिया रंगी डंठलों वाले खेत पुष्पों की सुगंध से शरदभोर पूरी तर विभोर हो उठती है। इसी भोर की तरह सराबोर मैं उसकी कलियों को चुनने लगता हूँ और मन स्मृति को।
बचपन के रचे वे पन्ने खुल जाते हैं, जिन पर धीरे-धीरे गोरी होती भोर का उतरना रचा होता। सोनहा बिहान, शबनम की मुसकान और प्रभाती गान के छंद रचे होते। बाबूजी पौ फटने से घंटाभर पहले ही प्रभु को प्रभाती सुनाने लगते थे और हम डलिया लेकर हरसिंगार की कलियाँ चुनने पहुँच जाते थे-
रामचन्द्र रघुनाय तुमरों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम मनुमानि डरौं।।
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहि हृदय धरौं।
देख आनकी बिपति परम सुख, सुनिसंपति बिना आगि जरौं।।
नाना वेष बनाय दिवस-निसि, पर बित जेही तेहि जुगति हरौं।
एकौ पल न कपहुँ अलोल चित, हित है पद-सरोज सुमिरौं।।
उन दिनों सोचहीन वय के कारण बाबूजी के इस प्रभाती गान का अर्थ नहीं लगा पाता था और इन दिनों दिवस-निशि अर्थ दौड़ में दौड़ते रहने के कारणपर-दुख देखकर सुखी और पर-सुख देख दुखी होने वाले आज के अर्थलोलुप मन में ऐसे भजन भाव समा भी कैसे सकते हैं ? इस बहुरूपिए युग को वह रुचि कहाँ कि वह रामरुप मे रम सके। हरसिंगार आगंन में नही होता तो बाबू जी के गाये इस प्रभाती की स्मृति भी शायद ही आती। महादेवी के यह पद भी क्यों याद आते-
पुलक-पुलक उर सिहर-सिहर तन
आज नयन क्यों आते भर-भर
शिथिल मधु पवन गिन-गिन मधुकण
हरसिंगार क्यों झरते-झर-झर।
पुलक का स्वाद पवन की सिहरन, स्मृति की मिठास और हरसिंगार के झरने का अहसास बचपन की उम्र को क्या मालूम। बचपन तो संग-साथ सबको सहजता से भीतर समोना जानता है, ऊभू-चूभ होना जानता है। स्वाद तो बाद की उम्र लेती है। संग-संग रीझने-खीझने, नाचने-गाने, छिपने-छिपाने, उलाहना देने और अभाव में अकुलाने से उपजी प्रीती का आस्वाद गोपियों को तब लगा जब श्याम गोकुल छोऱ गया। और श्याम को भी व्रज छूट जाने पर व्रज लीला की बेशुमार सधियो का स्वाद मेरा भी गोकुल बहुत दूर छूट गया है। दूर होने पर स्मृति और गाढी हो जाती है- प्रीति की तरह, अहसास की तरह। शहर लाख सिर पटक ले जब तक भीतर का आदमी मरा नही है, तब तक उसकी पर्याय स्मृति मर नही सकती। सिंगार का सुगंध सिरा नही सकती, कोयलिया की बोली भुला नही सकती।
रही बात हरसिंगार क्यों झरता है, तो जो खिलता है क्या झरना उसकी नियति है। फूल अपनी सुगंध फैलाकर और अच्छे अपनी अच्छाई को आचरण देकर दूसरो को खिलने का अवसर देते है। समय रहते ही हट जाते है- जमे नही रहते नेताओ की तरह। धक्का खाकर बाहर होने की आदत अच्छी नही होती। हरसिंगार देवाधि देव महादेव का श्रृंगार है, वह उनका श्रृंगार बनने, उनके संग पाकर कृतार्थ होने, औरों को कृतार्थ करने की मशां से झर जाता है। रुपगुण के फीका पडने से पहले ही वृन्त से हट जाता है- सगे-सनेहियों को कृतार्थ होने का, अपने होने को प्रमाणित करने का मौका देकर सूखने पर तो सभी झर जाते है दयनीय दया का पात्र बनने से पहले ही विकसित हो जाना बेहतर है। रुप-राध इतराने की वस्तु नही, रमने-रमाणे की चीज है, यह कहते हुए हरसिंगार यह भी झरकर कहना चाहता है कि नश्वरता संसार की नियति है, इसलिए अच्छे के लिए अपने को अर्पित कर देना अच्छा है। बहुत सारे आशय झरने मे समोया हुआ है। समझ-सोच के अनुपात से आशय खुलता जाता है।
हरसिंगार के मनुहार का मौसम प्रकृति के निखार की भी रुत होती है। अवदात अकाश, शरदचन्द्र का आहलादमय हास दिपदिपाते तारे- दिपावली के दीप जैसै। वनश्री सधस्नाता सी लटों से शबनम की बूंदे बच्चो के मन जैसे निर्मल जल, मनुहार के लिए गुहार लगाती रातरानी। शारदीय शक्ति पूजा के लिए आहवान करती नवरात्रा। वर्षा भींगे अलसाये और कृषि कर्म से थके लोक मन को शक्ति आराधना के लिए उत्साहित करता शरद दुर्गोत्सव। दुर्गति से बचाने वाला और दुर्गम विकास-विजय यात्रा को सुगम बनानेवाली दुर्गा की आराधना के लिये भर-भर डलिया हरसिंगार चुन लेने हेतु किशोर-किशोरियों में होऱ सी लग जाती थी, तब के दिनों में। रामू, श्यामू, बाले-बिन्दे, रमेश, महेश, गमकला, उर्मिला, गोदा, भूल्ली पीसी और जागेकाका- गाँव भर के किशोर वय शक्ति भक्ति की औकात के मुताबिक पौ फटने से पूर्व ही- देंखे कौन कितना फूल चुनता है, फूल चुनती थी। कमल मुख मुसकाते तालाब मे सात-सात डुबकी लगाकर तैरकर कमलों को काढते और बालसखा छिन्नमस्ता देवी की आराधना के लिए दुर्गास्थान (उच्चैठ) चल पऱते।
डुमरा से कोसो भर की दूरी पर उच्चैठ मे दुर्गा देवी राजती है, लोरिका धनौजा दोनो गाँव को पारकर जाना पऱता था। सब बाल सखाओ के हाथों मे फूलो की डलियाँ होती और जेब में ताम्बें के दो-चार पैसे। उन दिनों दो-चार पैसे दो-चार रूपये के बराबर होते। साथ मे चूऱा-गुऱ की पोटली भी। मंदिर परिसर मे पहुँचते ही भीऱ का ठेमल-ठेल और मेले का रेलम-पेल। मंदिर मे प्रवेश पाने के लिए छोटे रेल डब्बे कीसी धक्का-मुक्की देवी के चरण छू लेने की होऱ-सी लग जाती। देवी के उपर चढे फूल जब बाह के अर्पित होते फूलो के हल्के झटके से, या भार से, या अन्य कारणो से या देवी की कृपा से भक्तो की अँजुरी मे और भक्तिनो के आंचल में गिरते तो वे विभोर होकर भगवती की प्रसन्नता को सम्हालकर रख लेते, माथे से निकलते। गिरिजा पूजन के समय सीता के आँचल मे भी देवी के उपर चढी माला प्रसन्नता का प्रतीक बनकर गिरी थी और देवी गिरीजा मुस्कुरा उठी थी- खसी माल मूरति मुस्कानी।
निर्मल का अंजुरी मे गिरना या आँचल में आ जाना संभवतः उन्हीं स्मृतियो और ज्ञाताज्ञात संस्कारो की स्मृति है।
अष्ठमी के दिन का तो रंग ही दूसरा होता था। भौइद्दी मे बसे पचास गाँवो की श्रध्दा उमऱ पऱती थी- अर्पित होने के लिए, माँ की ममता दया पाने के लिए, सांसारिक सुख और पारलौकिक कृपा पाने के लिए। ‘दुर्गा माता की जय’, ‘दुर्गा महारानी की जय’ की जयकार कोसों दूर से सुनाई पऱती। श्रध्दा मेले का शोर आसपास के दसो गाँव में सुनाई पऱता। मंदिर के भीतर-बाहर ‘दुर्गा सप्तशती’ पाठियों के पाठ से आयतन पावन होता। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक चलने वाला यह दशमी मेला आज भी स्मृति मे जुऱ आता है-हरसिंगार की कलियों को चुनते हुए। कालिदास,का वह गढ (टीला) आखों के सामने झूल जाता है, जहाँ वे पढे थे। यहीं कालिदास पत्नी की वाक-बाण से बिंध होकर विद्या पाने आये, को कालि की कृपा से मिल गई और वे कालिया से कालिदास बन गये थे। भले ही विद्वानो का बहुमत उज्जैयिनी में कालिदास का होना प्रमाणित करता हो, पर इस किवदंती को एकदम से नकारा भी नही जा सकता, क्योंकि मिथिला विद्वानों से मंडित रही है और वैसे भी विद्वान, संत-महात्मा एक देश-काल के होकर नही रहते।
‘हरसिंगार’ या मैथिली ‘सिंगरहार’ हरश्रृंगार का तद-भव रुप है। तत्सम से तदभव जरा ज्यादा मीठा होता है। लोकभाषा की प्रकृति मे ढला हुआ, काक से ‘कागा’ और पिक से ‘कोईलिया’ की तरह मीठा। यह भले ही उगा हो हर-गौरी के श्रृंगार के लिए, पर इसे अन्य देव-देवियों के लिए, पर इसे अन्य परहेज नहीं। पवन-गगन सब इससे तर होते हैं। आप भी तर हो सकते हैं। यह हर की तरह सबके लिए औढर है और औषधि भी। इसकी कोमल पत्तियों को पीसकर सुबह शाम खाली पेट पी लीजिए, पुराना बुखार उतर जायेगा। भूख जग जायेगी। विश्वास बढ़ाने के लिए मेरी नातिन स्वाति से पूछ लीजिए, जो इसकी पत्ती पीकर अच्छे स्वास्थ्य की मालकिन है। तईभ से वैद्यनारायण की तरह मेरे आंगन में विराजमान है। श्रीखंड जंदन के साथ इसके दो-चार गोरोचन रंगी डंठलों को घिस दिजीए सुगंध में छवि और छवि में सुगंध समा जायेगी और यह गोविन्द के भाल के गोरोचन तिलक बन जायेगा। जब भी हरसिंगार को चुनता रहता हूँ तो दिनकर की ये काव्य पंक्तियां स्मृति द्वार से अधर पर उतर आती हैं और भूले-बिसरे दिन और लोग याद आ जाते हैं –
पहन शुक्र का कर्णफूल दिशा अभी भी मतवाली।
रहते रात रमणियाँ आई ले-ले फूलों की डाली।
हरसिंगार की कलियाँ बनकर वधुओं पर झर जाऊँगी।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
posted by जयप्रकाश मानस @ 12:21 PM 0 comments
15. सर्वमंगल भाव और संस्कृत साहित्य
साहित्य सदैव सर्वमंगल भाव को जीता है। उसका आग्रह सबका हित है। हित बाव के बिना साहित्य नहीं रह सकता। जैसे हाथी के पैर के विस्तार में सारे जीवों के पाँ समा जाते हैं, वैसे इस मंगल भाव में सभी प्रकार के हित भाव समा जाते हैं। शिव सुंदर और सत्य होता ही। यह ‘साहित्य’ शब्द, जो शब्द अर्थ के परस्पर प्रतिस्पर्द्धी सौंदर्य से वाणी की उपासना करता है, संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संस्कृत’ शब्द भी अपने आप में संस्कार और सौंदर्य बोधक है। परिष्कृत या संस्कारित भाषा का नाम ‘संस्कृत’ है। संस्कार मंगल मूलक होते हैं। यह मंगल मूला देव भाषा देवताओं को तो भावित करती रही है, हजारों वर्षों से हमारी चोस-समझ को भी संस्कारित करती रही है। जितना दार्शनिक विचारधाराओं का, मानवीय मेघा का चतुर्दिक प्रसार और प्रस्रवण संस्कृत युग में हुआ उतना आधुनिक भारतीय भाषाओं की बात कौन कहे, विश्व भाषाओं में भी कदाचित नहीं हो सका। आधुनिक दर्शन-चिंतन के केन्द्र पाश्चात्य देश जरुर बन गए है, परन्तु प्राचीन काल मे भारत ही केन्द्र रहा है। इस केन्द्रत्व का साक्षी है नालंदा एंव तक्षशिला के विश्व विद्यालयों का इतिहास। सबका श्रेय-प्रेय संस्कृत का सनातन द्दयेय रहा है। दुर्योग या काल योग से सब के शुभाकांक्षी बुद्दद् जैसे दलितों के खासम खास हो गए है, पंथ या सम्प्रदाय के घोर विरोधी कबीर खास पंथ के पिंजरे में कैद हो गए, सूर-तुलसी पर वर्ग विशेष की मुहर लग गई है। ज्यादातर स्वतंत्रता के बाद सत्ता पर काबिज होने अथवा बने रहने के अपवित्र उद्देश्य से भाषावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद की विष-वेलि बोने में हमारी धरु राजनीति ने महारत हासिल कर ली है। परिणति सामने है। संस्कृत की छोङिये, जिस हिन्दी को गैर हिन्दी भाषी लोगों ने राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पहल की, एक जुटता दिखाई, राष्ट्रीय एकत्व के लिए सभी वर्गो के लोग को सिर पर कफन बाँध आगे आने हेतु प्रोत्साहित किया, उसी को पहले उर्दू से विलगाया गया। अब तो उसकी बोलियों से भी उसे अलग करने की प्रवृति पनप रही है। जिस अंगेजी के विकल्प के रुप मे और राष्ट्रीयता को पुष्ट करने के लिए हिन्दी को स्थापित किया गया था, स्वदेशी अवधारणा का अनुष्ठान किया गया था, उसी हिंदी को आजादी के बाद क्षुद्र स्वार्थवश किनारे करने का कुप्रयास किया जा रहा है, तो संस्कृत के भगवान ही मालिक है।
संस्कृत निर्विरोध रुप से उत्तर का सेतुबंध रही है। समस्त भारतीय भाषाओं की जननी-जैसी रही है। वृहत्तर भारत के वाङ्मय का माध्यम रही। ‘वसुधैव कुटुम्ब’ के भाव को सर्वातमना जीती हुई सबको आत्मसाक्षकर आत्मीयता देती रही। उसी को वर्ग विशेष की भाषा मानकर उसके पठन-पाठन पर ग्रहण विडंबना नही तो क्या है? यह वर्ग विशेष की भाषा नहीं, अशेष की है। कांची-काशी की नहीं, समस्त भारतवासी की है। संकीर्णता की नही, उदारता की है। इसी उदारता से प्रभावित होकर दाराशिकोह ने उपनिषदों का अनुवाद फारसी मे किया था। रसखान ब्रजभाषा के रस मे पगे और मलिक मुहम्मद जायसी की अवधी में समाधी लगी।वेद वाणी समस्त जगत के जीव और नर-नारी के शिवत्व की कामना करती हुई कहती है-
ऊँ स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु। स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव द्दशेम सूर्यम् –ऋगवेद् 1-31-4
इसी भाव का भाष्य यह श्लोक है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्ददुखभागभवेत्।।
पितृपक्ष में तर्पण करते हुए भारतीय जन न केवल अपने पितरो को जलांजलि देकर उनकी तृप्ति की कामना करते हैं अपितु विश्व के समस्त जङ-चेतन के लिए तृप्ति जलांजलि समर्पित करते है।
ऊँ देवास्तृप्यन्ताम्, ऋषयस्तृन्ताम् संवत्सरः सावयवः तृप्यताम् नागास्तृप्यताम् सागरा स्तृप्यन्ताम्, पर्वता-स्तृप्यन्ताम् सरितस्तृप्यन्ताम् मनुष्यास्तृप्यन्ताम् रक्षांसितृप्यन्ताम् पशवस्तृप्यन्ताम, वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् औषधयस्तृप्यन्ताम् भूतग्रामचतुर्विधस्तृप्यन्ताम्।
वेद-वेदांग की भूमिका के बाद पुराणों की भूमिका सर्वमंगलत्व की दिशा में कम महत्वपूर्ण नहीं कही जा सकती। शक्तिस्वरुपा देवी की प्रार्थना करते हुए भक्त- सबके सारे हितों की सिद्दि हेतु याचना करता है
सर्वमंगल मंगल्ये शिवे सवार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमो स्तुते।। -दुर्गासप्तशती
श्रीमदभागवत पुराण की मंगलकामना और भी व्यापक है। विश्व की मंगलभावना से भावित है। दुष्यों तक की निर्मल बुद्धि की कामना की गई है। प्राणियों में परस्पर सदभावना हो। मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो तथा निष्काम भाव से रमा रमण में हमारा मन रमता रहे
स्वस्त्यस्तु विश्वस्च खलः प्रसीदतां
ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथोधिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे
आवेश्वयतां नो मतिरप्यहैतुकी।।
यह सर्वशुभोदय की भावधारा गंगोत्री की तरह सहस्रधार होकर संस्कृत काव्य-भूमि में बहती रही है। लोगों को भ्रांति है कि संस्कृत पूजापाठ की भाषा है। पंडितों की भाषा है। जन साधारण की समस्या सोच, सुख-दुख, चरित्र से इसका दूर का भी संबंध नहीं। आभिजात्य वर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता चुक गई है। अदी-अदि न जाने कितने भ्रम फैले हुए हैं, किन्तु गहरे उतर कर देखें तो ये सारे भ्रम, भ्रम ही हैं, सतही हैं। संस्कृत संदर्भहीन नहीं हुई है। कोई भी भाषा जब साधारण जन के बीच संवाद का माध्यम नहीं रह जाती तो उसमें ताजगी भले ही कम हो जाती है, किन्तु इससे वह संदर्भही नहीं हो जाती।सबके हित की उपेक्षा करके िकसी भाषा का साहित्य जी नहीं सकता।जबआदि कवि वाल्मीकि का अदना हृदय क्रौंचवध पर रो उठा था, तब उन्होंने राम जैसे आर्तत्राण महानायक की खोज अपने श्लोकों की सृष्टि रचने के लिए की थी। इस खोज में मुनि ने सतचरित्र एवं सभी के हितभाव को केन्द्र में रखा था। नारद जी से प्रश्न करते हुए आदि कवि ने जिज्ञासा प्रकट की कि अभी इस लोक में कौन ऐसा वीर पुरुष है, जो धर्मज्ञ, कृतज्ञ सत्यसंध, दृढ़वती गुणवान, विद्वान, चरित्रवान और प्राणिमात्र का हितैषी है ? नारद मुनि ने राम का ना लिया। सबका कल्याणकरना राम का काम था –
कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवा कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्वाक्यो दृढ़वतः।।
चारितत्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को रतः।
विद्वान कः कः समर्थश्य कश्चैक प्रिय दर्शनः।। - वा.रा.वा. कां. 2-3
व्यास यदि मनुष्य को सृ-ष्टि का श्रेष्ठतम जीव मानते हैं, तो कालिदास प्रकृति अर्थात् प्रजा के हित को सर्वोपरि स्थान देते हैं। पग-पग पर राजा या प्रशासक को कालिदास की कविता प्रकृति रंजन का स्मरण दिलाती है। राजा प्रकृति रंजनात्, अर्थात् सब प्रकार से प्रजा को प्रसन्न रखने वाला ही राजा हो सकता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् के अंत में नाटककार का भरत वाक्य है कि राजा प्रजा के हित में रत रहे। विद्या में वृद्धि हो। शिव हम सबका शुभ करें –
प्रवर्तताँ प्रकृति पार्थिवः
सरस्वती श्रुतमहतां महीयसाम्।
ममापि च क्षपयतु नील लोहितः
पुनभवं परिगतशक्तिरात्मभूः।।
परम्परासे हटकर सोचने और रचने वाले करुणा के कवि भवभूति समस्त भावों के केन्द्र में करुणा को रखकर जग मंगल के लिए अपनी प्रतिबद्धता सम्प्रेषित करतेसे जा पड़ते हैं। अशेष मानवीयसहानुभूति का स्त्रोत करुणा ही तो है। उसमेंसंसार के शुभोदय का निवास है। परपीड़ा अधमताई है तो परोपकार पुण्यकापुंज। एक से बचने और दूसरे को करने के लिए करुणा चाहिए। इसी चाह की खोज भवभूति की करुणा है। पृथ्वी तनया प्रकृति स्वरूपा सीता की पीड़ा से द्रवित कवि चित्त करुणा का आश्रय लेता है। लोकाराधन के लिए सीता का निर्वासन प्रजाहित के लिए प्रकृति का पीड़न कहा जा सकता है। प्रजा मंगल के लिए और भी विकल्प खोजे जा सकते थे। इसकल्प की कसक-कचोट से पत्थर भी रो उठता है। प्रकृतिरोती है। राम रोते हैं। स्वयं राम को अपना उत्तरचरित अपराध बोध से भारी लगता है – ते ही नो दिवसाः गताः (उत्तरराम चरितम् ्ंक 1) इसी करुणा ने तो ुबद्ध को घरबार छुड़ाया था। विश्वमंगल की साधना के लिए उसकायाथा। भवभूति का कवि अपनी तथा सबकी विभूति का कारण प्रेम, करुणा और परोपकार को मानते हुए कामना करता है कि सारे संसार का शिव हो। सभी प्राणी परिहत निरत हों। दोष शांत हों। सभी स्थान के निवासी सुखी हों –
शिवमस्तु सर्वजगतां परहित निरताः भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु शान्ति सर्वत्र सुखी भवतु लोकः।। - मालतीमाधवम् 10-25
कविता संसार का प्रतीक और पात्रों के माध्यम से मंगल का संदेश देता है। वह समस्त मानवता के प्रति स्वभावतः प्रतिबद्ध होता है। पक्षी, पर्वत, प्राणी-जड़ चेतन सभी उसकी सहानुभूति और प्रेम के पात्र होते हैं। संस्कृत इसी भाव की पूजा करती है। सर्वदया का पाठ पढ़ाती है। सबके श्रेय-पेय की स्तुति गाती रहती है। अपने कल्याण से पहले विश्व मंगल की कामना की जाती है – “शिवमस्तु सर्व जगताम्।”
संस्कृत की भारत सावित्री पूडा-पाठ प्रधान नहीं, धर्म और कर्म प्रधान है। धर्म की व्याख्या में समष्टि का मंगल विधान सर्वोपरि है, बाह्याडंबर नहीं। धर्म की अवधारणा प्रजा और समाज के धारण या रक्षण करने से अर्थवती है। वे कर्म और यम नियम, जो ध्वंस से बचाते हैं और निर्माण करते हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। वे आचरण जो आतंक नहीं, आनन्द और अभय़ प्राणि मात्र के लिए सिरजते हैं, उन्हें धर्म की मर्यादा कहते हैं। तभी तो भारत सावित्री कहती है –
धारणादधर्म इत्याहुर्धर्मोधारयते प्रजाः।
यत् स्यात् धारणसंयुक्तं सधर्म इत्युदाहृतः। - महाभारत
ऐसी सर्व मंगल धारणधर्मी आवधारणा वाले धर्म को अर्थ, काम एवं राज्यका मूल माना गया है – त्रिवर्गोsयं धर्ममूलं नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलंवदन्ति (महाभारत वनपर्व 414) आशय यह कि जो अर्थ धर्मार्जित नहीं होता, अनीति अन्याय व दुष्ट साधनों से अर्जित होता है, वह अनर्थकारी होता है। गलाकाट प्रतियोगिता व लूट-खसोट को बढ़ावा देता है। आदमी को आदमी नहीं रहने देता। वह धर्म से अनुशासित न रहने पर हवस का रूप ले लेता है। अनुजा तनुजा, परजा में भेद भूल जाता है। आसुरी बन जाता है। धर्म रहित राज्यकी भी यही दशा होती है। हस्तिनापुर का राज्य उसे छोटा लगता है। जो प्राप्त भाग है उसका विकास भूलकर काश्मीर की रट लगाने लगता है। मानों काश्मीर मील जाने पर उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रहेगी। यह देश हमेशा धर्म को कमोबेश केन्द्र में रखता चला आया है। लंका जीतकर लंकावासी को और बंगलादेश बंगलावीसी को सुशासन के लिए सौंप दिये गये। यह भारतीय धर्म का मंगल भाव है जिससे हमारा जीवन, हमारे आचार-व्यवहार और हमारी राजनीति अनुशासित है। यह धर्म आध्यात्मिकता की ऊँचाई पर पहुँचकर जीवन के बहुविध अच्छे कर्मों को ही शिव की आराधना मानता है। इस शिव स्तुति का यही विशद आशय है –
आत्मात्वं गिरिजामतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहम्
पूडा ते विषयोपभोगरचना निंद्रा समाधिस्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यतयतकर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्।। - शंकराचार्य शिवमानसपूजा
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14. निर्वासन
निर्वासन और निर्वसन के बीच मात्र एक मात्रा का अंतर है, परन्तु दोनों के भीतर निहित अपमान-अवसाद की तादात में बेशुमार फर्क है। ठीक है कि जिसके असन, वसन और वास का ठीक-ठिकानान नहीं होता, उसके लिए पुण्य प्रकाशी काशी भी मगहर जैसी हो जाती है और पुण्य सलिला शीतला गंगा भी अंगारवाहिनी लगती है –
असनं वसनं वासो येषां चैवाविदानतः।
मगधेन समाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी।।
परन्तु आधा पेट खाकर, लंगोटी लकाकर, वृक्ष के नीचे रहकर भी कमोबेश सुख काअनुभव किया जा सकता है, ‘अइहहिं बहुरि बसन्त रितु’ की आशा में जीया जा सकता है। फुटपाथ को वास स्थान बनाकर जिंदगी को घसीटकर लोग जी ही रहे हैं। परन्तु निकाले जाने का दर्द बड़े-बड़े मर्दों से नहीं सहा जाता। इसकी पीड़ा भोक्ता को तो हिला ही देती है, द्रष्टा को तटस्थ नहीं रहने देती, द्रवित कर देती है। पाषाण को पिघला देती है। प्रमाण चाहिए तो पंचवटी से पूछिए, जोसीता के अकारण निर्वासन की कचोट से रो उठी थी, बज्र का हृदय फट पड़ा था। आकाश चीत्कार कर उठा था। वनदेवी थरथरा उठी थी और तभी सेराम राम नहीं, राजा राम – आत्मनिर्वासित राम – रह गए थे।
निर्वासन यातना का अक्रूर रूप है। यह निर्वासित को जल्दी से मारता नहीं, सालता है। चोट नहीं पहुँचाता, कचोटता है। यदि अच्छे कार्यके लिए, देशहित के लिए निर्वासन राजदंड के रूप में दिया जाता है तो वह ज्यादा दुःकद नहीं होता। व्यक्ति अच्छे काम के नाम पर कालापानी की सजा भी काट लेता है। तिलक ने तो कालापीन की यातना सहते-सहते गीता का भाष्य ही लिख डाला था। आज़ादी के दीवानों ने क्या-क्या नहीं सहाथा, परन्तु धरणीसम धीरा सीता भी निर्वासन के दर्द को नहीं सह पाई और धरती में समा गई, क्योंकि यह निर्वासन राजदंड से प्रेरित नहीं था। अपनों के द्वारा अपने का निर्वासन था। समूह मन का निकाला था। राजा समूह मन का मालिक कहालाता है। प्रकृति का रंजन करने वाला राजा कहलाता है। उसमें भी राम जैसे राजा ने निकाला दिया था। अनन्य ने अन्यकी तरह व्यवहार किया था। कैसे सह पाती सीता ?
यक्ष अलकापुरी से निर्वासित हुआ था, प्रिया के मन से नहीं। उसे अपनी अनवधानता का भी अहसास था,इसलिए वह आकुल हुआ था, पर आत्मघातके लिए आतुर नहीं।
देश निकाला का दर्द सहा जा सकता है, पर मन के निकाले का नहीं। थेथर लोगों की नेता किस्म के मानुष की बात और है। सौ जूते खाकर भी थेथर लत नहीं छोड़ता और ज जूते की माला पहनकर भी नेता कुर्सीनहीं छोड़ता। राम के बिना अकाम मैथिली ने मिट्टी में समा जाना ज्यादा बेहतर समझा। व्यर्थ चेतना का विलाप बनकरजीने से समा जाना अच्छा समझा गया। तिल-तिल जीवित मृत्यु को जीने से एक बार ही मरण को स्वीकार करना अच्छा समझा गया।
सीता के धरा में समा जाने के बाद क्या राम भी आराम से रह सके ? क्या वे भी आत्मनिर्वासन की पीड़ा से छटपटाते नहीं रहे ? वे ऊपर से भले ही शान्त दिखाई दे रहे थे, किन्तु भीतर से पूरी तरह अशान्त, शीतल सागर के भीतर आग चल रही थी। व्यथा कहें तो कैसे और किससे ? राजा तो ठीक से न रो सकता है न हँस सकता है।
राम की बात राम जानें। मर्यादा की सीमा राम-रहीमा के लिए सब कुछ सह्य है – संभव है (रामंतु सर्वं सहे) किन्तु आत्म निर्वासन की यंत्रणा यह यंत्र युग का मानव कैसे सहे ? इस यंत्र युग ने माल को भीतर भर दिया है और मनुष्य को बेघर कर दिया है। पति को परदेस भेज दिया है। बेटे को कारखाने का मजदूर बना दिया है। बाप-बेटे को अलग कर दिया है। जैसे-तैसे बाप-बेटे से मिलने बंबई नगरिया पहुँच भी जाता है तो बेटे को मन भर बतियाने के लिए फुर्सत नहीं। संतान झूलेघर में और भाग्यवान-भाग्यवती नौकरी पर। निर्वासन का सिलसिला एक हो तो बताया जाए, यहाँ तो सारे रिश्ते रिस रहे हैं और सरोकार सर्द हो रहै हैं। भीड़ बढ़ गई है। आदमी अकेला हो गया है। आत्मनिर्वासित आदमी आत्मगात से लेकर आतंकवाद तक कुछ भी अकर्म करने के लिए उतारू है। यह युग सच पूछें तो निर्वसन रहने से ज्यादा निर्वासन का ही दर्द भोग रहा है। अपनों से निर्वासित होकर जी रहा है। बंजारे भी साथ-साथ रहने का सुख पाते हैं। पर अघोषित बंजारे को तो वह भी प्राप्त नहीं है। भगवान बचाए इस निर्वासन से।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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13.सर्वमङगल माङगल्ये
सर्वमंगला काली कराल वंदना घोररूपा भयंकरी है, परन्तु विरोधाभास से देखिये कि वे सर्वमंगला कहलाती हैं। त्रिपुर सुंदरी व मंगल मूर्ति हैं। विचारकर देखें तो यह विरोधाभास ही है, वास्तविकता नहीं। ‘मगि’ धातु से अचल् प्रत्यय लगाकर ‘मङगल’ शब्द और ‘यत्’ तथा ‘ण्यञ्’ जोड़कर क्रमशः मङगल्य और माङगल्य शब्द निष्पन्न होता है। ‘सर्वमंगा’ विशेषण साभिप्राय है। उनके अनेक नाम-रूप हैं और सबके अभिप्राय हैं, किन्तु मांगल्य का भाव अन्तर्धारा की तरह सभी में समाहित है – तेज में प्रकाश की तरह, भगवान में भगवत्ता की तरह। ‘काली’ नाम के आशय पर ही विचार करें तो ज्ञात होगा कि शिवानी का यह नाम भी घोर रूप को प्रकट करता हुआ भी कल्याण से रहित नहीं है। प्रकृति अपने मूल स्वरूप से पृथक नहीं हो सकती। जल अपनी रसात्मकता नहीं छोड़ सकता न अग्नि अपनी उष्णता। उसी तरह काली रूप में भी शिवानी शुभ ही करती है। काली शब्द की व्युत्पत्ति है कि जो काल स्वरूप धारण कर समय के पाप-ताप-शाप दुर्वृत्त आदि को लीलती रहती है, उसे कालिका कहते हैं – कलयति लीलयति पापं दुर्वृत्तं वा सा कालिका। कलयति भक्षयति प्रलय काले सर्वम् इति काली अर्थात् काली काल बनकर दुराचार भ्रष्टाचार को लील जाती है। जग के कालकूट को महाकाल की तरह महाकाली पी जाती है और गौरी से काली बन जाती है – जैसे कपूर गौर शंकर नीलकंठ बन जाते हैं। है न मांगल्य भाव ?
मूढ़ हैं वे लोग, जो अपने को चतुर-चालाक समझकर गलत काम करते रहते हैं और सोचते हैं कि काली के कोप से वे बच जायेंगे। जग की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, जगदीश्वरी की आँखों में नहीं। वे भूल जाते हैं कि सर्वमंगला होकर भी दुर्वृत्त बरदाश्त नहीं कर पातीं। उसका शमन करना उनका शील है –
दुर्वृत्तशमनं तव देखि शीलम्।
भवानी का दूसरा नाम भद्रकाली भी है। काली शब्द के रूप में लगा भद्र विशेषण उनके सर्वमंगल शील का ही संकेत देता है। भद्र, अर्थात् जो भक्तों के लिए मंगल स्वीकार और प्रदान करे उसे भद्रकाली कहते हैं – भद्रं मङगलं सुखं वा कलयति स्वीकरोति भक्तेभ्यो दातुम इति भद्रकाली सुखप्रदा। भद्रकाली की असुर संहार लीला के रहस्य में भी सोचकर देखें, तो सर्वमांगल्य निहित है। संहार के पिछे सृजन का भाव भावित है। भला सोचिये की जगन्माता विश्वमूर्ति भवानी कुमाता कैसे हो सकती है ? अकारण अपने ही पुत्र असुरों का संहार क्यों करेगी ? किन्तु अपना ही पुत्र यदि कुपुत्र बन जाता है, राज-समाज का शत्रु बन जाता है तो क्या माता-पिता उसका शमन नहीं करते ? असुरों का शमन और सुरों का पोषण किसी प्रकार के पक्षपात का परिचायक नहीं है, अपितु आसुर व सुरभाव का शमन-पोषण है। जग-मंगल का विधान है। सृष्टि सुव्यवस्था है। लोकहित की रक्षा है। मूल्य-मर्यादाओं की अभिरक्षा है। शास्त्र का स्पष्ट मत है कि लोक कल्याण की दृष्टि से किया गया कार्य सुकर्म है। हत्या भी पाप नहीं धर्म है। हत्या पाप है, किन्तु वध नहीं। राम ने रावण का और कृष्ण ने कंस का वध किया था, हत्या नहीं। रावण वध के पीछे सीता मात्र निमित्त कारण थी। मुख्य कारण तो रावण का स्वयं का दुष्कृत्य था जो लोकहित को बाधित और लोक कोप को संवद्धित कर रहा था। राम का कोप उसी लोक-कोप की अभिव्यक्ति था, जिसका शिकार रावण को बनना पड़ा। भागवतकार की यह गोविन्द वंदना इसी वास्तविकता की समृति है –
लोक शोकापहाराय रावणं लोकराणः। रामो भूत्वावधीत् यस्तं गोविव्दं विन्दतां मनः।।
जन्म से ही रावण लोक को रुलाता रहा। भाइयों तक को नहीं छोड़ा। व्यासदेव का तो स्पष्ट मत है कि प्रभु मनुष्य देह धारण ही करते हैं मनुष्य को शिक्षा देने केलिए। राक्षस वध उनका एकमात्र लक्ष्य नहीं होता। आत्माराम राम के द्वारा किया गयारावण वध सीता निमित्त नहीं था, लोक हित और लोक शिक्षा से प्रेरित था –
मर्त्यावतारिस्त्विह मर्त्यशिक्षणं, रक्षोवधायैव न केवलं विभोः।
कुतोsन्यथास्यादरमतः स्व आत्मनः,सीता कृतानि व्यसनानीश्वरस्य।। - भाग. 5-19-5
तथ्यहै कि समस्त अवतार लोक उपासना की अभिव्यक्ति हैं। यह स्वार्थी मर्त्यलोग अपने अवतारों की उपासना या उनके प्रति निष्ठा का प्रकटीकरण सेंतमेंत में नहीं करता। न जाने अपने हित के लिए लोकेश को किस-किस जहालत में डालता रहता है। कृष्ण को ही लीजिए। क्या वे कबी भी सुख से दोरोटी का सके ? जिस गोपाल ने अपने बालपन में ही लोगों को त्राण दिलाने के लिए कष्ट उठाया उसी कृष्ण कोजरासंध की इस मांग पर कि मथुरा के लोग मुझे कृष्ण-बलराम को सौंप दें हत्या के लिए। मैं शेषलोगों को मुक्त कर दूँगा। युद्ध नहीं करूँगा। अन्यथा सबको जलाकर राख कर दूँगा। लोगों ने अपना स्वार्थ देखा और कृष्ण-बलराम को क्रूर जरासंध के हाथों सौंपने का निश्चय कर लिया। यह सोचकर कि इन दोनों के मरने से हम सब बच जाते हैं, तो बुरा क्या है ? ऐसा होता है लोक ?
भागवती की असुर संहार लीला के पीछे भी लोक उपासना का भाव है। वे राक्षसों को मारती नहीं, संहार करती हैं। उनके दुष्कर्मों के विस्तार समेटती हैं। रोकती हैं – अनवरुद्ध लोक यात्रा के लिए। सभी के उपकार के लिए सदा दयालु बनी रहने वाली (सर्वोबकार करणाय सदाssर्द्रचित्ता) शिवानी दानवों को मारकर जग.का कल्याण ही तो करती हैं। अपने में मिलाकर योगियों के लिए भी दुर्लभ सायुज्य मुक्त दुष्टतम राक्षसों को भी प्रदान करती है –
एबीर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते, कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु, मत्वेति नूनमहितान विनिहंसि देवि।।
- दुर्गासप्तशती 4-18
शक्ति का दुर्गा, काली, गौरी आदि रूपों में प्रकटीकरण देव शक्तियों का सामूहिक अवतरण है – समूह मंगल के लिए देव, दानव व मानव सभी उनके उपकार से उपकृत होते हैं। सभी उनके स्मरण से कृकत्य होते हैं। असुरगण तो खासकर शिव और शक्ति की उपासना करते हैं। विश्व जननी सर्वे भवन्तु सुखिनः की प्रतिमूर्ति हैं। कोई सच्चे मन से उनका स्मरण करके तो देखे –
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र दुख भयहारिणी का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाssर्द्रचित्ता।। - दुर्गा सप्तशती 4-17
जाहिर है किदेव शक्तियों के पूँजीभूत रूप मंगला भगवती शुभ शक्तियों का समवाय हैं। शुभंकरी हैं। उनके नाम और रूपों की जितनी व्याख्या की जाये कम है। उनके वाहन सिंह, अस्त्र-शस्त्र और उनकी लीलाओं – सब का आशय एक ही है – सर्व मंगल। शक्ति-साधना जरूरी है शुभ-सुख की स्तापना के लिए। दुर्बल को सभी सताते हैं। आसुरी शक्ति लाख मनाने-चेताने पर भी नहीं मानती। सीधी नहीं रह सकती – कुत्ते की दुम की तरह। सत्ता सिंह की तरह होती है जिस पर नियंत्रण रखने तथा उसेशुभ कार्य में लगाये रखने के लिए देवी उस पर सवार रहा करती हैं। साधना भी जब गलतउद्देश्य से प्रेरित होती है तो श्रेय-प्रेय के बजाय ध्वंस ही सिरजती है – दक्ष यज्ञ की तरह। मातृशक्ति ज्यादा ममतामयी धैर्यवती और उदार होती है। वह कुपुत्र को भी स्नेह देने में कोताही न हीं बरतती, किन्तु शरीर का ही कोई अंग जब सड़ जाता है, उसेक विष से सारे शरीर का खतरा बढ़ा जाता है तब उसे काटकर फेंक देने में ही क्षेम निहित होता है। ठीक इसी तरह जब कोई दानव या मानव समाज के लिए खतरा बन जाता है तब उसका अपसरण या नाश अपेक्षितहो जाता है। संहार लीला का यही रहस्य है। रहस्य यह भी है कि आदमी शिक्षा ले। आदमी आदमी बना रहे। ब्राह्मी सृष्टि का वह सर्वोत्तम जीव बन के रहे। आध्यात्म और भोतिकतामें तालमेल रहे। दुर्का दुर्गति दूर करने और योग-क्षेम वहन करने के लिए मानवताके आह्वान पर अवतरित होती हैं। सबका मंगल नारायणी का अभिप्रेत होता है।
सर्वमङगल माङगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबकेगौरि नारायणी नमोsस्तुते।।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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12. भोग और शक्ति
साधारण तौर पर पानी और जल में, भोग और भोजन में, भोज और भोजन में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। केवल शब्दों का हेर-फेर लगता है। मूड़ का नाम कपार जैसा लगताहै,पर बारीक विचार करने पर इनमें बहुत फर्क है। नाली का पानी जल नहीं कहला सकता, गंगा का जल पानी नहीं कहला सकता। कहना हो तो कह लीजिए पर तर्कसंगत नहीं लगता। भोज और भोजन में वही दूरी है जो राजा भोज और भोजबा तेली में है। भोज भोग के ज्यादा समीप है। जो रस, जो आस्वाद, जो सौजन्य और जो आह्लाद भोज में है वह भोजन में कहाँ ? खाना ता भूख की खानापूर्ति है और लंच पेट के प्रपंच की पूर्ति। भोज के नाम से भोज्य पदार्थ का जायका कुछ और ही हो जाता है। उसका नाम सुनते ही कई मीठे प्रसंग और संदर्भ ढेर सारे अनुषंगों के साथ मन में तैरने लगते हैं। साथ में मिल-बैठकर बाँटकर भोगने के भाव भी भोजन में शामिल हैं। एक ही प्रकार के भोजन आप होटल में कीजिए। गृहिणी की प्रीति की छौंक से सिक्त वही घर में कीजिए और वहीं सबके साथ एक प्रांत में बैठकर बोज में कीजिए, तृप्ति में भारी अंतर मालूम पड़ेगा। यही हाल भोग का है। भोज में कई प्रसंगों की साझेदारी होती है, तो भोग में भाव की। यह भाव भगवदीय भी हो सकता है और मानवीय भई। भाव के योगायोग से साधारण भोज्य पदार्थ भी भोग बन जाता है – नैवेद्य बन जाता है – भगवान का प्रसाद बन जाता है। बहुत दिन पहले की बात याद आ रही है – मेरे घर पिताजी के मामाश्री आये हुए थे। मेरे दादाजी ने बड़े प्रेम से शकरकंद को कंडे में पकाकर उसमें दूध-चीनी मिलाकर मामाश्री को देना चाहा। उन्होंने बिना चखे कहा की रहने दीजिए, ऐसा तो मैं रोज खाता हूँ। किन्तु दादाजी ने कहा इसे जरा चखकर तो देखिए। यह खाना नहीं भोग है, प्रसाद है, इसका स्वाद ही और है। प्रसन्न हो जायेंगे। चखने के बाद वे और मांगने लगे।
दरअसल भाव का भोग लगता है। सूखी रोटी भी मेहमान को या भगवान को आदर भाव से निवेदित कीजिए वह नैवेद्य बन जायेगी और इसके विपरीत रसगुल्ले भी बिना भाव के परोसे जाने पर भूसा बन जाते हैं, क्योंकि सांवरा भाव का भूखा होता है। जूठा बेर भी प्रेम से खिलाया जाये तो वह रुचि से खाता है। बिदूर का साग भी बड़े चाव से खाता है और दुर्योधन के छप्पन भोग को भी छोड़ देते हैं। जिस छप्पन में छल छिपा हो, अहंकार मिला हो, जिमाने का भाव नहीं, निवेदन नहीं, उसे भगवान तो भगवान इंसान भी ग्रहण नहीं करता। यदि वह उसे खाता भी तो उसमें वह रस नहीं पाता, उसे व्यवहारवश निगलता है। इसीलिए भगवान को कोई चीज भोग लगाते समय भक्त बड़े भाव से निवेदन करतेहुए कहता है कि हे गोविन्द यह आपकी वस्तु आपको अर्पित है। आप उसे प्रसन्न मन से ग्रहण करें।
त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये। ग्रहण सुमुखी भूत्वा प्रसीद परमेश्वर।।
इस भाव से जब व्यक्ति खाली हो जाता है तब वह मालामाल रहते हुए भी कंगाल नजर आता है। पूरे देश को भी चाट लेने के पश्चात भी वह अतृप्त रहता है। और की तलाश में कई तरह के घोटाले हवाले में संलग्न रहता है। इस अतिरिक्त संलग्नता और हवस में पड़कर वह मनुष्यता से वंचित तो हो ही जाता है, प्राप्त सुखभोग से वंचित रहा करता है। हब्शी और वहशी को सुख कहाँ ? उसकी तो “डासत ही भाव निशा सिरा जाती है।“ जोड़ता कोई और है और भोगता कोई और है। यह आँखों देखी बात है, कानों सुनी नहीं। हमारे गाँ में एक महाजनी सभ्यता के ठेकेदार थे। नाम था सत्यदेव। नाम के विपरीत उनका आचरण था। चालीस साल पहले बहुत ब्राह्मण बंधुओं के लिए भी काला अक्षर भैंस बराबर हुआ करता था और अन्यों के लिए ओनामासी ढम, बाप पढ़े न हम जैसी स्थिति थी। इस स्थिति का फायदा उठाकर और ईमान-धरम से आँखें बचाकर वे काला-पीला किया करते थे। ऋण देते वक्त दो तीन और लेते वक्त तीन का दो बहीखाते में लिख दिया करते और ऋणी से अंगूठा लगवा लिया करते थे। पाप का धन प्रायः बहुत जल्दी बढ़ता है और उसी मान से घटता भी है। देखते-देखते सत्यदेव पहले तो शक्कर और उच्च रक्तचाप के शिकार हुए। भोग उठ गया। दो सूखी रोटी भी ठीक से खा नहीं पाते थे। जिसके पास भरपेट भोजन की व्यवस्था नहीं होती उससे ज्यादा दुःखी वह होता है जिसके पास भोगने के सारे पदार्थ प्रस्तुत होते हैं, परन्तु बीमारी के कारण वह उन्हें देखता भर है, भोग नहीं पाता।
सकल पदारथ जगमाहीं। करमहीन नर पावत नाही।
सत्यदेव के बेटे विलासी बन गए और देखते-देखते ही उनके खाने के लाले पड़ गए। पर मानता कौन है ? इतिहास पुराण के पन्ने दृष्टान्तों से भरे पड़े हैं। रोज-बरोज पास-पड़ोस में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, पर आदमी मानता नहीं है, चेतता नहीं है, आगे-पीछे देखता नहीं है। नहीं तो ऐसा दिन क्यों देखना पड़ता कि जिनके इशारे से पत्ते हिलते थे आज वे पत्तों की तरह काँपते हैं। जिन मंत्रियों का स्वागत आँखें बिछाये होता था, आज उनके स्वागत में बंदी गृह सज रहेहैं। लानत है अमानत में खयानत करने वाले लोगों के भोग को।
भोग काशी शास्त्र होता है। कोई बहुत भूखा होने पर भी दोनों हाथ से खाने लगता है। दोनों हाथ से बटोरा जा सकता है। खाया नहीं जा सकता। ऐसा न भोगें कि हाजमा खराब हो जाए। अजीर्ण भोजन विष बन जाता है। मित भोजन मीत होता अमित मित्र। ऐसा ही भग रोग बन जाता है। भोग सुख भी होते हैं और दुःख भी। और किये का फल यहाँ या वहाँ भुगतना ही पड़ता है। क्रिया कभी निष्फल नहीं होती। यही कारण है गीता निष्काम कर्म करने के लिए प्रेरणा देती है। क्रिया के सारे फलों को कर्म-धर्म को समर्पित कर देने की सलाह देती है,ताकि अच्छे-बुरे फलों को सुख-दुख को समभाव से भोगा जा सके।
दरअसल समर्पण का भाव कर्तव्य के अहंकार का त्याग है, निमित्त भाव का स्वीकार है। यह फालतू किस्म का दैन्य नहीं, न ही हारी हुई सेना का शस्त्र समर्पण है। हारे हुए का हरिनाम तो रहारा होता ही है, दुख में तो सब सुमिरन करते ही हैं, किन्तु यह सुख में सुमिरन की मानसिकता है। असीम के प्रति ससीम का श्रद्धा अर्पण है। कृपालु के प्रति कृतज्ञता का बोध है। इन्हीं भावों के साथ भगवान को पत्र-पुष्प जो भी अर्पित आस्वाद्य बन जाते हैं, अमृत बन जाते हैं। अमृत भी तो एक अलौकिक अनुभूति ही है। मीठा अहसास है, आनन्द की चरम उपलब्धि है। फिर असली अमृत को देखा किसने है और पिया किसने है ? वस्तुतः भोजन चाहे लाख स्वादिष्ट हो, यदि भक्तिपूर्वक निवेदित नहीं होता तो वह भोग नहीं बन सकता और भक्ति रहित भोग रोग है। और ऐसा भोग आदमी को बी भोग लेता है, भले ही आदमी इस मुगालते में हो कि वह उसे भोग रहा है। मद्यपायी सोच रहा हो कि मैं मद्य पी रहा हूँ। शंकराचार्य जैसे ज्ञानी ज्ञान की सीमा जानते हैं। अतः वे भोग रोग से बचने के लिए गोविंद भजन की सीख देते हैं –
“भोग न भक्ता वयमेव भुक्ताः
कालो न यातः वयमेव यातः
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्
गोविन्द भज मूढ़मते।।”
तुलसी के राम भी शबरी से कहते हैं कि हे भामिनी बिना भक्ति के कुल, जाति, बड़ाई, मान-सम्मान आदि जल विहीन बादल की तरह शोभित नहीं होते।
“जाति-पांति कुल धर्म बडा़ई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगतिहीन न साहई कैसा। बिनुजल बादि देखिन जैसा।”
वस्तुतः भक्तिहीनता श्रद्धआ-विश्वास का चुक जाना है। “ईश्वर मर गया” यह घोषणा करने वाला आस्थाविहीन यह युग क्या जाने कि देवता मनुष्य के लिए और मनुष्य देवुता के लिए कितना जरूरी है ? भक्ति को पूजापाठ क्रियाकाण्ड का पर्याय मानने वाले मानुष क्या जाने कि धर्म और सम्प्रदाय से भक्ति करती है, सबको सबका भाग देती है, भक्ति नहीं करती जोड़ती है। वह बाँटती है तो केवल आनन्द को, प्रेम को, उछाह को, प्रसन्नता को, वह अर्पितकर बाँटकर भोगने के लिए सूत्र देती है। उसी सूत्र की व्याक्या कदाचित मार्क्सवाद है। गीता का स्पष्ट कथन है कि जो व्यक्ति केवल अपने लिए पकाता है, बाँटकर नहीं बोगता, वह भोग नहीं पाप भोजन है – भुज्यते ते अद्यंपापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। भक्ति का दर्शन सहभाग का दर्शन है। इसमें भक्त, जगत और जगतपति सभी सहभाग होते हैं। एक दूसरे को भावित करते हैं एक दूसरे को श्रेय-प्रेय बाँटकर जीवन को अर्थ प्रदान करते हैं –
देवान्भावयतानेन ते देवा भायुन्तु वः।
परसांर भवयन्तः श्रेयःऋ परमावश्यथ।।
इवटान्भागान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
नैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो छु भुङ क्ते स्तेन एव सः।। 31.11.92
भक्ति और भजन भी भोग भोजन की तरह चिंतनीय है। भजन यद्दपि भकि्त का ही स्वरुप है, परन्तु दोनों के बीच बारीक लकीर खींची जा सकती है। दोनों मे साध्य-साधन संबंध स्थिर किया जा सकता है। राम को पाने के लगए सुमिरन आवश्यक है। एक भजन साधन है। भक्ति की विद्दा है। एक भाव है तो दूसरी रस है भजन-भाव है तो भक्ति अहोभाव है इसी अहोभाव के सामने सुधा र भी तुच्छ लगने लगता है सुखदेव जी गवाह है कि राजा परिक्षित को जब वे भगवान कथा सुनाने को प्रस्तुत हुए तभी देवता लोग स्वर्ग लोक से अमृत घर लेकर पहुँच गए। और सौदा करते हुए बोले मुनिवर आप राजा परिक्षित को बनाने के लिए यह अमृत घर ले लिजिये और बदले मे हमें कथामृत का दान दीजिए। दावो पर हंसते हुए मुनि बोले काघ और कंचन में अदला-बदली कैसी? कहाँ यह अमृत और कहाँ यह भगवदीय कथमृत।
इस मकारा के पीछे निश्चय ही यह धारणा रही होगी कि अमृत तो खारे सागर से उत्पन्न रस है इसमें खारा पन का कुछ रस तो बचा ही होगा। दूसरी बात यह छीना-झुटी से बचा अमृत है। राक्षसों को वंचित कर संचित ईष्या-वेष समन्वित इस अमृत मे वह स्वाद-प्रभाव कहां जो वेद-पुराण से उदभूत भगवतकथामृत मे है। यह भक्ति रस पूरित कथा मनुष्य को ईष्या द्वेष से उपर उठाती है किसी को वंचित नही करती और न कुछ संचित करती है। यह तो सबको प्रेमसुधा रस बांटती ही रहती है। अमृत गले से नीचे उतर कर चूक जाती है, प्रभावहीन हो जाता है, स्वाद रहित हो जाता है, कथारस भीतर उतरकर तर कर देता है। देह-गेह बिसारकर भक्त सांई का सुमिरण करता कराता रहता है।
सब रग तमत रबाब तन बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुन सके, कै साईं के चत्त।।
कई मायने मे कथामृत अपनी श्रेष्ठता का इजहार करता है। इसमे मन को बांधने की ताकत होती है। रमाने की औकात होती है। झरने की तरह प्यास बुझाने की सामर्थ्य होती है। बादल की तरह भिगोने की सहज परोपकारी होती है। यह एक साथ कई इन्द्रियों को बाँधती है। ऐसे गुण उद्द्दि अदभूत् अमृत मे कहाँ? उसे तो एक बार पी कर आदमी निश्चिंत हो जाता है। अमरत्व के अंहकार से भर जाता है। इतना ही नही कथीमृत कई रसो का रसायन होता है। इसमें हृदय दहलाने-सहलाने और दुबोने-उबारने एख से बढ़कर एक प्रसंग होते है, लीलाचरण के अध्याय होते है जो कई तरह से विभोर करते है। यह खूबी अमृत मे कहाँ। वह घर रीत सकता है पर कथा सागर तो अथाह है। कथा के कारण ही सूर के गीत से ज्यादा तुलसी के दोहे-चौपाई जन-जने को समोते है। दूर तक खींचते है। सूर के गीत भी लीला संदर्भो के कारण कदाचित अन्यों की अपेक्षा ज्यादा रमाते है।
दरअसल भगवदीय कथा की बात ही कुछ और है। यही कथा कथा है, बाकी सब व्यथा है, क्योकिं यह भक्ति रस से सिक्त होती है और भक्ति श्रद्ददा विश्वास और प्रेम के भाव संमिश्रित होते है जो व्यक्ति को मम ममेतर से मुक्त करते है मुक्तदशा में न कोई चाह शेष रह जाती है और न चलने के लिए राह। संदेह मिट जाते है, तर्क गल जाते है। ज्ञान का जाल मिट जाता है। जिस मुक्ति के लिए मुनिगण जन्म-जन्म जतन करते रह जाते है, पंडित वृंद पोथी पढ-पढ कर थक जाते है, ुस परम को बिना किसी विशेष यम नियम और धरम-करम के भक्त पा लेता है। प्रभु को अपने भीतर पधरा लेता है-सारे संतो का एक ही मत है
पायो जिन राम, तिन प्रेम ही सो पायौ है।
नृगां जन्मसहस्त्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिर्भक्त्या कृष्ण पुरः स्थिर्तिः भागवत 1-2-19
अर्जुन भगवान के अत्यन्त प्रिय पात्र थे अपने सखा के श्रेय के लिए गुहृय गीता ज्ञान का आख्यान उन्होनें किया। उन्हें ज्ञान योग और कर्म योग के अनेक बुझौवल बुझा लेने के बाद, फेंट-फेंटकर गुह्यादगुह्यतर ज्ञान दे लेने के बाद श्री कृष्ण ने अपने दिव्य रुप की झाँकी दिखाई। इस झाँकी से संभवतः अर्जुन का मन और चकरा गया। गीता के 18 अध्याय के 6 सौ 86 श्लोक भी चक्कर दूर नही कर सके तो श्री कृष्ण ने सौ बातो के लिए एक ही बात कही- प्रिय अर्जुन तू अपने मन को मुझमे रमा दे, मेरा भक्त बन जा, मेरी पूजाकर, मुझे प्रणामकर मुझमे समा जायगा, समझ जाएगा।
मन्मना भव मदभक्तो मव्याजी मां नमरकुरू।।
मामेवैष्सि सत्यं ते प्रति जाने प्रियोश्सि में।। 18 1165
वस्तुतः सोचकर देवों तों ज्ञान की कोई सीमा नही है शब्द शास्त्र अनन्त है। अनेक वेद-पुराण है, बाईबिल-कुराण है शास्त्र स्मृति है, अनेक ऋषि-मुनि और महापुरुष के वचन- प्रवचन है। किसको माने किसे नही, यह पचड़े का विषय है इसलिए इस प्रषंच से निजात पाने के संत पते की बात कानों मे कहते है।
भगति भजन हरिनाम है, दूजा दुख अपार ।।
मनसा बावा कर्मना कबीर सुमिरन सारे।।
सच मे सुमिरन सार है सुबदन को सार समझने वालों कोयह बात सारहीन लग सकती है परन्तु अद्वैत वेदान्त के चूड़ान्त ज्ञानी आचार्य़ शंकर भी अन्त मे सुमिरन के लिए आदेशात्मक राय देते हैं।
भज गोविन्दम् भजगाविन्द भज, मुढमते। क्योकि वे जानते है भजन भक्ति के सारे भाव समा जाते हैं। सारे ज्ञान-विज्ञान क्रिया अनुष्ठान तिरोहित हो जाते है, निराकार आकार पा जाता है निंरजन लीम्बुज श्यामल बनकर नयन मे रच जाता है। वह ऐसा अनुरुब रुप पा जाता है कि देखने वाले ठगा-सा रह जाता, जीने मरने लगता है जीयतमरत झूकिं झूकिं परत जेहि वितवत एकबार, तन यमुना तट हो जाता है और मन वृंदावन। लोक लाज छोड़कर कुल कानि को ताक पर रखकर गापियां इन्द्रियाँ रास मे रम जाती है। मीरा लागी लगन मे मगन हो जाती है चित्र द्रवित हो उठता है, विभोर हो जाता है और पोर-पोर महारास में सराबोर होने लगता है और भुवन धन्य हो उठता है।
ताग, गदगदा, द्रवते यस्य चिद्तं रुदत्यभिक्ष्णं हसति क्वच्चिद
विलन्ज उदगायेति नृत्यते च मद् भक्तितयुक्तः भुवनं पुनाति, भागवत 11/14/24
सोचकर देखें तो पता नही चलेगा कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह पूरी तरह व्यक्ति आश्वस्त भी नहीं कर पाता जबकि भक्ति के आते ही आशवस्ति मिल जाती है। यह जीवन का बीमा है। पोषण है। अनुग्रह है। लोकसंग्रह है। भक्ति का ना कोई शास्त्र है और तर्क जाल है। नारद मुनि ने भी भक्ति के शास्त्र नही सूत्र दिये हैं, जिन सूत्र को गहकर व्यक्ति आसानी से अंधकार को पार कर सकता है। भक्ति तो गीत है, दीवानगी है, अश्रु है, अनुराग है, जीवनोत्सव है, इसलिए दुनियादारी एक किनारे करके मीरा गाती है, नाचती है और गिरिधर के रंग में रंग जाती है। सूर सूरसागर में ऊभचूम करने लगते है। तुलसी की भक्ति का मन जब “मानस नहीं” भरता तो वह कवितावाली-दोहावली गाने लगता है भक्ति में निहित इसी मस्ती को छानने के लिए भक्त गण राज पाट धन-दौलत यहां तक कि मुक्ति भी नकार कर भक्ति की मांग करते है। हनुमान जी की यह दशा है कि जहाँ रघुनाथ की गाथा गाई जाती है वहाँ वे अश्रु छलकाते उपस्थित रहते हैं। भक्तिस्वरुपा माता सीता ने भी हनुमान जी को वरदान देते हुए कहा था कि “तुम पर रघुनाथ जी नेह की वर्षा करते है”।
भक्ति लगी की वस्तु है। लगी नहीं कि समझिये ज़िंदगी तर गी, विहाल हो गई। सारी भाव बाधा दूर हो गई इसमें राधा माधव हो जाती है और माधव राधा। भक्त ज्ञान का पहाड़ा भूलकर प्रेम का पाठ पढ़ने लगता है और वह पोथी नहीं ढाई आघर पढ़ता है और सब कुछ पा जाता है।
“हहिहिं साध्यते भक्त्या प्रणामं तत्र गोपिका”
की पहली शर्त ज़रूर है, किन्तु रिरियाहट उसकी नियति नहीं। वह रिरियाती नहीं, वह पुकारती है। यही प्रकार भजन-कीर्ति और अजान होती है जो आराध्य को चाहे वह जिस किसी बाल में हो खींच लाती है। द्रौपती ने पुकारा, कृष्ण चीर बन गए। गज ने पुकार, गंडक तीर पहुँच गए। मीरा ने पुकारा उसके एक तारा बन गए। जब सूर से बाँह छुड़ाकर भागने लगे तो सूरदास रिरियाये नहीं। अपितु ललकारते हुए कहा –
“बाँ छुड़ाये जात हौ अबल जानि के महि।
हृदय से चले जाव तो मर्द बखानौ तोहीं।।”
भक्त के आत्मनिवेदन और विनय में रिरियाहट नहीं होती आत्मविश्वास, श्रद्धा और अनुराग होते हैं। उसी अनुरागवश वासुदेव हो जाते हैं। कभी उखलन में बँध जाते हैं। कभी गाय नचाने लगते हैं। चराने लगते हैं तो कभी माखन चोरी के लिए पकड़े जाते हैं। धन्य है भक्त और वृंदावन जो भगवान सहित भक्ति को भी नचाते हैं –
“वृंदावनस्य संयोगत्युनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्ति यत्र च्।।” – 1-1-96
यही कारण है कि भगवान अपना अपमान सह सकते हैं किन्तु भक्तों का नहीं अपना वचन छोड़ सकते हैं, किन्तु भक्त को दिए हुए वचन को हर हाल में निभाते हैं। वे बैकुण्ठ को छोड़ सकते हैं परन्तु भक्त के हृदय निवास नहीं।
“नाहं वसामि बैकुण्ठे, योगिनां हृदयेषु च मत भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।”
ज्ञान और वैराग्य भक्ति के आत्मज हैं। भक्ति के आते ही व्यक्ति को संसार का वास्तविक ज्ञान असली तात्पर्य भासित हो जाता है। यह ज्ञान तर्क-वितर्क, वाद-वितंडा से कम और श्रद्धा-विश्वास से अधिक जुड़ा होता है। मतवाद नहीं, संवाद होता है। विराग के भीतर भी परमात्मा का – इन दोनों से भक्ति पुष्ट होती है। ह भी ध्यान रहे कि भक्ति तर्क को एकदम से नहीं अस्वीकारती। अंध श्रद्धा, अन्ध विश्वास, सकाम प्रेम भक्ति के स्वरूप में शामिल नहीं। भव को बंधन समझकर रस्सी तोड़ाकर पर्वत पर भाग जाना, धुनी रमाना, माया के भय से भाग खड़े होना, ये भक्ति के भाव नहीं हैं। वह जीवन को इंच-इंच स्वीकारती है, जीती है – उत्साह से जीती है, कण-कण में सीयाराम के दर्शन करती है। प्रणाम करती है और उदास निराश चेहरे पर मुस्कान बिखेरती है। वह ज्ञान की तरह स्थितप्रज्ञ नहीं रहती। वह हर रंग को , हर मौसम को अहोभाव के साथ स्वीकारती है और शरद की ज्योत्सना और वृंदावन जैसी जगह, अनुकूल काल स्थान पाकर नाचने लगती है। सुख-दुख को ईश्वर की ही देन समझकर भोगभाव से स्वीकारती है। वह भागती है आडम्बर से, चाहे वह अनुष्ठान का आडम्बर क्यों न हो। वह परहेज करती है, पुरोहिताई से, क्योंकि भक्ति भगवान से सीधा-सीधा साक्षात्कार चाहती है। सम्पर्क चाहती है, संवाद चाहती है। वह किसी को बीच में लाना पसंद नहीं करती। पुरोहित बिचौलिया होता है। क्रियाकांड में भरमाता है। राम में सीधे रमने के लिए अवसर नहीं देता। द्रावीड़ प्राणायाम कराता है। “हरितालिका में जो नारी व्रत नहीं करती वह अमुक दोष से ग्रस्त हो जाती है।जो लोग नरक निवारण चतुर्दशी नहीं करते वे कुंभीपाक नरक में जाते हैं।” परन्तु भक्ति तो सीधे-सीधे कहती है जो हरि को भजता है वह हरि का हो जाता है। वह कभी नहीं पछताता।
भक्ति मिथ्याचार और चमत्कार से भयभीत रहती है। चमत्कारी स्वामियों से कोसों दूर रहती है। चमत्कार के चक्कर में स्वामी पड़ सकते हैं परंतु गोस्वामी नहीं। गोपियाँ कभी कृष्ण के चमत्कारों से अभिभूत नहीं हुईं। वे तो उसके वंशी वादन से, नर्तन से विबोर होती थीं, रास से रसमय होती थीं, उसकी सहजता पर रीझती और कुटिलता पर खीझती थीं। भगवान का भी यही हाल था, तभी तो आज भी हंसुला की सदा कगरी को कंजन की छैंया को मटकी के माखन को नहीं भूल पाये। राम हनुमान के अदभुत करतब के ऋणी नहीं बनते अपितु उनके निरभिमान भक्ति व्यवहार के ऋणी हो जाते हैं। उनके सहज स्नेह पर वे बेमोल बिक जाते हैं। जब राम हनुमान से कहते हैं कि मैं तेरा प्रतिउपकार नहीं कर सकता, तेरे ऋण का चुकारा नहीं कर सकता, तब हनुमान जी प्रशंसा की इस बड़ी आँधी में भी आन्दोलित नहीं होते और कहते हैं “प्रभु यह सब आपकी कृपा का प्रताप है, वरना इस डाली से उस डाली कूद करने वाले बंदर की औकात ही क्या है ?” इतना नहीं वै प्रभु प्रशंसा से अकुला जाते हैं। बोझ सम्हाल नहीं पाते और श्रीराम के चरण पर प्रेमाकुल होकर गिर पड़ते हैं –
“सुनि प्रभु वचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुमत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।” – सुंदर कांड 32
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
posted by जयप्रकाश मानस @ 11:43 AM 0 comments
11. अपवित्रो पवित्रो वा
बहुत छुटपन से इस मंत्र को सुनते और इससे जुड़े पूजन-विधान को सुनते-देखते आ रहे थे –
ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
यः स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।
पिताजी नित्य पूजन प्रारंभ करने से पूर्व इस मंत्र को पढ़कर ‘विष्णु र्विष्णुर्हरि हरिः’ कहते व जल छिड़कते हुए देह, पूजन द्रव्य एवं भू शुद्धिः करते थे। आज स्वयं नित्य-पूजन अनुष्ठान करने के पूर्व उक्त श्लोक का उच्चारण करता हूँ – टेप की तरह औरशुद्धता का कर्मकाण्ड पूर्ण कर लेता हूँ – सोचविहीन क्रिया की तरह। इस क्रिया के द्वारा बाहर भीतर से कितना पवित्र हो पाता हूँ, वह तो हरि जाने, परन्तु अब जबकि सोचने की उम्र को जी रहा हूँ तब कभी-कभार बाबा तुलसी से बतियाते और भागवत के आंगन में रमते हुए लगता है कि सच में हरि का स्मरण पूजन पूर्व विधान ही नीहं, विश्वास भी है। भाव-कुभाव से सोच-असोच से जैसे तैसे प्रभु का स्मरण आत्म अभिषेक है। मल धुले वा न धुले, मंगल का आमंत्रण है –
हरिर्हरति पापानी दुष्टचित्तैपरि स्मृतः। अनिच्छा्याsपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः।
अज्ञानादथवा ज्ञानादुक्तमश्लोकानाम् यत्। सङकीर्तनमघं पुंसो दहेदेधोयथानलः।।
यथागदं वीर्यतममुयुक्तं यहच्छ्या। आजानतोsप्यात्मगुणं कुर्यान्मन्त्रोsप्युदाहृतः।।
- भाग 6-2-18-19
तात्पर्य स्पष्ट है। हरि का गुणानुवाद इच्छा या अनिच्छा के साथ किया जाये, वह मन के मैल को जला डालता है – जैसे आग ईंधन को। जाने अनजाने अमृत पीने पर अमरत्व तो मिलता ही है। मंत्र चाहे जाने-अनजाने में उच्चरित हो, वह निष्फल नहीं होता। राम-कृष्ण नाम तो महामंत्र है।
अतिरिक्त श्रद्धावश विशाल बुद्धि व्यासदेव ने यह बात नहीं कही है। महाभारत जैसे महानग्रंथ लिखकर जब वे आत्माराम न हो सके, अकृतार्थता उन्हें सालती रही तब वे नारद के सदपरामर्श से हरि स्मरण के ग्रंथ भागवत-रचना में रमे और कृतार्थता की प्राप्ति हुई। महाभारत की मार-काट, कुटिलता, द्वेष-दंभ, छल-कपट ने तो उनकी शांति चौपट कर दी थी। गुहा निवासी धर्म की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते वे स्वयं अशान्त से रहे। शांति, संतोष, आनन्द, कृतकृत्यता तो उन्हें भक्ति काव्य श्रीमदभागवत से मिले। अतः भागवत व्यासदेव के अनुभूत का आख्यान है, अतिरिक्त श्रद्धा या भक्ति का भावावेश नहीं। आप भी आजमा सकते हैं।
पवित्रता का एकमात्र स्नान है। मलापकर्षण का नाम स्नान है। मल चाहे देह का हो या मन का, वह स्नान से ही धुलता है। मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, वारुण स्नान और मानस स्नान –
मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च।
वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात्।।
आपो हि षष्ठादिभिर्मान्त्रं मृदालम्भस्तु पार्थिवम्।
आग्नेयं भस्मना स्नानं वायव्यं गोरजं स्मृतम्।।
यत्तु सातपवर्षेण स्नानं तद् द्व्यमुच्यते।
अवगाहो वारुणं स्यात मानसं ह्यात्मचिन्तनम्।।
‘ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा’ यह मानस स्नान है। आभ्यन्तर का अभिषेक है। हरि स्मरण का आग्रह है। आत्म चिंतन है। यही वास्तविक स्नान है। देह शुद्धि जन्म से हो जाती है, परन्तु आत्म-शुद्धि के लिए मानस चिंतन अनिवार्य है। माया की नगरी में चाहे जैसे भी सयाने आयें, बेदाग नहीं बच सकते। कबीर जैसे सयाने संत ही दावा करसकते हैं कि उन्होंने चदरिया ज्यों की त्यों धरदीनी। फिर भई वे माया का लोहा मानकर कहते हैं कि ‘राम चरण’ में रति होने से ही गति मिल सकती है –
राम तेरा माया दुंद मचावे।
गति-मति वाकी समझि परे नहिं, सुरनर मुनिहि नचावे।
अपना चतुर और को सिप्ववै, कामिनि कनक सयानी।
कहै कबीर सुनो हो सन्तों, राम-चरण रति मानी।
पूजा बर बाठा रहता हूँ और मन में माया द्वन्द्व मचाती रही ती है। घरु, मिट्ठ, करु – दुनियाभर की बातें मन को नचाती रहती हैं और मन को तो नाच पसन्द ही है। पूजा के बीच में कुछ सोच बैठता हूँ। बोल पड़ता हूँ। संदीप टोक देता है – “बाबूजी ! पूजा कीजिए, बाकी बात बाद में।” झेंपता हूँ। चित्त को मोड़ता हूँ – हरि स्मरण की ओर। पुण्डरीकाक्ष का स्मरण मान स्नान जो है –
अतिनीलघनशामं नलिनायतलोचनम्।
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम्।। - वामनपुराण
अर्थात् नीलमेघ के समान श्यामल कमल लोचन हो जाता है। हरि का स्मरण कर व्यक्ति नहा जाता है, पावन सोचू उम्र और पंडितम् मन्य प्रवृत्ति। छोटी सी बात विचार का विषय बना लेती है।पद-पदार्थ पर आगे-पीछे विचार करने लगती है। मामंसक की तरह बाल की खाल निगालने लगती है। जबकि दास कबीर ठौका बात कह गये हैं कि पंडित बनने के िलए प्रेम का ढाई आखर ही पर्याप्त है, परन्तु ‘संसकिरत भाषा पढ़ि लीन्हा, ज्ञानी लोक कहो री’ इस गुमान को गौरवान्वित करने सोचू मन उपर्युक्त मंत्र श्लोक की मीमांसा करने लगता है। मीमांसा कहती है कि शुद्ध पवित्र मन से भगवत भजन करने से फल मिलता है, फिर ‘अपवित्रो वा’ पद से ही जब काम चल सकता था, तो ‘सर्वावस्था गतोsपि वा’ पद बंध का विन्यास क्यों किया गया ? जबकि संस्कृत के वैयाकरण अर्ध मात्रा लाघव को पुत्र जन्मोत्सव जैसा आनन्द मानते हैं, तब इस बड़े पदबंधका प्रयोग आनन्द में अवरोध है कि नहीं ?
गहरे पैठकर देखियेतो इस छोटे श्लोक में सारे पद विन्यास सार्थक हैं, चौकस हैं, अर्थानुष्ठित हैं। हरि-स्मरण की सहज महिमा का अवबोधक ये पद साफ-साफ कहतेहैं श्याम संकिर्तन व्यक्ति चाहे बिना नहाये-धोये, मन को भिगोये बिना करें अथवा स्नान ध्यान करके वह बाहरःभीतर से पावन हो उठता है। स्मरण की महिमा ऐसी है कि वह अपवित्र को पवित्र और पापी को पावन बना देती है, स्मरणीय बना देती है। वाल्मीकि इतने डूबे हुए थे कि मुख से सही भगवान्नाम उच्चरित नहीं हो पा रहा था। ‘राम-राम’ के बदले ‘मरा-मरा’ जप रहे थे, परन्तु उल्टा नाम जप कर मभी ब्रह्म समान हो गये। द्रौपदी ने हरि का स्मरण किया। स्मरण करते ही उसका गुमान गल गया, श्याम दौड़ पड़े और वह पावन हो उठी। पवित्र होने के लिए तो स्मरण किया जाता है –
कृष्णेति मङगलनाम यस्य वाचि प्रवर्तते। भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः।।
यहाँ फिर मीमांसा की जा सकती है कि जो अपवित्र है वह हरि स्मरण करे – पवित्र होने के लिए। पवित्रों के लिए जरूरी तो नहीं लगती। दरअसल हरि स्मरण सबके लिए निरंतर जरूरी है। तिरगुन फाँस लिये डोलती माया निरंतर बाँधने के लिए चौकस रहती है। थोड़ा भी लोभ मोह जन्य असावधानी दिखी की वह बाँध लेती है। नारद मुनि से ज्यादा कौन पावन होगा, परन्तु वे भी माया के चक्कर में पड़ गये। नर से वानर हो गये। लोग पवित्र होकर भी पापी हो जाते हैं – पवित्र पापी। गंगा-यमुना नहाने के बाद भी मैं नहीं धुलता। कपड़ा रंगाकर भी मन नहीं रंगता राम में। माला फेरते युग बीत जाता, पर मन का फेर नहीं मिटता। नाम बेचकर साधुता की दुकान चलाते रहते हैं –
भगति विराग ज्ञान साधन कहि, बहुविधि डहकत लोग फिरौं।
सिव सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं।। - विनय पत्रिका 141
इसीलिए मंत्र कहत है कि पवित्रो हो अथवा अपवित्र प्रभु का स्मरण करते रहो। बाहर-भीतर से पवित्र होते सहे। राम में रमते-रमाते रहे। किसी अवस्था, देश, काल में रहो नाम जपते रहो। पावन हो तो और पावन हो जाओगे। सुंदर हो तो और सुंदर हो जाओगे। भारद्वाज मुनि क्या कम पवित्र थे ? परन्तु आश्रम में राम के पग पड़ते ही और पवित्र हो उठे। पावनता में नहा उठे। कृतार्थ हो उठे।
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आज सुफल जप जोग बिराजू।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू।। अयोध्या कांड 107
भगवान ने अपने स्मरण की छूट तो यहाँ तक दी है कि व्यक्ति चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते देश –काल के नियम से परे होकर स्मरण कर सकता है। आश्चर्य, भय, शोक, क्षत, मरणासन्न – किसी भी दशा में ईश्वर स्मरण कल्याणकारी है –
न देश नियमो राजन्न काल नियमस्तथा। विद्यते नात्र संदेहो विष्णोर्नामानुकीर्तने।।
आश्चर्ये वा भये शोके क्षवेवा मम नाम यः। व्याजेन वा स्मरेत् यस्तु ययाति परमां गतिम्।।
अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्था गतोsपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षां स बाह्यान्तरः शुचिः।।
गोपियों ने प्रेम से, कंस न भय से, शिशुपालन जैसे राजाओं ने द्वेष से, वृष्णिवंशी यादवों ने संबंध से, पाण्डवों ने स्नेह से और नारद जैसे भक्तों ने भक्ति भाव में डूबकर भगवान का स्मरण किया और सभी प्रभु को पा गये। वैरानुबन्ध से स्मरण तो और भी तन्मय बनाकर पतित को पावन बना देता है, क्योंकि बैर तीव्रता सेदिन-रात बैरी का स्मरण दिलाता रहता है। हाँ, क्षुद्र से बैर ठानने में क्षुद्रता ही हाथ लगती है। अतः रावण-कंस जैसे महान पापियों ने महानाम परमात्मा से शत्रुता करके वे सबके शरण को पा गए। बाहर-भीतर से पवित्र हो गये –
तस्माद् वैरानुबन्धन निर्वैरेण भयेन वा।
स्नेहात्कामेन का युञ्जयात् कथञ्चिन्नेक्षते पृथक्।।
गोप्यः कामाद् भयादकंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहात यूयं भक्तया वयं विभो।। - भागवत 7-1-25-30
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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10. कृतार्थता की आकांक्षा और भागवत
बरुत नामी, ज्ञानी-ध्यानी, शोहरतशुदा तख्त-ताजधारी व्यक्ति सफलकहला सकता है, समृद्ध और प्रतिष्ठित हो सकता है, पर वह कृतार्थ ही हो सकता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सामान्य की बाद जाने दें, विशाल बुद्धि व्यास जैसे मुनि की भारत कौन कहे महाभारत जैसा अदभुत ग्रंथ रचकर – ज्ञान, दर्शन, धर्म का संदोह, वेदोपवृंहणन महान काव्य लिखाकर ही कृतार्थ नहीं हो सके। विश्वास इतना बढ़ गया कि उन्हें लगा कि जो कुछ महाभारत के घट बीत जाने के बाद उनका मन अकृतार्थता के बोध से उदास हो चला। घटनाओं के मलबे से चीत्कार की उठती प्रतिध्वनि उनकी संवेदना को सालने लगी। ध्वंसजन्य सन्नाटा अशांत करने लगा। धृतराष्ट्र, दुर्योधन, द्रौपती, अश्वत्थामा के अंधापन, घमंड, पुकार, कुंठाग्रस्त हिंसा और जीतकर हार गये युधिष्ठिर का बोध, सबसे उपजा सन्नाटा बहुत गहरे उतरकर व्यास की तटस्थता को कुरेद रहा था। धर्म-दर्शन के सारे ज्ञान, विदुर की नीति, कृष्ण-भीष्म जैसे लोगों का होना ही त्रासद यथार्थ को घटित होने से नहीं रोक पाया था। उसकी त्रासदी कदाचित व्यास के कवि हृदय को बेचैन किये बैठी थी। वे अपनी अकृतार्थता को कुछ-कुछ महसूस करते हुए कहते हैं – महाभारत के बहाने मैंने वेदों के अर्थों को खोल दिया ताकि सभी उसका लाभ ले सकें। अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकें। यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ तथापि मेरा हृदय अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है –
भारत व्यापदेशेन ह्याम्नार्थश्च दर्शितः।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्री शूद्रादिभिरप्युत।।
तथापि वत में दैह्यों ह्यात्मा चैवात्मना विभुः।
असम्पन्न इवाभांति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः।। - भागवत 1-4-29-3-
व्यास जी अकृतकाम खिन्न हो बैठे थे, तभी नारद जी वहाँ पधारे। कुशल-क्षेम और आतिथ्य ग्रहण करने के बाद कुशल वैद्य कीतरह नाड़ी टटोले बिना चेहरे को पढ़कर ही नारद ने व्यास की अकृतार्थता को पहचान ली। और मानों उनके समग्र ज्ञान की खान महाभारत पर व्यंग्य मुस्कान चस्पा करते हुए वे बोले – महाराज व्यास जी। धर्मादि सभी पुषार्थों से परिपूर्ण महाभारत रचकर आप अपने कर्म एवं चिंतन से संतुष्ट हैं न ? सनातन ब्रह्म तत्व को आपने जान ही लिया है, फिर भी आप अकृतार्थ नर के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? व्यास जी ने स्वीकृति के स्वर में कहा – नारद जी। सच में परब्रह्म और शब्दब्रह्म को जान लेने के बाद ही कहीं कोई कमी रह गई है, जिससे मेरा परितोष अधूरा है। कृपया आप ही इस अधूरेपन का कारण बतायें –
नारद उवाच
पराशर्य महाभाग श्वतः कच्चिदात्मना।
परितुष्यति शरीर आत्मा मानस एव वा।।
जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदभुतम्।
कृतवान भारतं यस्त्व सर्वार्थपरिबृहितम्।।
जिज्ञासितमधीतं च यत्तदब्रह्म सनातनम्।
अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो।।
व्यास उवाच
अस्त्येव में सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते में।
तन्मूलमव्यक्तमगाथ बोधं
पृच्छामहे त्वssमश्वात्मभूतम्।। - भागवत 1-5-2,3,4,5.
वस्तुतः महाभारत में सब कुछ होते हुए भी वह नहीं है, जो कृतिकार औस उससे साक्षात्कार करने वाले पाठक-श्रोता को कृतार्थ कर सके। माना कि उसमें धर्म, दर्शन, इतिहास वेद की व्याख्या सब कुछ है, परन्तु वह जो प्रभाव छोड़ता है, उसमें सब कुछ दब सा जाता है और उभरकर आती है मृत्यु की त्रासदी, ध्वंस की पीड़ा, मानवी नियति की विडंबना, करुण गाथा। व्यास मुनि जिन मूल्यों को सम्प्रेषित करना चाहते थे, अपने जिन बोधों से संसार को संस्कारित करना चाहते थे, सब हो नहीं पाया, घात-प्रतिघात, दंभ-द्वेष और काल की निर्ममता की गाथा बनकर ही महाभारत रह गया। आज भी महाभारत को लोग न पढ़ना पसंद करते हैं न घर में रखना। यह अकृतार्थता का सबसे बड़ा सबूत है। जो कृति लोक स्वीकृति नहीं पा सकी वह भारत हो या महाभारत वेद हो या पुरण न खुद कृतकृत्य हो सकती है न लेखक को बना सकती है और न लोक को। लोग उसी युद्ध की गाथा सुनना पसंद करते हैं, जो गाथा श्रेय-प्रेय को बढ़ावा देती हो, भाई-भाई के द्वन्द्व और छल-छद्म की नहीं। रोजमर्रा रोज-ब-रोज उ्हें स्वाद्व स्वार्थ-संघर्ष में तो घसीटता ही रहता है। देशी संस्कृति और मानस जीवन के दुखद अंत का अभ्यासी नहीं। इन्हीं सब कारणों से महाभारत और व्यास दोनों उतने लोक स्वीकृत नहीं हो सके जितना वाल्मीकि और उनकीरामयण,तुलसी और उनके ‘मानस’ (व्यास ने यदि श्रीमद भागवत की रचना नहीं की होती तो संभवतः और अलोकप्रिय तथा अकृतार्थ रह जाते। नन्द दुलारे वाजपेयी का मनना है) “महाभारत के गीता प्रकरण में महाकवि ने आँसू पोंछने की चेष्टा न की होती तो उसका अध्ययन करने का साहस एक भी व्यक्ति न कर सकता। उसका अंतिम शांति पर्व तो विकट अशांतकारी है।” – हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी पृष्ठ 42
बहस की जा सकती है कि महाभारत में भी तो कृष्ण हैं ही। उनके बिना महाभारत कैसा? रामायण या मानस में राम हैं, तो महाभारत में कृष्ण, फिर व्यास को कृतार्थता क्यों नहीं मिली ? कृतार्थ होने के लिए क्या जरूरी है कि भगवान की चर्चा और अर्चा की जाए ? बहस तर्क आश्रित होती है और तर्क का कोई अन्त नहीं। नारद जी साफ-साफ व्यस जी से कहते हैं कि आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया है। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होत, वह शास्त्र और ज्ञान अधूरा है। आपने वासुदेव की महिमा का वैसा वर्णन नहीं किया है जैसा धर्म आदि पुरुषार्थों का। जिस वाणी से श्रीकृष्ण का गुणगान नहीं होता वह कौओं के उच्छिष्ट अन्न फेंकने के स्थान जैसा अपावन होता है, वहाँ हंस नहीं जाते –
भवानुदितप्रायं यक्षो भगवतो मलम।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तददर्शनंखिलम्।।
यथा धर्मादयाचार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्युनुवर्तितः।।
न यद्वचश्चित्र पदं इर्श्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीतकीर्जित।
तदवायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमुन्त्यशिक्क्ष्याः।।
- भाग 1-5, श्लोक 8-9-10
तुलसीदास बी प्रकारन्तर से इसी बात का समर्थन करते हैं –
किन्हें प्रकृतजन गुनगाना। सिर धरि गिरा लगी पछिताना।।
यहाँ फिर बहस को बढ़ाई जा सकती थी कि भगवान का गुणगान ही क्या वाणी की धन्यता केलिए जरूरी है ? फिर सदियों से इतने काव्य क्यों लिखे जा रहे हैं ? फिर तो कुरान, पुराण, बाइबिल लिखे जाने के बाद शेष की जरूरत ही नही थी। ऐसी बात नहीं है। दरअसल भगवान के गुणों के बखान और यश के कीर्तन से तात्पर्य मनुष्य के ही उन मूल्यों और कर्मों का कीर्तन करना है, जो लोक-परलोक को साधने के लिए जरूरी है। सत्य, शील, सौन्दर्य और शक्ति के पर्याय का नाम भगवान है। परोपकार, दया,दान आदि धर्म के समस्त मान मूल्यों का आचरण भगवान के गुणों का गान है। मनुष्य बेहतर दशा दिशा प्रदान करने एवं उसे नर से नारायण बनाने के लिए नारायण विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं, वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा को यहाँ अवतरित होने की। वस्तुतः प्रत्येक के भीतर बसेवासुदेव जिस शास्त्र या रचना विधान से प्रसन्न नहीं होते, वह अधूरा है। जिस कला या ज्ञान के द्वारा लोकसंग्रह यालोक मंगल की श्रीवृद्धि नहीं होती, वह कृतार्थता नहीं दे सकती। महाभारत की नियति ऐसी ही रही। युधिष्ठिर जीतकर भी हारे हुए लगते हैं और भीष्म इच्छा मृत्यु का वर पाकर भी अभिशप्त। शर शय्या पर महीनों सोते रहने के लिए शापग्रस्त/ द्रोणाचार्य का गुरुत्व ग्लानि में डूबा हुआ है। व्यास इतना महान ग्रंथ रचकर भी अकृतार्थ हैं, क्योंकि यह रचना लोगों को रच नहीं सकी। युधिष्ठिर जैसे धर्मधुरीण स्वर्ग में भी पहुँचकर दुर्योधन को सुख मनाते और अपने भाइयों को दुःख से हाय-हाय करते देख अड़ गए कि उसे भाइयों के साथ नरक में रहना पसंद है, पर यहाँ नहीं। येसब अकृतार्थता के सबूत हैं। शून्यता के प्रमाण हैं।
तुलसी वाल्मीकि व्यास सबेस कृतार्थता के तत्व को लेकर मानस की रचना करते हैं। वे उन तत्वोंको छोड़ते चलते हैं जो जो वास्तव होकर भी लोक के मूल्वान नहीं होते/कृतार्थ करने के योग्य नहीं होते। सीता निर्वासन के प्रसंग को तुलसी पूरी तरह छाँट देते हैं, क्योंकि वह प्रसंग लोक को अब भी सालता है, करुणा को भी करुणा से भर देता है। महाभारत भाई-भाई के बीच मरणोपरान्त भी बैर को शमित नहीं करपाया। राज्य की खातिर बंधुता को नष्ट करता है, जबकि मानस यारामायण बंधुता की खातिर राज्य का त्याग करना सिखाता है। बड़ी से बड़ी कुर्बानी देना सिखाता है। भ्रातृ प्रेम को केन्द्रस्थ भाव मानता है, यही कारण है कि ’मानस’ की चौपाई मंत्र बन गई और महाभारत के श्लोक पुण्यश्लोक नहीं बन पाये। व्यास देव भी महाभारत के प्रसंगो को एकदम काट-छाँट करते हैं, अनुच्छेद परिवर्तन भागवत जैसे काव्य ग्रंथ रचनाकार को सच में कृतकृत्यता देते हैं। जहाँ प्रेम ही प्रेम हो वहाँ ईर्ष्या-द्वेष, संगर्ष, दंभ-अहंकार, लोभ-मोह जैसे अशांत करने वाले भाव कैसे टिक सकते हैं। यहाँ दया, उदारता, परोपकार, दान, धर्म, नियम-संयम जैसे दैवी गुणों का गान है – मानव को देव बनाने के लिए। प्रीति की रीति है – रमणीय में रम जाने के लिए। राधा भाव है – माधव बन जाने के लिए। भक्ति भाव है – सभी धर्मों से ऊपर, कुल कानि जाति-पांति की बड़ाई से बड़ा साझा भाव। रास है, जिसमें रास बिहारी का निवास है (रसौ वे सः) जहाँ रासेश्वर स्वयं बंशी बजाते, नाचते हैं और भक्त के साथ-साथ भक्ति भी नाच उठती है। वहाँ कृतकृत्यता दूर कैसे रह सकती। ये तो ऐसे भाव हैं जो दूर खड़े को भी पास खींच लेते हैं, रमा लेते हैं, समा लेते हैं।
भागवत में उन भावों का व्यास ने परित्याग कर दिया है, जो उन्हें महाभारत में थका चुके थे, आकुल कर चुके थे। कृष्ण जैसे को भी कपट और क्रूरता के लिए विवश होना पड़ा था। विदुर की उपेक्षा और भीष्म की अनसुनी कर दी गई थी। वे इसमें कौरवों के युद्धोन्माद और पांडवों की युद्धोन्माद में शामिल होने की विवशता के वर्णन से बचते हैं और त्रासद घटनाओं का उल्लेख भर करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। वे महाभारत की तरह धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में लहुलुहान होती मानवता को नहीं देखना चाहते, धर्म की गुहा में मनुष्य को उलझाना नहीं चाहते हैं। वे भक्ति भाव में सबको सराबोर करना चाहते हैं। कृतकृत्य होना चाहते हैं। भागवत की शरुआत में ही वे भक्ति को परमधर्म मानते हैं और वासुदेव में सबका वास-समाहार –
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
अहेतुक्यप्रतिहता यया त्माssसम्प्रसीदति।।
तस्मादेकेन मनसा भगवान सात्वतां पतिः।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यरच ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा।।
यदनुध्यसिना युक्ताः कर्मग्रन्थिनिबन्धनम्।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्यकोनु कुर्यात् कथारतिम्।।
वासुदे परा वेदा वासुदेव परामखाः।
वासुदव परा योगा वासुदेव परा क्रियाः।
- भागवत 1-1-6,14,15,28
व्यथा कथा के भवजाल में फँसनेके बजाय व्यासजी की अकृतार्थता अपनी कृतार्थता के लिए वासुदेव-कथा-रति को ही अपनी गति बनाती है और भटकाव से बचने के लिए भागवत रचना के दस प्रस्थान बिन्दु निर्धारित करती है –
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः।
मन्वन्तरेशानकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः।।
ऐसा सोचना भूल है कि व्यासदेव महाभारत कथा से आकुल-व्याकुल होकर भागवत-कथा में पलायन कर गये। पलायन तो इस देश ने कभी सीखा ही नहीं। न प्रेम जीवन के संघर्ष से पलायन है, भक्ति। भक्ति तो वह शक्ति है जो व्यक्ति को टूटने से बचाती है, बैकुंठ बनाती है, जीवन जीने में रसप्रदान करती है। भगवान कृष्ण की रणछोर उपाधि पलायन नहीं, अपितु पैंतरा बदलकर दुष्ट दलन और सज्जन रक्षण के एक उपाय का पर्याय है। सब धर्मों-प्रपंचों का पूर्णविराम है भक्ति। अतः इसी भक्ति को भागवत के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर व्यास स्व और पर को कृतकृत्यतो छकककर परोसते हैं। राधा-माधव गोपिकाओं में डूबते-डूबते हैं। माधव यदि रसमय विग्रह हैं तो सोलह हजार गोपिकाओं की राशिभूत पीड़ा की पर्याय राधा मिठासमय प्राण रासेश्वरी –
सोलह सहस पीर तर एकै
राधा कहिए सोई।
राधा रासेश्वरी की आह्लादिनी शक्ति है। महाभाव रूपा। आधा प्रकृति। नितय् लीला सहचरी। आह्लाद महाभाव से भावित प्रेम परिपूर्ण लीला का काव्य भागवत, जो विद्वानों और श्रोताओं को एक साथ आह्लादित करता है, राधा-माधव भाव से भावित करता है, सच में कृतार्थता का काव्य है। यहाँ कर्म है तो समर्पण लिये, वैराग्य है तो अनुराग लिये, वध है तो उद्धार के लिए – वध किया ही जाता है लोक उद्धार के लिए। आकुल करने वाली कथा का संदर्भ देकर लीन करने वाली कथा-लीला का गायन है। यहां कुरुक्षेत्र और द्वारका का उतना महत्व नहीं है, जितना ब्रज रेणु-धेनु गोपी-ग्वाल का है। रसराज श्रृंगार से सिक्त माधुर्य गुण से मधुमय सख्यभाव का यह काव्य किसे कृतकृत्य नहीं करता ? ज्ञान यहाँ गदगद हो जाता है। विश्वास न हो तो उद्धव जी से पूछ लीजिए, थोड़ी देर के लिए गोपी-ग्वाल बनकर देख लीजिए। बारह स्कन्धों में रचित भागवत का दशम स्कन्ध जो कृतार्थता का मूल स्रोत है, पूरे भागवत के एक तिहाई से भी ज्यादा भाग में फैला हुआ है। भागवत का सार है। जैसे तुलसी हृदयस्पर्शी प्रसंगों का, तल्लीन करने वाली लीलाओं का रम-जमकर वर्णन करते हैं वैसे ही व्यासदेव दशम स्कन्ध की लीलाओं में लीन से हो गये हैं। लीला वर्णन करते-करते लीलामय हो गये हैं।
इस दशम स्कन्ध को रचते-रचते व्यास देव स्वयं रच गये हैं। श्रद्धालु सुनते-सुनते गदगद हो जाते हैं। इस स्कन्ध की वाणी धन्य हो जाती है। प्रकृतजन अपने ही भावों का गुणगान कृष्ण लीला गान को मानकर तृप्त हो जाते हैं। यहाँ मैं ‘हम’ में समा जाता है, स्वार्थ परमार्थ के लिए समर्पित हो जाता है। महाभारत की तरह रिक्तता, खीझ, त्रास, करुणा और धर्म का उलझाव नहीं है। द्रौपदी धर्मवृंद सभासदों से सवाल करती है कि जब मेरे पति युधिष्ठिर मुझे दांव पर चढ़ाने से पूर्व अपने को ही हार चुके थे, फिर मुझे दांव पर कैसे चढ़ा सकते थे ? और यदि एक हारे हुए जुआरी के द्वारा मैं दांव पर चढ़ा भी दी गई, तो क्या मैं दुर्योधन की दासी बन गई ? धर्म धुरंधर भीष्म ‘धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है’ कहकर उलझा सा जवाब देकर चुप हो गये। ज्ञानवृंद द्रोण चुप्पी साध गये। धर्मावतार युधिष्ठिर का वाक बंद हो गया और भरी सभा में – अपने ही लोगों के सामने अपनों के ही द्वारा ऐसी अपमानित होती रही, जिसका घाव आज तक हरा है, भरा नहीं है। नारी जाति आज भी द्रौपदी के अपमान से चीख पड़ती है। अनेक घटनाएँ, जिनकी याद भूल से भी आ जाती है तो मानवता काँप और कचोट उठती है, महाभारत से कृतार्थता पाने का सवाल ही नहीं उठता। विदुर जी मैत्रेय ऋषि से कहते हैं – “हे ऋषि। व्यास जी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म कई बार सुन चुके हैं किन्तु अब कृष्ण कथा रूपी अमृत प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प सुखदायक धर्मों से मेरा मन ऊब गया है।” –
परावेषां भगवन् व्रतानि श्रुतानि मे व्यसमुखादभीक्षण्।
अतृप्नुमः क्षुल्लसुखावहानां तेषामृते कृष्णकथामृतौदात्।।
- भागवत 3/5/10
विनम्रता के अनुपात से अनुप्रेरित व्यास ने प्रभु से कहा था – “हे जगत के गुरुदेव। आप अरूप हैं, फिर भी ध्यान के द्वारा मैंने महाभारत आदि ग्रंथ में आपकी बहुशः रूपकी कल्पना की है, रूप में बाँधने की कोशिश की है, आप निर्वचनीय हैं, व्याख्याओं द्वारा आपके रूप को समझ सकना संभव नहीं, फिर भी वचन बाँधने का प्रयास किया है। आप सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि तीर्थयात्रा विधान से आपके उस व्यापकत्व को मैंने खंडित किया है, सीमित किया है। अतः हे जगदीश। मेरी बुद्धिगत विकलता के तीन अपराध – अरूप की रूप कल्पना, अनिर्वचनीय का स्तुतिनिर्वचन और व्यापी का स्थान विशेष में निर्देश – क्षमा करें।” –
रूपं रूपविवर्जितस्यभवतो ध्यानेन यत्कल्पितम्।
स्तुत्या निर्वचनीयता खिलगुरोदूरीकृतायन्मया।।
व्यापित्वं च निराकृतं भगवते यततीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीश, तदविकलता दोष त्रयं मत्कृतम्।।
वस्तुतः विनम्रतावश स्वीकारे गए ये दोष, दोष नहीं, गुण हैं। अरूप को रूप देकर जन-जन में रमाया गया है। जिनका ध्यान योगी भी नहीं साध पाते उन्हें ब्रज रेणु-धेनु के बीच रमाकर सर्वसुलभ बनाया गया है। तीर्थयात्रा को भगवत प्राप्ति यात्राबताकर जन-जन को जोड़ने तथा भूमा बनानेकी कोशिश की गई है। दरअसल भागवत कथा के द्वारा कृष्ण के गुण व लीलाओं का गान वाणी की धन्यता है। अक्रूरजी स्वीकारते हैं कि “जब अखिल पाप विनाशक कृष्ण मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन में स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार होता है। जिस वाणी से प्रभु का कीर्तन नहीं होता वह मुर्दा वाणी है, व्यर्थ है।” –
यस्याखलामीवहभिः सुमङगलैर्वाचेवि मिश्रा कर्मजन्माभिःय़
प्रणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति पै जगद् यास्तद्विरक्ताः भव भोगना मताः।।
भागवत 10-38-12
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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9. होने का अर्थ
‘होना’ क्रिया है। है, हूँ, हैं, था, थे, होंगे, हो सकता है, हो सकता था, हो सकेगा, हुआ होता, हो रहा है आदि-आदि होने के बहुत सारे रूपों में आदमी उदय से लेकर अस्त तक होता रहता है। अपने को अर्थवान बनाता रहता है।
शब्दों के अर्थ होते हैं। व्यक्ति व वस्तुके भी अर्थ होते हैं। अर्थ शब्द रहित शब्द शोर है तो होनेपन के अर्थ से रहित व्यक्ति हाड़-मांस का पिंड, गोबर-गणेश, मिट्टी के माधो। मनुष्य मनुष्येतर सृष्टि से इसलिए श्रेष्ठ है कि वह मनन धर्मा है। चेतना का विशिष्ट रूप है। सच्चिदानन्द का विशेष प्रतिरूप है। व्यक्त स्वरूप है। वह निरंतर अपनी सृजनशीलता के विविध रूपों के द्वारा मनुष्येतर सृष्टि से पृथक पहचान बनाता रहता है। अपने होने की सार्थकता की तलाश क्रियाओं के द्वारा करता रहता है। सर्वांगपूर्ण की बात जाने दें, विकल अंग सूरदास गीत से, गूँगा मूर्तिगढ़ के बछरा के चित्र उकेरकर लंगड़ा वाद्य बजाकर भाँति-भाँति से परम रचनकार को और अपने आसपास को अपने होने का प्रमाण देते रहते हैं।
‘होना’ क्रिया पद है। मतलब यह है कि व्यक्ति कर्म के द्वारा अवयक्त की महिमा को प्रकट कर सकता है. अपनी महिमा के प्रकटीकरण के सर्वोत्तम माध्यम के रूप में कदाचित अव्यक्त को ही चुना है। वह अवतरित होकर विविध लीलाओं के द्वारा अपने अवतारत्व का विशिष्ट बोध स्वयं कराता है। दसों अवतार एक जैसे नहीं होते। वह हर युग में अपनी संभवता की अलग-अलग पहचान कराते हैं और मनुष्य रूप धारण करने का अर्थ प्रतिपादित करते हैं। जितने संत और महापुरुण हुए हैं, कोई अहिंसा के, कोई करुणा के, कोई सेवा के तो कोई परोपकार के मिथ बन गए हैं। कवि कोकिल, खेलन कवि के रूप में यदि विद्यापति का काव्य व्यक्तित्व जाना जाता है तो सूर पुष्टिमार्ग के जहाज के साथ-साथ वात्सल्य एवं श्रृंगार के सूर के रूप में। कबीर अपनी पहचान कराते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “ऐसे थे कबीर, सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़ भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग के तुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय” – कबीर पृ.167
जाहिर है कि अवतार सहित संत साहित्यकार, अन्य महापुरुष सभी, जो गाथा के रूप में गाये जाते हैं और मानवता की उत्कृष्ट पहचान हैं, गौरव हैं, मूल्य हैं, होने के अर्थ हैं, वे सब सीख-संकेत प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से देते रहते हैं कि मनुष्य कर्म से महान बनता है, ‘होने’ पहचान बनता है, जन्म से नहीं। रामचार भाई, थे किन्तु जो राम की पहचान बनी वह दूसरे भाईयों की नहीं बन पायी। जो कृष्ण की बनी वह बलराम की नहीं बनी।
‘होने’ की पहचान सद् और बद दोनों तरह की होती है। बहुतों के आत्मीय, अनुकूल और सहज आकर्षण का केन्द्र बन जाना, मानवता को कृतार्थ करना सद् पहचान के लक्षण हैं। इसके विपरीत बद पहचान के लक्षण हैं। दोनों तरह के लोग मिलते हैं, अपितु दूसरी तरह के लोग गिनती में ज़्यादा हैं। कलियुग और कलयुग के दुष्प्रभाव से बदनाम लोग ज़्यादा मिलते हैं, परन्तु याद रहे गुमनाम से बदनाम अच्छा है। कम से कम बुरे के रूप में ही सही, राम के साथ रावण और कृष्ण के साथ कंस तो याद किये ही जाते हैं। सुबह-शाम यों ही खुद को तमाम करना, रोजमर्रे में अकारथ करना हीरा जनम को मिट्टी पलीद करना है। “उदर भरन कारने जनम गँवायो सारा”। बड़े भाग्य से चौरासी चक्कर लगाने के बाद यह सुर दुर्लभ मानुष जनम मिलता है। इस अमोल को माटी के मोल गँवा देना, लोक-परलोक सुधारे बिना गुर गोबर कर देना निहायत निखट्टूपन है।
अवसर बीत जाने पर पछताते रहना बची खुची संभावनाओं को भी गारत करना है। भला इसी में है कि व्यतीत से सबक लेकर शेष को विशेष बनाएँ। न सही महापुरुण, पौरुषवान तो बने। जब तक सामान्य से हटकर अपने किये को दर्ज नहीं कराया जाता, अपनी अस्मिता से लोगों को वाकिफ नहीं कराया जाता तब तक व्यक्ति का होना न होना एक बराबर है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि डॉक्टर नहीं बन सके तो डाकू बन जायें, समाज सुधारक नहीं रो सके तो बिगाड़क बन जाएँ। बनने या होनेका सही मतलब है कि अपनी सृजनशीलता औरस्वतंत्र चेतना का अधिकाधिक बेहतर इस्तेमाल करना। “मनुष्य की स्वतंत्र चेतना और सृजनशीलता ऐसे तत्व हैं जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करते हैं। स्वतंत्रचेता होने का तात्पर्य ही उत्तरदायी होना – किसी बाह्य सत्ता के प्रति नहीं, बल्कि अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी।” – नन्दकिशोर आचार्य – संस्कृति का व्यारण, पृ.- 11
अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी होना ही नैतिक होना है, मनुष्य होना है, सृजनात्मकता को संभावनाओं की हद तक ले जाना है। उत्तरदायित्व का यह बोध अपने साथ अन्यु गुणों को भी समेटता है, जो गुण आदमी को आदमी होने में सहायक होते हैं। होने के मार्ग में अवरोध खड़ा करने वालों के विरुद्ध संघर्ण और असहमति जताने के लिये तैयार करते हैं।
सभा सभ्यों की होती है और ससंद सद् मनुष्यों की। सभा और ससद सभ्य इसलिए कहलाती है कि वह सब के प्रति उत्तरदायी होती है, परन्तु जब वह असद् वृत्तियों से लैस लोगों का जमावड़ा बन जाती है, धृतराष्ट्र जैसे राजा और दुर्योधन जैसे सेनापति नियुक्त करती है तो नियति से ही क्रूर सत्ता द्रौपदी के चीर हरण तथा अहिल्या के शील हरण में संकोच नहीं करती। उत्तरद्यित्व के भाव से उपजी नैतिकता उसके लिए बेमतलब होती है। मतलब की होती है सत्ता। सत्ता का इस्तेमाल। कभी न तृप्त होने वाली तृष्णा का भोग। किन्तु यह भी वास्तविकता है कि कोई न कोई विकर्ण सभा में होता है जो अपने होने के साथ ही सभा के होने को भी अर्थ देने की हिम्मत करता है। भले धर्मवृंद भीष्म अपनी थोथी निष्ठावश विवश हों, पर ज्ञानवृंद द्रोण समझौतावादी बन जाएं, कर्ण बदले के कुभाव में आँख मूँद कर समर्थन कर रहे हों, नीतिवृंद विदुर धकिया दिये जाएं, किन्तु विकर्ण जैसे लोक उत्तरदायी चेतना का इज़हार किये बिना नहीं रहते। द्रौपदी के दाँव पर चढ़ाये जाने और चीरहरण मे विरोध में आवाज उठाये बिना नहीं रुकते। (महाभारतः सभापर्व, 61/21,22) भले ही नक्कारखाने में तूती की आवाज दब जाये, पर कवि की संवेदना उसे सुनती है। व्यास उसे इतिहास में दर्ज करता है। विकर्ण का होना हर सभा-समाज के लिए महत्वपूर्ण होता है। लात खाकर भी रावण की सभा में विभीषण का बने रहना, उसकी अमानवीय नीतियों का चाहे-अनचाहे समर्थन करते रहना या तो भाई-भतीजावाद का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है या असभ्य सभासद होने का प्रमाण, क्योंकि सभासद होकर सभासदों के दोषों को जानते हुए भी चुप रहना, अनभिज्ञता प्रकट करना एक प्रकार का अपराध है, दोष है –
न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषानिनुस्मरन्।
अब्रूवन् विब्रूवनज्ञोनरः किल्वषमश्नुते।।
- भागवत 10-44-10
स्प्ष्ट है ‘चीर हरण’ के साक्षी महारथियों के बी विकर्ण का विनम्र विरोध भी बड़ा महत्वपूर्ण था और वहाँ उपस्थित होने को सार्थक सिद्ध कर रहा था। उसकी उत्तरदायी स्वतंत्र चेतना का इज़हार कर रहा था। उसे उन महारथियों से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध कर रहा था, जो उससे वय, बल, ज्ञान, धर्म, नीति में अधिक प्रतिष्ठित कहलाते रहे। विवेक को मारने या ओछा बनाने के बजाय विरोध जताना ज्यादा बेहतर है. विवेकहीन श्रद्धा जताने से श्रेयस्कर है असहमति जताना – नचिकेता की तरह। धृतराष्ट्र की संसद में रहकर उसकी अंधी नीतियों का समर्थन करते रहने से कहीं अच्छा है वहाँ से हट जाना विदुर की तरह। नीति या अनीति केपक्ष में लड़ना अनिवार्य हो तो नीति के पक्ष में लड़ना उत्तम है – युयुत्सु की तरह। भयाक्रान्त और दास बनकर जीने से सुन्दर है स्वाधीन होते तक लड़ते रहना – महात्मा गांधी की तरह। रिरियाते, घिसटते जिंदगानी और दूसरे की मेहरबानी पर जीते रहने से बेहतर है कुरुक्षेत्र में लड़ते-लड़ते वीर गति प्राप्त करना।
जो मुझसे हुआ नहीं
वह मेरा संसार नहीं
कोई लाचार नहीं
जो वह नहीं है
वह होने को
– श्रीकान्त वर्मा, समाधि लेख
ठीक है कि वह मेरा संसार नहीं है जो मुझसे हुआ नहीं, किन्तु आदमी लाचार भी तो है अन्यों के संसार के समान होने को। जीने के लिए उसे वह भी करना पड़ता है जो वह नहीं चाहता है। वह जो नहीं होना चाहता, वह भी उसे होना पड़ता है, करना पड़ता है, बनना पड़ताहै। क्या उग्र विरोधी या उग्रवादी होने का मतलब यह नहीं है कि वे कहीं न कहीं सामाजिक, राजनीतिक व सत्ता के शोषण से उपजे हुए लोग हैं ? मंथरा की मति मारी जाने से क्या राम-सीता को वनवास की पीड़ा से नहीं गुज़रना पड़ा ? क्यातापस की तरह रहना चाहकर भीवनवास के दिन भी काटे जा सके ? रावण जय भय से आशंकित राम की मर्यादा क्या अपनी ही सीमा सेखा को नहीं लांघ जाती है ? पलायन में मुक्ति नहीं। भागने से उबारा नहीं –
तुम लोभ मोह अहंकारा। मद क्रोध बोध रिपु मारा।।
मैं एक, अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा।।
भागेहु नहि नाथ उबारा। रघुनायक करेहुँ सँवारा।। - विनय पत्रिका, पद – 125
ठीक है कि विनयवश तुलसी संभार के लिए रघुनाथ क पुकारते हैं, किन्तु असली बात जो वे यह कहना चाहते हैं वह यह कि व्यक्ति भागकर भी मुक्ति नहीं पा सकता। उबार के लिए दुर्निवार विषम परिस्थितियों से जूझना उसकी मजबूरी और जरूरी दोनों है। होने की यात्रा में यात्री अकेली होता है और बटमार अनेक। बटमारों के भय से यात्रा करना ही छोड़ देना नकारा बटोही साबित होना है। अतः लाचारीवश अमानुष हो सकता है, और कुछ हो सकता है तो व ‘स्व’ की तलाश तो करे। यदि सच में मनुज ब्रह्म का आंश है, तो वह अपने इस ‘है’ को कई तरह से अर्थवान बना सकता है। ‘होने’ का हमारा अर्थ विवादी नहीं, संवादी है, घटाव नहीं, जोड़ है। पाश्चात्य अस्तित्ववाद की अवधारणा की तरह नहीं, कि जहाँ अन्य को नरक समझा जाता है। नरक समझकर अन्य को रौंदा जाता है। दुसरे कि स्वतंत्रता को नकारा जाता है। उपनिवेशवाद को प्रोत्साहित किया जाता है। शोषण को उकसाया जाता है। दूसरे धर्म के मानने वाले को काफ़िर समझकर कत्ल किया जाता है। व्यक्ति को बाज़ार नहीं कुटुम्ब में तब्दील करो। जो व्यवहार अपने को प्रतिकूल लगे वैसा दूसरे के साथ आचरण मत करो (आत्मनः प्रतिकूलानिन समाचरेत) वह धर्म धर्म नहीं है जो दूसरे र्म का बाधक है – न धर्मः तत् यो बाधते धर्मम्।
वैश्वीकरण का असली तात्पर्य ‘स्व’ को विश्व बनाना है न कि विश्व को ‘स्व’ के लिए इस्तेमाल करना है। ‘स्व’ की सीमा का इतना विस्तार करना है कि ‘अन्य’ अपना बन जाये। अन्य के ‘होने’ में अपना ‘होना’ शामिल हो जाये। प्रत्येक के होने में अपना सहकार यदि दर्ज न हो, तो विरोध तो कतई न हो। सह-अस्तित्व बना रहे। वह युग या व्यक्ति विश्व क्या बन सकता है, जो खुद का नहीं हो सकता।जो आत्मनिर्वासित होकर जी रहा हो, जो मेले में रहकर भी निपट अकेला हो, जो घर में रहकर बेघर बना रहे, जो अपने परिवार को तोड़ चुका हो, अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में भेजकर छुट्टी पा रहा हो, वह ससुरा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, अर्थात विश्व ही परिवार है, का अर्थ क्या जानेगा ? अपनी खोल में सिमटा आदमी दूसरे को क्या समा सकता है ? कुत्ते को गोदी में खिलाने वाले तथा माता-पिता को फटकारने वाले लोग क्या जानें स्वजन स्नेह का स्वाद ? किसी अन्य या अपनों के होने का आस्वाद। मिशनरी हिन्दुओं की आस्था को बदल नहीं सके तो उसका कारण यह नहीं था कि हिन्दुओं में ईसा मसीह के संदेश के प्रति कोई प्रतिरोध था, बल्कि उन्होंने उस संदेश को अपनी बहुलतावादी आस्था की कोटियों में ही समा लिया। - निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी, पृ. 139) भारत की समोने-पिरोने वाली संस्कृति ने इस्लाम को भी समोना चाहा है। हिन्दुओं के द्वारा ताजिए पर चढ़ाये जाते चढ़ौना, मानी जाती मनौतियों और मजारों पर चढ़ाई अन्य को अपने से अलग न समझने के ही प्रमाण हैं। इस देश ने ब्रह्म को अन्य पुरुष माना है। उसे तत् से संबोधित किया है।थ वह प्रथम पुरुष है। चराचर जगत चल-अचल उसकी प्रतिमा है। ऐसा प्रमाण देने के लिए आग्रह भी है।
“जैविक स्तर पर मनुष्यत्व स्वयं प्राप्य है, लेकिन उसके बाद का मनुष्यत्व अर्जित करना होता है – इस अर्जन की सारी संभावनाएं मनुष्य में ही हैं। जिस सीमा तक कोई यह अर्जन कर पाता है वास्तविक अर्थों में उसी सीमा तक मनुष्य हो पाता है। ...अमानवीयता के खिलाफ़ संघर्ष भी मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है। इस तरह सहमति, असहमति, विरोध संघर्ष तथा स्वतंत्र चेतना से उपजी सृजनशीलता के माध्यम से व्यक्ति अपनी संभावनाओं को उपलब्धि के रूप में अर्जित करता रहता है। यह अर्जन किसी अन्य को क्षति पहुँचाकर नहीं किया जाता। मनुष्येतर सृष्टि से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के फिराक में मनुष्येतर को हेय, हीन, जेतव्य मानकर नहीं। व्यष्टि और समष्टि के सामंजस्य में, सहवीर्य, सहकार में भी होने का अर्थ अर्जित किया जाता है। गैर-मानवीय संसार से अलगाव यूरोपीय सभ्यता का सबसे त्रासद आयाम रहा है, जिसने गोएटे को यह यह कहने के लिए विवश किया कि ‘हर अलगाव में विक्षिप्तता के बीज होते हैं : हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम उसे पनपने न दें।” – निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी पृ. 172)
स्पष्ट है कि अलगाव में यदि विक्षिप्तता के बीज होते हैं तो अन्य को अन्य समझने में संघर्ष के। ऐसे संघर्ष के महाभारत को जो व्यक्ति के होने के अर्थ को कुत्सित करार देता है, कौन अच्छा कहेगा। लोग उसे घर में पुस्तक के रूप में भी रखने से कतराते हैं। भारत ने महाभारत को अच्छा नहीं समझा। वह होना था, हो गया यह और बात है, किन्तु उसकि आत्मीयता सदा अन्यको आत्मसात करने में अपनी समृद्धि मानती रही है. यह देश बाहर से आए जातियों अपना बना कर याय उनके होकर वृहत्तर भारतवर्ष के गौरव से अपने को मंडित करता रहा है। बिना किसी के भूभाग को राजनैतिक उपनिवेश बनाते हुए, अपने भूमा स्वरूप का परिचय देता रहा है। जिन बाहरी जातियों ने अपनी सीमित सोच एवं धर्मान्धता के कारण अन्य को काफ़िर या नरक समझकर रौंदना चाहा उसके साथ अब तक भारत की अस्मिता अपना तालमेल बिठा नहीं पाई है। बिठाये भी कैसे ? अपने ‘स्व’ को विसर्जित करके परधर्म को अपनाने से मर जाना बेहतर जो माना गया है – स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
- गीता।
‘होने का अर्थ’ बहुअर्थी है – छंद की तरह। बहुरूपी है – सृष्टि की तरह। अव्याख्येय है – भूमा की तरह। व्यक्ति भूत, भवन और भविष्य में होता रहता है, क्योंकि वह धरती से आकाश तक व्याप्त विष्णु का सगुण स्वरूप है। हमारे तीनों कालों में वही तो होता रहता है। इसी से भाव हमें होते रहना चाहिए – उस पुराण पुरुष सहस्र शीर्ष प्रभु को प्रणाम करते हुए –
भुत भव्यभवन्नाथः पवनः पावनोsनलः।
कामहा कामकृत् कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः।। - विष्णुसहस्रनाम
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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रामकाज
डॉ. शोभाकांत झा
राम और उनके काज इतने व्यापक हैं कि विचार करते रहिये विराम नहीं मिलेगा। उनमेंरमते रहिए अघा नहीं पायेंगे। उनके कार्य करते जाइये विश्राम नहीं मिलेगा –
राम काज कीन्हें बीना मोहि कहाँ विसराम। हनुमान जी रामजी के काज करते चले गए – एक के बाद एक सँवारते चले गए पर क्या उन्हें विश्राम मिल पाया ? नहीं, वे अब भी उनके कार्यों को सँवार रहे हैं, क्योंकि अजर अमर भक्त जो हैं। विश्वास बढ़ाने के लिए मंगल मूरती मारुति नंदन के भक्तों से पूछ लीजिए।
वास्तव में जन-जन और कण-कण में रमे राम के कार्य जन-जन के कार्य हैं। जीवमात्र के कार्य हैं। उनके कार्यों के न कोई ओर है न छोर। सामान्यतः सीता-खोज को प्रमुख रामकाज माना जाता है। जिसके लिए राम ने सुग्रीव को राज्य में प्रतिष्ठित करते हुए कहा था कि अब हे सुग्रीव ! आप अंगद के साथ मिलकर राज करें, किंतु मेरे कार्य सम्पादन का धान हृदय में हमेशा रखें –
अंगद सहित करहु तुम राजू।
सतत हृदय धरेहु मम काजू।। - 4/12/9
अब विचार करें कि सीता खोज का सतत चिंतन क्या है ? ुस्तुतः सीता खोज तो शांति, भक्ति, शक्ति, मुक्ति की तलाश है। शंकराचार्य ने सीता को शांति रूप में नमन किया है –
शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते।
शांति की तलाश तरह-तरह की उठती समस्याओं के निदान की खोज है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ उठ-उठकर शांति पर प्रहार करती हैं, दबोचती हैं, व्यक्ति, राज-समाज – सब को अशांत करत ीहै, आकुल करती हैं, संघर्ष को न्यौता देती हैं और अंत में महाभारत जैसे महाविनाश के जिम्मे जिंदगी को झोंक देती हैं। मनुष्य क ोसदियों के एक अर्जित मान-मूल्यों को मिट्टी में मिला देती हैं, अतः शांती- सीता की खोज एक व्यापक अवधारणा है। खो गई धरती की बेटी की खोज है। जमीनी सच्ई की तलाश है। सीता कृषि संस्कृति का प्रतीक है। लंका की औद्योगिक सभ्यता, जो हर जगह कृषि संस्कृति और उससे जुड़े मान-मुल्यों कोलील रही है, हमें अशांत बना रही है, सबूत है, इसीलिए गांधी ने इसे चाण्डाल सभ्यताकहा था। इन्हीं सब अर्थों में सीताखोज को देखा जाना चाहिए।
सीता करुणानिधान श्रीराम को अतिशय प्रिय तो थी ही,भारतीय नारी का आदर्श भी थी। सीता की खोज यदि राम की व्यक्तिगत समस्या मात्र होती तो राम स्वयं समर्थ थे – सर्व समर्थ। किसी की सहायती की जरूरत नहीं थी। तुलीस तो राम को ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री और वैराग्य के सपुंज भगवान मानते ही हैं, वाल्मीकि भी उन्हें अपने युग का सर्व समर्थ महानायक मानते हैं। इस महानायक के सेवक हनुमान की सर्व समर्थ सेवकाई में भी किसी तरह के संशय की कोई गुंजाइश नहीं है। हनुमान की शक्ति पर जबसीता को संशय हुआ तो पनवसुत ने पर्वताकार रूप का विस्तार करतेहुए कहा था माँ ! आप अधीर न हों। शपथ राम की ! यदि उनका आदेश मिला होता तो मैं अभी आपको यहाँ से लिवा ले जाता –
अबहिं मातु मैं जाऊँ लनाई।
प्रभु आयसु नहि राम दोहाई।। - सुंदरकांड 16/2
हनुमान जी बुद्धि-विवेक के निधान हैं। वे और उनके राम सीता काउस रूप में वापसी चाहते हैं, जिससे पृथ्वी पर मर्यादा प्रतिष्ठित हो। शईल संयम की शिक्षा लोक प्राप्त करे। अत्याचार बंद हो। लोक को रुलाने वाले रावण जैस लोगों पर अंकुश लगे। मूल्यों की प्रतिष्ठा हो –
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुंपुर नारदादि जसु गैहहिं।। - सुंदरकांड 12/3
निश्चय ही हनुमानजी सीता-खोज और उनकी सही ढंग से वापसी के द्वारा तीनों लोक को सबक देना चाहते थे। युग को संदेश देना चाहते थे कि मर्यादा की सीमा लांघने वाला व्यक्ति राम-कोप का भाजन है। राम का कोप लोक कोप का पर्याय है। देवराज इन्द्र हों या असुरराज रावण। यदि वे अहंकार और आतंक से लोक को आकुलकरेंगे तो राम-कोप से बच नहीं पायेंगे। सीता का अपहरण करेंगे तो सीता रूपी प्रजा की आह से जलकर खाक हो जायेगी उनकी स्वर्णमयी लंका – शीत निशा मे ंकोमल वन की तरह। मंदोदरी तीखे शब्दों में सचाई समझाती हुई रावण से कहती है –
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।। - सुंदरकांड 36/4
मंदोदरी न मंद मति है न भीरु। उसकी सुमति दूर तक साफ-साफ देख रही है – द्वार आये खतरे को। जब सेसीता लंका लाई गई तब से अपशकुन एक के बाद एक आकर आने वाले अनिष्ट की सूचना दे रहे हैं। उसका विवेक मानता है कि सीता यद्यपि सर्वश्रेयस्करी है – सर्वमंगला है, परन्तु श्रेयस और शांति को कोई बलात अपने अधिकार में करना चाहेगा तो वह श्रेयस उसके लिए अमंगलकारी बन जायेगा। शांति अशांति बन जायेगी। मंगला लक्ष्मी जब चौर्य, छीन-झपट और गलत तरीके से अर्जित की जाती है तो वह अर्जनकर्ता के लिए अशांति और आपदा बन जाती है, इसलिए मंदोदरी सीता को लंका रूपी कमल वन के लिए शीत निशा समझती है – कमल वन को जला सी देती है। शीतल होकर भी ताप देती है। लंका का जलना स्पष्ट प्रमाण है।
सीता खोज के बहुत सारे आशय हैं। निर्मल मति से सोचें तो इस खोज के बहाने ढेर सारे संदेश राम और उनके सेवक, सखा, सहायक संसार को देना चाहते हैं, क्योंकि अवतार के कार्य मात्र दुष्टों कादमन या वध और सज्जनों का रक्षण ही नहीं होता। तरह-तरह की लीलाओं के द्वारा मर्त्यों को शिक्षा देना, धर्माचरण का संस्कार देना अवतार के विशद् प्रयोजन होते हैं –
मर्त्यावतारः खलु मर्त्य शिक्षो।
रक्षोवधायैव व केवलं विभोः।। - पुराण विमर्श पृ. 165
जरा विचार किजिए कि -
“तिहुंपुर नारदादि जसु गैहहिं”
अर्थात् सीता को जब भगवान राम लंका से वापस ले जाएंगे, तो इसमें राम की कौन-सी यशगाथा निहित होगी कि तीनों लोक गायेगा ? यह लांक्षण गाथा क्या गाने योग्य है ? क्या राम-सीता इससे मिले लोकापवाद से जिंदगी भर तपते नहीं रहे ? सीता तो पाताल में ही समा गई। फिर तुलसी ने ऐसा क्यों लिखा, जबकि उनकी कलम में स्खलन का अवसर कम ही होता है। मेरे वीचार से सीता की वापसी से समस्त आसुरी शक्ति का शमन, शांति और व्यवस्था की स्थापना और लोकरंजन का साध्य सधने वाला है। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से निजात मिलने की संभावना है – राम राज्य के द्वारा। महि भार उतारने और देवों को भी भयमुक्त करने के लिए राम अवतरित जो रुए थे। इन आशयों का संकेत स्वयं रावण को दी गई सलाह में है।
गो द्विज धेनु देवहितकारी। कृपासिंधु मानुष तनु धारी।।
जनरंजन भंजन खलब्राता। बेद धर्मरच्छक सुनु भ्राता।।
- सुंदरकांड 39
यदि सीता का पता लागाना ही राम काज होता, तो हनुमान सीता से मिलकर लौट आते। रावण के दरबार में जाकर उसे विनम्र और विवेकमय सिखावन नहीं देते। वे उसे सर्वनाशी अहंकार और सर्वग्रसी मोह से बचाकर युद्ध में निर्दोष जनता का खून बहाने से रोकना चाहते थे। उन्होंने जाते ही उसे चुनौती नहीं दी, न खरी-खोटी सुनाई। वे रुद्रावतार थे और रावण रूद्र भक्त, अतः वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्त को आपदा से बचाना चाहते थे –
मोह मूल बहु सूल प्रद त्यागहुँ तम अभिमान।
भजहुँ राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।
- सुंदरकांड 23
साफ है कि रामकाज जीव के बाहर-भीतर की सफाई है। अहंकार और मोह-लोभ, जो बढ़िया से बढ़िया व्यक्ति को पतन का पात्र बना देतेहैं, अच्छे कार्यों पर पानी फेर देते हैं, उनको दूर करना और सुर दुर्लभ मानव जीवन को कृतार्थ करना रामकाज के वृहत् आशय हैं। रावण महाज्ञानी और कुलीन होकर भी अपने दुर्गुणों के कारण नष्ट हुआ। वह तो राक्षस था या अपने कृत्य से असुर बन गया किंतु नारद तो मुनि थे। वे भी साधना के अहंकार और मोह में फँसकर मुनि से वानर बन गए – विरूप हो गए, इसलिए तुलसी काकभुशुंडि के माध्यम से मानस रोग और उसके निदान का बखान करते हैं। और यह भी रामकाज से असंदर्भित नहीं है। नर वानर न बन जाये, यह भी रामकाज का उद्देश्य है।
रामकाज के विशद् संदर्भों की आख्या करते हुए पंडित रामकिंकर उपाध्याय कहते हैं कि “वेदान्तियों की दृष्टि में सीता शांति हैं, भक्तों की दृष्टि में वे भक्ति हैं, कर्मयोगी की दृष्टि में वे शक्ति हैं और तुलसीदास जैसे अपने आप को दीन मानने वालों की दृष्टि में वे माँ हैं। ... सीता के खोजने का मतलब है शांतिका खो जाना, भक्ति का खो जाना, शक्ति का खो जाना, माँ का खो जाना।”
– पंडित रामकिंकर उपाध्याय श्री हनुमत चरित्र, पृ. 124
स्पष्ट है कि इन सब की खोज और उपलब्धि रामकाज और फलश्रुति हैं। ये सारे जीवन के संग्राह्य संदर्भ हैं। इनके बिना सब कुछ व्यर्थ है। आप भी सोचिये जीवन में सब कुछ हो, पर शांति न हो – आधुनिक समृद्ध आदमी की तरह तो समृद्धि कैसी ? अशांत को सुख कहाँ ? केवल भागमभाग हो, तनाव हो, लगावरहित यांत्रिक जिंदगी हो, तो सुख कैसा ? प्रतीति न हो तो अकूत सम्पदा के स्वामी से मिलकर देख लीजिए।इसी तरह भक्तिभाव रहित जिंदगी दरिद्र मानी जानी चाहिए
राम विमुख प्रभुताई।
जाई रही पाई बिनु पाई।।
- सुंदरकांड 23
यहाँ भक्ति का तात्पर्य केवल राम या ईश्वर भक्ति से नहीं है। न नाम रटन से है, न पूजा पाठ से, अपितु उन मूल्यों के प्रति आदर-आचरण से है, जिनके राम प्रतीक हैं। राम को जो-जो प्रिय हैं – प्रेम, सत्य,शील, मर्यादा, सदाचार,परोपकार आदि की ओर उन्मुखता होने से ही रामभक्ति है। भक्ति प्रेम और श्रद्धा का समवाय है। जीवन में प्रेम न हो, श्रद्धा न हो, राग-रस न हो तो जीवन मात्र साँसों का मेला बन जाता है। इसी श्रद्धा-प्रेम के अभाव में दुर्योधन कृष्ण की नारायणी सेना तो पा गया, पर वह उन्हें नहीं पा सका। परिणामस्वरूप वह विजयश्री से वंचित रहा। स्वयं नष्ट हुआ और वह तत्कालीन राज-समाज के लिए अभिशाप बन गया।
शक्ति का आभाव व्यक्ति को शव रूप में बदल देता है। माँ की ममता के अभाव में मानुष अधूरा, अतृप्त, असंतुलित बन कर रह जाताहै। अतएव सीता की खोज इन सब जीवन मूल्य रत्नों की खोज है, प्राप्ति का अनुष्ठान है। समूचापन की चाहत है। रामायण या मानस की कथा का सार दो पंक्तियों में बताया जाता है कि राम कथा का आरंभ राम वन गमन से होता है। राम स्वर्ण मृग के पीछे भागते हैं। सीता का रहण हुआ। जटायु रक्षा करते मारे गए। सुग्रीव से मैत्री हुई। बालि मारा गया। हनुमान सागर पार गए। लंका जली। कुम्भकर्ण और रावण का वध हुआ। यही रामायण है।
आदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं काञ्चनं।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव सम्भाषणं।।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लंका पूरी दाहनं
पश्चात् रावण-कुम्भकर्ण हननं एतदि रामायण्।।
जरा ठहरकर सोचिये कि क्या यही है ? क्या इतनी-सी ही कथा वस्तु रामायण के चौबीस हजार श्लोकों में निबद्ध है ? क्या रामकथा का यही अभिप्राय है ? फिर तुलसी का लक्ष्य रामकथा को दुहराना भर है ? राम भक्ति भर प्रकट करना है ? क्या नानापुराण निगमागम और अन्यत के ये अन्यतम हैं ? नहीं, मात्र इतने ही तात्पर्य रामायण के होते तो न यह आदि काव्य अमर होता, न रामकथा को लेकर मानस जैसे बहुत सारे राम काव्य लिखे जाते। न राम काव्य परम्परा का विकास होता न राम अब तक पूजे जाते। अब तक काल के गाल में समा गये होते। देश की सीमा में सिमटकर महज पोथी पुराण की जिल्दों में लिपटकर रह गये होते। परन्तु अपने काज और चरित के द्वारा राम देश और कालजयी बन गये। विश्वव्यापी बनी रामकथा आज भी सूरीनाम, मॉरीशस, मलाया आदि देशों में रामकाज सम्पादित कर रही है।
दरअसल पूरी रामकथा के भीतर रामकाज समाहित है – माटी के अंदर की गंध की तरह, पवन के भीतर सुगंध की भाँति। सारी घटनाएँ, सारे पात्र और समस्त प्रसंग रामकाज सूत्र से आबद्ध हैं। सारे तागों को बटोरकर रामकाज पूरी खूँटे से बाँध दिया गया है। सीता का अन्वेषण तो एक तात्कालिक महत्वपूर्ण काज था। नहीं तो हनुमान के बल-बुद्धि की परीक्षा लेने गई नाग-माता सुरसा उन्हें यह आशीर्वाद नहीं देती कि तुम सारे राम काज को सम्पन्न करोगे –
रामकाज सबु करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।
- सुंदरकांड 2
चलिए एक श्लोकी रामायण पर ही विचार करें। तपोवन गमन से आरंभ राम जीवन-यात्रा विभिन्न पड़ावों को पार करती है और अंत में राज्य की स्थापना के साथ पूर्ण विराम लेती है। इसके एक-एक पड़ाव पर अटक कर यदि राम काज का आकलन करें तो तुलसी जैसे सामर्थ्यवान कवि अब भी अनेक रामचरित मानस, उप मानस लिख सकते हैं। राम के सम्पूर्ण चरित – आचरण ही राम काज का पर्याय हैं। यदि सीता-खोज ही प्रमुख घटना या कार्य होता तो मानस का शीर्षक रामकाज रामायण कदाचित रखा जाता। राम का प्रतिद्वन्द्वी रावण स्वयं भीतर से स्वीकारता है कि शायद सुर काज साधने और पृथ्वी के भार को उतारने के लिए राम अवतरित हुए हैं। मुझे भी राक्षसवृत्ति से मुक्ति मिलेगी। इस तामस शरीर से भजन-भाव तो होने से रहा –
“सुर रंजन भंजन महिमारा।”
“होइहि भजन न तामस देहा।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।”
– अरण्य कांड 3/23/3,5
वास्तव में लोकाराधन राम-लीला का लक्ष्य था।लोक उनकी आराधना करता है और वे लोक की। अतिशय प्रिय जानकी को भी लोकाराधन के लिए उन्होंने भेंट चढ़ा दिया – “आराधनाय हि लोकस्य मुञ्चतो नास्ति में व्यथा” – (उत्तर रामचरित – भवभूति)। देव और मनुज का पारस्परिक भावन भाव विश्व को महाभाव से भर देता है – “परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यतः” – गीता। जनाराधन के लिए जनार्दन ने सेवा, त्याग, प्रेम, दया और मर्यादा के जो-जो प्रतिमान स्थापित किए वे आज भी लोक में अमिट हैं। उनकी लीला से लोक संस्कारित है। भारतीय लोग चाहे वे किसी धर्म के उपासक हों, घर-घर के बड़े भाई राम और छोटे लखनलाल होते हैं। हम और आप यदि बड़े होकर जन्मे हैं तो थोड़ा बहुत ही सही, जरूर इस भाव को जी रहे होंगे अथवा दूसरे को जीते देख रहे होंगे, क्यों राम हममें रमे हैं और हम राम में रमते रहेंगे। “लोग कहते हैं कि हनुमान राम की शक्ति से सब कुछ करते हैं। और राम मेरी दृष्टि में लोक की शक्ति करते हैं।”
– डॉ. युगेश्वर – तुलसी का प्रतिपक्ष, पृष्ठ 53
राम की तरुणाई ने विश्वामित्र को निर्भय किया, जनक परिताप को मेटा, ऋषि-मुनियों को भयविहीन बनाते हुए जन-जन को अभयता दी। स्वतंत्रता भयमुक्तता का नाम है। जो स्वाधीनता भयमोचिनि होती है वह अर्थवती होती है। जो आजादी आतंक, अराजकता, अन्याय, अभाव, व्याधि के भय से मुक्ति नहीं दिला पाती, वह कागजी होती है। जिस शासन तंत्र में मंत्रणा देने वाले सचिव-सयाने सही सलाह देने में खौफ खाते हों, उचित कहने लिखने वाले के लिए सिर कलम कर दिया जाने का फतवा दिया जाता हो, देश का पहरेदार चोर और नेतृत्व निष्ठाहीन हो, उस देश की स्वतंत्रता बेमानी हो जाती है। और तो और घर की मंदोदरी भी मात्र भोग की वस्तु समझी जाय और उचित कहने के कारण सगा भाई लतियाया जाय – भयग्रस्त हो, उस लंका का स्वर्ण सुख किस काम का? वह तो डराता है, आकुल ही करता है – विभीषण से पूछ लीजिए –
“सुनहु पवन सुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्ही मँह जीभ बिचारी।।
अब मैं कुशल मिटे भय भारे।
देखि रामपद कमल तुम्हारे।।”
राम का पद सुग्रीव को भी भयमुक्त करता हुआ आया था ौर लंका विजय के बाद उसने सब को भयमुक्तताके लिए आश्वस्त किया –
“निज निज गृह अब तुम सब जाहू।
सुमिरेहु मोही डरपहु जनि काहू।।”
राम के सुमिरन में सामंती अहंकार की बात नहीं है। नीति, न्याय, सुव्यवस्था, शांति की बात है।
तात्पर्य यह कि राम काज एक व्यापक अवधारणा है। पूरी रामायण रामकाज की चौहद्दी है। राम और उनके सखा-सहाय, सेवक के सारे मर्यादित कार्य के विविध रुप हैं और प्रतिपल प्रतिपक्षी पात्रों के अकार्य में राम कार्य के पृष्ठपोषक हैं – प्रकाश के पृष्ठपोषक अंधकार की भाँति, नायक के गुणों के प्रकाश, खलनायक की तरह, अच्छाइयों की महत्ता बढ़ाने वाली बुराइयों के समान। सियाराममय जगत के सारे हित साधक प्रयोजन और लोकमंगल राम के काज हैं। वे अनन्त की तरह अनन्त हैं, इसलिए हनुमानजी को राम काज से आज तक विश्राम नहीं मिल पाता है, न मिल पायेगा और न वे ऐसा कभी चाहेंगे।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस (सृजनगाथा)
4. आषाढ़स्य प्रथम दिवसे
आषाढ़ का स्नेहगाढ़ प्रधम दिवस हो अथवा एक दूसरे में समा जाने वाला प्रथम माधवी क्षण, प्रथम तो प्रथम ही होता है। औव्वल। लाजवाब। अछूता। अनाघात। अपरुब। चू लेने वाली। स्मृति में छप जाने वाली। बेजोड़ घड़ी। सबके जीवन में ऐसी घड़ी आती है, पर इसे तरबदार और तड़पदार लोग पकड़ पाते हैं। रामगिरी के यक्ष को ऐसी ही घड़ी ने पकड़ लिया था।
आषाढ़ का पहला दिन था। रामगिरी की चोटियों पर बादल उतर आये थे – संतप्त को तृप्त करने, पोर-पोर भिगोने, तर करने। यक्ष की घनीभूत पीड़ा को जगाने, साथ-साथ बरसने के लिए याद दिलाने। शिखर-शिखर पर मंद-मंद पवन तार पर तैरते बादलों को देखकर विरह दग्ध यक्ष का मन विकल हो उथा था और चित्त चंचल। बदली को घिय आये देखकर आबाल वृद्ध अपने-अपने स्तर से खुशी का इज़हार करने लगते हैं। धरती बूँद पाते ही उच्छवसित हो उठती है। अपनी सोंधी उच्छवास को रोक नहीं पाती। दादुर डहकने लगते हैं और मेंढक चहकने। प्रीति का इज़हार करने लगते हैं। सुखी जीव और जड़ जीव का जब यह हाल होता है तो विरही जन का तो कहना ही क्या ? उसके लिए सदा वसन्त बना रहता है –
मेघालोके भवति सुखिनोsप्यन्यथावृत्तिचेतः।
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूर संस्थे ।।
- मेघदूत, श्लोक 3
मेघ दर्शन से सुखी लोगों का भी चित्त चंचल हो जाता है तो प्रेमि को प्रिया की दूरी सतायेगी ही।
हो सकता है विरह-विरह की बात आधुनिक युग को बेमानी लगे। जो युग मनुष्य को माल और मशीन बनाने में लगा हो, हाँफते ही रहना जिसकी नियति बन चुकी हो, अनापसनाप तृष्णा ही जिसका मकसद हो, उसके लिए क्या आषाढ़ का पहला दिन और क्या सावन की रिमझिम ? क्या वर्षा, क्या वसन्त ? सब बेमतलब।मतलबी के लिए मतलब की चीज ही मतलब की होती है, बाकी सब बेमायने की।
दरअसल इन्द्रियों में श्रेष्ठ मन ही जिसका मर गया हो, महघट बन गया हो, संवेदनाशून्य हो चुका हो,उसे आषाढ़ का प्रथम दिवस तो दूर, जगत की कोई गति नहीं व्यापती। ब्दल बरस-बरस के रीत जाये, रीते लोग रीझ नहीं पाते, भी ंग नहीं पाते। कोयल बोल-बोल कर थक जाये, सिर पटक ले, पर सब बेमतलब। लोभी के सामने उदारता का बखान भैंस के आगे बीन बजाना है और औंधे घड़े पर रिमझिम की बौछार जैसी है। रीझ-बूझ रहित ठूँठ और बिरस लोगों के लिए आषाढ़ का प्रथम दिवस क्या और क्या फागुन की पूर्णिमा ! तीसों दिवस और बारहो महीने उनके लिए एक जैसे होते हैं। रोजमर्रा का अंग। न मन में तरंग न अंग में उमंग। परन्तु वियोगी यक्ष का पोर-पोर प्रेम की अंतर तरंग से तरंगित था, पगा था। विरह रस में डूबा था। रीझ रिस रही थी। तभी तो वह प्रिया के प्रथम प्रेम को पाकर इतना बेसुध हो गयाथा कि उसे अपने स्वामी कुबेर को पूजा पुष्प पहुँचाने की सुध नहीं रही और हृदयहीन स्वामी के आदेश का वह दंड भुगत रहा था रामगिरी पर्वत पर। चारों ओर पहाड़ और बीच में पछाड़ खाता विरही यक्ष। पर्वत की तरह तपता मन आषाढ़ के पहले बादल को देखकर उमड़ पड़ा। उसके भीतर मेघ उतर आया। उसकी घनीभूत पीड़ा बरसने के लिए आतुर हो उठी। आठ मास तक रुका अन्तर्वाष्प आत्मीय मेघ को देखते ही सहस्रधार हो उठा। मेघ बनकर दूत बन गया।
निश्चय ही पहला कवि वियोगी रहा होगा। तभी तो क्रौंच मिथुन के वियोग जनित करुणा सेविगलित होकर उसका पहला छंद फूटा था जो आदि काव्य का स्रोत बन गया।
वस्तुतः वियोग से संयोग पुष्ट होता है। राग गाढ़ होता है। श्रृंगार रस राज बनता है। प्रियका अभाव ही वियोग है।अभाव ही वस्तु या व्यक्ति के असली भाव की महत्ता का बोध कराता है तभी जानकी हरण के समय राम इतने विकल हो गये थे िक वाल्मीकि रामायणभींग गई।उत्तर चरित में ही राम ने अपने चरित से असली साक्षात्कार कियाथा। पत्थरो को रोते देखा था। करुणा द्रवित होते देखा था।जब राम का यह हाल था तो रामगिरी के यक्ष कातो बुरा हाल होना ही था। आषाढ़ का पहला बादल, वियोग पर पहला प्रहार। दुर्बल पर दो आषाढ़ है। तड़प उठा विरही मन। इस तड़ में शामिल हो गयाथा कालिदास का बेहद संवेदनशील समूह मन। यक्ष मेघ को संदेश देता रहा और कालिदास का की कमल तार में तार मिलाकर पाती ‘मेघदूत’ रचती रही। यक्ष के बहाने अपने अन्तर से साक्षाात्कार करती-कराती रही। पात्र और घटनाएँ अपने को ही खोलने के वास्तविक बहाने होते हैं। जिस रावण को तुलसीदास खलनायक के रूप में चित्रित करते हैं उसे माइकेल मधुसूदन दत्त नायकके रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह अपने भीतर को खोलने का खूबसूरत बहाना है।
वैसे तो सैकड़ों-हजारों दिन जीवन में दाखिल होते हैं और बिना कुछ खास दर्ज कराये गुज़र जाते हैं। छाप नहीं छोड़ पाते। गिनती में नहीं आते। अनामिका नहीं बन पाते। रोजनामचा बनकरबीत जातेहैं, परन्तु कुछ पल-धिन ऐसे आतेहैं जो देह प्राण से गुज़रकर गीत बन जाते हैं, ‘मेघदूत’ बन जाते हैं और बन जाते हैं इतिहास। ‘मेघदूत’ के छंद कुछ ऐसे ही हैं। प्रथम दिवस औस वयस के वाष्प भी भींगे क्षणों का छंद। मंद-मंद पवन संग तैरने वाले मेघों का मन्दाक्रान्ता छंद। मधुर मिलन का क्षण –
मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां
वामश्चायं नदति मुर चातकस्ते सगन्धः।
गर्भाधानक्षण परियान्नूमाबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयन सुभगं खे भवन्तं बलाकाः।।
- मेघदूतम्
प्रधम दिवस की बाते, मुलाकातें और रातें सभी प्रधम होती हैं – सर्वोत्तम।यह विष्णु-दिवस जो ठहरा। विष्णुके शयन उत्थान की एकादशी तिथि – ‘प्रथमो प्रख्यातो विष्णु दिवसः, प्रथमे एकादशी इत्यर्थः - मल्लीनाथ’। उत्सवी दिवस। यक्ष का पक्ष जाने भी दें और पुरुषोत्तम राम को ही देखें। जब पहली बार वे जनक वाटिका में गये थे और जानकी उनके नयन की अतिथि बनी थी, चक्षु राग के सहारे एक दूसरे के भीतर समा गये थे, तो वह प्रथम दिवस अविस्मरणीय बन गया था। मर्यादा भू ल गये थे। बार-बार गर्दन घुमा-घुमा कर ताकने लगे थे। अकबका गये थे। नयन के मीठे मसागम से रघुवंशी मनडोल उठा था –
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।
सिय मुख ससि भय नयन चकोरा।।
देखि सीय सोभा सुख पावा।
हृदय सराहत बचनु न आवा।।
यह प्रथम वाटिका राग ऐसा महाराग बन गया, अविस्मरणीय क्षण बन गया कि निराला के राम का मन युद्ध भूमि में भी हताशा से बचने के लिए स्मरण करता है –
ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत
जाकी पृथ्वी तनया कुमारिका-छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का-प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
ज्योति प्रपात स्वर्गीय-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय
जानकी-नयन-कमनीयप्रथमकम्पन तुरीय
– राम की शक्ति पूजा
यक्ष बेचारा तो युद्ध भूमि में नहीं था। वह वनवास में था। विरह भूमि में। वह आषाढ़ केप्रथम दिवसीय मेघमाला को देखते ही आकुल हो उछा था। प्रिया के प्रथम मिलन से उठे प्रथमतुरीय कम्पन की सम्ृति ने उसे हिला दिया था। चेतनाचेतनके विवेक को बुला दिया था और स्मृति धूम-ज्योति-सलिल सन्निपात मेघ को दूत बनाने के लिए विवश कर गई थी। यह क्षण ही विवशता का होता है, विवेक का नहीं। आइए उसकीविवशता से आत्मीयता जो़ड़ें और आषाढ़ की प्रथम दिवसीय साझा अनुभूति में हम सब अपने-अपने प्रथम दिवस का स्मरण करें।
ललित निबंध यह अभिधा या विधा समीक्षकों के बीच विवाद का विषय रहा हा – व्यंग्य विधा की तरह। बहरबाल इस विवादक से बचते हुए ललित निबंधों के बीच से उभरे मूल्यों और उनकी बनावट-बुनावट के संबंध में एक संवाद स्थापित कनरे का यह एक विनम्र प्रयास है। पहले भाषा बनती है। उसका बहुशः प्रयोग होता है। बाद में उसका व्याकरण बनता है। उसका मानक रूप बनता है। ठीक इसी तरह पहले रचनाएँ जन्म लेदी हैं, उनकी प्रवृत्तियों व शैली-शिल्पों को देखकर ही उनका स्थापत्य या शास्त्र बनता है, जो हमेशा विकासशील रहता है – सभ्यता संस्कृति की तरह। ललित निबंध को इसी परिप्रेक्ष्य में तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया – अन्य विधाओं के सदृश। परिभाषाएँ कम पड़ती गईं तो ऐसा है, वैसा नहीं, नेति नेति कहकर छोड़ दिया जाता है – ब्रह्म की तरह।
व्यक्ति व्यंजक निबंध, रम्य निबंध, आत्मव्यंजक निबंध, ललित निबंध, पर्सनल एस्से, अदि अदि नामों से प्रचलित यह साहितय रूप अपने स्वरूप का संकेत दे देता है। लल् धातु से क्त प्रत्य और इट् आगम से बना ललित शब्द इस विधा का नाम है, मूल्य और विधान भी, जैसे आदरणीय क्षेमेन्द्र ने औचित्य को स्थिर काव्य का जीवन कहा है – औचित्यं स्थिर काव्यस्य जीवन, वैसे ही लालित्य को इस विधा का जीवन कहा जा सकता है – लालित्यं ललित निबंधस्य जीवनम् (इति से मतिः) ऐसा मेरा मानना है। इस विधा के पुरोधा आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ललित शब्द की बड़ी व्यापक व्याख्या की है। मतलब य कि इन रचनाओं के भीतर चाहे संस्कृति गान हो, लोक गाथा हो, भावना-कल्पना की उड़ान हो, विचार-चिंतन हो, आत्मकथा हो, बीती व्यथा हो, यथार्थ हो, व्यंग्य – सब कुछ ल्लित्य से लिपटे होते हैं, मधुमिश्रित होते हैं।
कोश के अनुसार – “अनाचार्योपदिष्टं स्याल्ललितम्”, अर्थात जो आचार्यों या उनके शास्त्रों से उपदिष्ट न हो, हर प्रकार की जकड़बंदी से मुक्त हो, ऐसी बनावट और बुनावट वाली रचना या कला ललित है। साहित्य दर्पण के अनुसार जिस रचना के अंग-विन्यास में सुकुमारता हो, वह ललित है – “सुकुमारतयाङगानाम विन्यासो ललितं भवेत्।” इस परिभाषा का प्रयोग देखना हो तो आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’, ‘अशोक के फूल’ तथा अन्य प्रतिष्ठित निबंधकारों की रचनाएँ पढ़ सकते हैं। नाखून जैसी नाचीज़ को भी चीज़ बना देना, पाठ्य बना देना, अशोक के फूल जैसे निर्गन्ध फूलों को भी स्मृति गंध का विषय बना देना इस लालित्य का प्रताप है। समस्त साहित्य लालित्य या रमणीयता का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप है। “रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्” यह काव्य लक्षण इसी तथ्य का संकेत है।
ललित निबंध विधा अविचारित रमणीय का रूप है, इसलिए वह रम्य निबंध भी कहा जाता है। अविचारित रमणीयता का आशय रहाँ यह कतई नहीं है कि इसमें विचार को अनर्गल समझा जाता है। तर्क और यथार्थ से यहाँ परहेज किया जाता है। यहाँ यथार्थ से पलायन नहीं है। रम्य पूर में सब स्वीकार है। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, परसाई जीने के ललित निबंधों की चर्चा करते हुए ठीक ही कहा है कि “परसाई के गद्य की पठनीयता इसी वृहत्तर लालित्य की धारणा से प्रभावित है जिसमें व्यंग्य-विनोद, क्रोध, तनाव सबके लिए जगह है। परसाई के ललित निबंधों में व्यक्ति और आत्म का जो स्पर्श है, वह निरंतर गहरी सामाजिकता में रचा-बसा है।” – ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 25
जाहिर है अविचारित रमणीय का आशय अनर्गल या निरर्थक रमणीयता से नहीं है। “बुध विश्राम सकलजनरंजनि” रमणीयता ही काम्य है। इस काम्य उद्देश्य को अनदेखा कर अथवा समझने की शिद्दत न उठाकर कुछ समीक्षक इसके स्थापत्य पर ‘नास्टेल्जिया’ या उन्मानद का पंक प्रक्षेप करते पाये जाते हैं। अतीत जीविता का आरोप लगाया जाता है। स्मृति का प्रलाप इसे मानने की भ्राँति पाली जाती है। मानने और पालने की अपनी-अपनी रुचि है, दृष्टि है, कोई क्या कर सकता है। ललित निबंध की प्रासंगिकता पर ऊँगली उठाते हुए श्री राजेन्द्र यादव का कहना है कि “हिन्दी में ललित निबंध की मूल चेतना नास्टेल्जिया है।... छूटे हुए अतीत को हाय हाय भाव से याद करना, चूँकि यहाँ रचनाकार अतीत में स्थित होता है, इसलिए वर्तमान को भी रुमानीया धिक्कार भाव से देखता है।”
– ललित निबंध; सं. अष्टभुजा शुक्ल, पृष्ठ 31
यथार्थवादियों का ऐसा अभियोग वस्तुतः भ्राँति मात्र है या नकार की प्रवृत्ति की सूचना। ललित निबंधों का सच इसके विपरीत साक्ष्य देता है। वस्तुतः यह विधा न वर्तमान या यथार्थ से पलायन को उकसाती है न अतीत के प्रति अतिरिक्त मोह को प्रश्रय देती है। अतिरिक्त मोह किसी भी विधा के लिएदोष है – अनोचित्य दोष की तरह। यथार्थ से साक्षात्कार सभी रचनाकार अपने-अपने संवेदन तंत्र से करते हैं और उसे अपने-अपने ढंग से व्यक्त करते हैं। प्रोफेसर रमेशचन्द्र शाह का मन्तव्य है कि “यथार्थ आत्मतः आविष्कृत करते चलने की प्रक्रिया साहित्य में गहरी मौलिकता को जन्म देती है। निबंध की समस्या आत्म को आत्म से और आत्मसे ही परात्म और अनात्म को पकड़ने की है।”
– शैतान के बहाने, पृष्ठ 4 भूमिका
बात साफ है, न अतीतजीवी होना गुण है न निखालिस वर्तमान में जीना। अपने समय से साक्षात्कार करने वाले प्रभाष जोशी ने कहा है “यथार्थवादी वर्तमानवादी होते हैं। वर्तमान में सिर्फ पशु ही जीते हैं, क्योंकि उसका कोई अतीत नहीं होता।... आदमी आदमी हुआ तो इसलिए कि उसके स्मृति मिली और वह भविष्य के सपने देखने लगा। वर्तमान यथार्थ हो सकता है, परन्तु यथार्थ सत्य नहीं हो सकता। सत्य को यथार्थ केआर-पार देखकर ही आप पा सकते हैं।” – जनसत्ता में छपे लेख से
दरअसल अतीत से कटे लोग कटी पतंग की तरह होते हैं। छने हुए ्तीत या परम्परा का स्मरण या गान गौरव गान है। भूमि वंदना का विधान है। संस्कृति का अभइनंदन है। इसी गान के द्वारा क्या भारतेन्दु और मैथिलीशरण गुप्त ने सुप्त भारतीयता को जगाने का प्रयास अतीत गान द्वारा नहीं किया था। क्या गांधी, आज़ाद, भगत सिंह, राणाप्रताप,शिवाजी जैसों की याद अतीत स्मरण नहीं है ? क्यायह स्मरण राष्ट्रीयता-जागरण काविधान-सा नहीं है ? हमारी परम्परा ‘स्मृति’ को देवी के रूप में स्मरण करती है,जो सभी प्राणियों के भीतर व्यक्त-अव्यक्त रूप से विद्यमान है – कदाचित इसलिए नमन करती है। यह देवी हमें वह ताकत देती है। क्रूर वर्तमान की मार सहने की शक्ति देती है। टूटने से बचाती है। भारतीयसोच के बारे में एग्स विल्सन ने ठीक ही कहा है कि “भारत एक भौगेलिक वास्तविकता से कहीं अधिक परम्परा तथा एक बौद्धिक आध्यात्मिक ढाँचा है।” ललित निबंध भौतिक वास्तविकता का यथोचित आदर करता है, पर अपनी शर्त पर। वह भौगोलिक या भौतिक वास्तविकता से अधिक भारत की आत्मा जिन परम्पराओं, आध्यात्मिकता और संस्कृति में निवास करती है उनकी आराधना करता है। एक घड़ी-आधी घड़ी की नास्टेल्जिया या अतीत की आह-ओह भाव से भरा गान यदि जीवन को, नहला जाये तो क्या बुरा है ? प्रसाद जी ने तो मधुआ के हवाले से कह ही दिया है कि ‘मौज-मस्ती की एक घड़ी भी ज्यादा सार्थक होती है एक लम्बी निरर्थक जिंदगी से।’ क्या यथार्थावादी भीतर से रुमानी तबियत के नहीं होते ? फिर रुमान की वास्तविकता से हाय-तौबा क्यों। उन्हें फ्रायड के पास जाकर सच से पिरचित होना चाहिए। फिर क्या यथार्थ बोध केवल करुआ, कषैला, खट्टा, तीता का ही नाम है, उनमें मधु भाव शामिल नहीं ? जीवन का यथार्थ सब का मिश्रण है – मौसम की तरह, आम की खटमिट्ठी की तरह, पनहा (प्रपाषक रस) की तरह। राम और श्याम की लीलाओं में मारण, मोहन, धारण-निवारण – सब कुछ साझा है।
किसी एक लेखक या उसकी या और की कुछेक रचनाओं को पढ़कर किसी विधा के प्रति धारणा बना लेना भ्राँति को आमंत्रित करना है। प्रोफेसर रमेश चन्द्र शाह जैसे स्थापित निबंधकार और समर्थ समीक्षक जब मुझ जैसे नवसिखुये निबंध लेखक की पहली कृति पर ऐसा अभिमत प्रकट करते हैं तो मेरे भीतर का निबंधकार आश्वस्ति से तृप्त होता ही है, ललित निबंध का स्थापत्य भी रेखांकित हो जाता है। बड़ी विनम्रता और संकोच के साथ आप सब की कृति ‘स्मृति गंध’ पर की डॉ. शाह की टिप्पणी मैं प्रस्तुत करना चाहता हूँ – इस क्षमायाचना के साथ कि आप इसे आत्मप्रशंसा न समझेंगे –
निबंध – विशेषकर वह निबंध जो ‘पर्सनल एस्से’ के नाम से जाना जाता रहा – एक विलक्षण विधा है और हिन्दी खड़ी बोली ने उसे आरंभ से ही बड़ी ललक और सहज सांस्कृतिक आत्मविश्वास केसाथ अपनाया, न केवल अपनाया, बल्कि उसे एक विशिष्ठ भारतीय रंग और स्वर में भी ढाला। यहाँ उसने ललित निबंध के रूप में अपनी अलग ही पहचान स्थापित की।
शोभाकांत झा को यदि यह विधा रास आई है तो इसका कारण यही है कि उनके स्वभाव तथा संस्कार में वे आधारभूत अर्हताएँ विद्यमान हैं, जिनके बिना कोई भी लेखक इसविधा में प्रवेश करने को प्रेरित नहीं हो सकता। इन अर्हताओं में जहाँ एक ओर मिथिला की रसमयी आँचलिकता से अभिषिक्त उनकी रसात्मक संवेदना की सुस्पष्ट भूमिका कार्यरत देखी जा सकती है, वहीं भारत के हृदय की कुंजी स्वरुप हिन्दी और उसकेसाहित्य के अखिल भारतीय स्वरूप का परिश्रमपूर्वक अर्जित बोध भी (शोभाकांत का सोचने और महसूस करने का अपना स्वाधीन ढंग है। प्रचलित साहित्यिक रुढि़यों (नई-पुरानी) की जकड़बंदी से वे ग्रस्त नहीं, यह उनके लेखों में साफ देखा जा सकता है। इसी से जहाँ एक ओर वे तुलसी के कृतित्व को लेकर वे कुछ काम की बातें कह सकते हैं, वहीं दूसरी ओर वे विद्यापति के प्रति अपनी रीझ-बूझ को पाठक के लिए नये सिरे से, नई सूझ-बूझ के साथ सार्थक और उत्तेजक बना सके हैं। यह लचीलापन-संवेदना तथा रुचि दोनों का – उनके विवेकी साहित्यिक भाव-बोध को दर्शाता है। फिर, जिस खुली संवेदना और भावप्रवणता के साथ वे साहित्य को पढ़ते हैं, उसी खुली संवेदना और सहज भावप्रवणता के साथ अपने जीवनानुभवों को भी। ‘स्मरणं त्वदीयम’ और ‘स्मति गंध’ जैसे ललित निबन्ध इस प्रतीति को बल देते हैं। महज नास्टेल्जिया से अपने को अलगा सकने वाली गुणवत्ता इन निबन्धों में दिखाई गई है। उम्मीद करनी चाहिए का आगे लेखक की साहित्यिक रीझ-बूझ तथा जीवनानुभूति का और भी एकाग्र तथा गाढ़ा मेल उसके निबंधों के जरिए प्रकट होगा।
ललित निबंध या किसी भी विधा के स्थापत्य के संबंध में बहुत कुछ कहा जा सकता है और कहा जा चुका है। कोई कहना अंतिम नहीं होता क्योंकि स्थापत्य निरंतर सृजन के कारण बदलता रहता है – नये नये वास्तुशास्त्र की तरह। ‘अदबुत अपूर्व स्वप्न’ जिससे विवेच्य विधा और आधुनिक हिन्दी गद्य का आरंभ माना जाता है। तब से लेकर आज तक इसकी निरंतरता बनी हुई है। ललित निबंधों का लेखन कम जरूर हुआ है, पर बंद नहीं। इसकी प्रासंगिकता चुकी नहीं है। आत्म को परात्म का व्यक्ति को समष्टि का पाठ्य बना देने की कला में निपुण यह विधा मरेगी नहीं – गीत काव्यकी तरह, कविता की तरह। यह कविता का गद्य विकल्प है। जरूरत है अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में “अन्य विधाओं के साथ चलने को आज ललित निबंध को नितांत वैयक्तिक हाहाकर, चिन्ता, धुर ग्राम्य प्रेम या संस्कृति के रंगीन कुहासे से बाहर आकर नए भावबोध के साथ सन्दर्भों से टकराना होगा।” – ललित निबंध; भूमिका पृष्ठ 2
अंत में आदरणीय हजारी प्रसाद द्विवेदी के मन्तव्य से बात को समेटना चाहता हूँ – “आचार, रीति-रिवाजों से लेकर धर्म, दर्शन, शिल्प सौन्दर्य तक में सर्वत्र नये सिरे से सोचने कीआवश्यकता है। कोई नैतिक मूल्य अंतिम नहीं; कोई शिल्प विधि सर्वोत्तम नहीं कही जा सकती, कोई अभिव्यक्ति पद्धति सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती।” – ललित निबंध; लेख रमेश कुंतल मेघ पृष्ठ 19
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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16. हरसिंगार
आंगन का नाम अधर पर आते ही मन ग्राम्यगंधी हो उठता। उसमें भी आंगन के कोने में उगा हरसिंगार और तर करके रख देता है। उसके ऊपर नीचे झरे-बिछे जोगिया रंगी डंठलों वाले खेत पुष्पों की सुगंध से शरदभोर पूरी तर विभोर हो उठती है। इसी भोर की तरह सराबोर मैं उसकी कलियों को चुनने लगता हूँ और मन स्मृति को।
बचपन के रचे वे पन्ने खुल जाते हैं, जिन पर धीरे-धीरे गोरी होती भोर का उतरना रचा होता। सोनहा बिहान, शबनम की मुसकान और प्रभाती गान के छंद रचे होते। बाबूजी पौ फटने से घंटाभर पहले ही प्रभु को प्रभाती सुनाने लगते थे और हम डलिया लेकर हरसिंगार की कलियाँ चुनने पहुँच जाते थे-
रामचन्द्र रघुनाय तुमरों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम मनुमानि डरौं।।
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहि हृदय धरौं।
देख आनकी बिपति परम सुख, सुनिसंपति बिना आगि जरौं।।
नाना वेष बनाय दिवस-निसि, पर बित जेही तेहि जुगति हरौं।
एकौ पल न कपहुँ अलोल चित, हित है पद-सरोज सुमिरौं।।
उन दिनों सोचहीन वय के कारण बाबूजी के इस प्रभाती गान का अर्थ नहीं लगा पाता था और इन दिनों दिवस-निशि अर्थ दौड़ में दौड़ते रहने के कारणपर-दुख देखकर सुखी और पर-सुख देख दुखी होने वाले आज के अर्थलोलुप मन में ऐसे भजन भाव समा भी कैसे सकते हैं ? इस बहुरूपिए युग को वह रुचि कहाँ कि वह रामरुप मे रम सके। हरसिंगार आगंन में नही होता तो बाबू जी के गाये इस प्रभाती की स्मृति भी शायद ही आती। महादेवी के यह पद भी क्यों याद आते-
पुलक-पुलक उर सिहर-सिहर तन
आज नयन क्यों आते भर-भर
शिथिल मधु पवन गिन-गिन मधुकण
हरसिंगार क्यों झरते-झर-झर।
पुलक का स्वाद पवन की सिहरन, स्मृति की मिठास और हरसिंगार के झरने का अहसास बचपन की उम्र को क्या मालूम। बचपन तो संग-साथ सबको सहजता से भीतर समोना जानता है, ऊभू-चूभ होना जानता है। स्वाद तो बाद की उम्र लेती है। संग-संग रीझने-खीझने, नाचने-गाने, छिपने-छिपाने, उलाहना देने और अभाव में अकुलाने से उपजी प्रीती का आस्वाद गोपियों को तब लगा जब श्याम गोकुल छोऱ गया। और श्याम को भी व्रज छूट जाने पर व्रज लीला की बेशुमार सधियो का स्वाद मेरा भी गोकुल बहुत दूर छूट गया है। दूर होने पर स्मृति और गाढी हो जाती है- प्रीति की तरह, अहसास की तरह। शहर लाख सिर पटक ले जब तक भीतर का आदमी मरा नही है, तब तक उसकी पर्याय स्मृति मर नही सकती। सिंगार का सुगंध सिरा नही सकती, कोयलिया की बोली भुला नही सकती।
रही बात हरसिंगार क्यों झरता है, तो जो खिलता है क्या झरना उसकी नियति है। फूल अपनी सुगंध फैलाकर और अच्छे अपनी अच्छाई को आचरण देकर दूसरो को खिलने का अवसर देते है। समय रहते ही हट जाते है- जमे नही रहते नेताओ की तरह। धक्का खाकर बाहर होने की आदत अच्छी नही होती। हरसिंगार देवाधि देव महादेव का श्रृंगार है, वह उनका श्रृंगार बनने, उनके संग पाकर कृतार्थ होने, औरों को कृतार्थ करने की मशां से झर जाता है। रुपगुण के फीका पडने से पहले ही वृन्त से हट जाता है- सगे-सनेहियों को कृतार्थ होने का, अपने होने को प्रमाणित करने का मौका देकर सूखने पर तो सभी झर जाते है दयनीय दया का पात्र बनने से पहले ही विकसित हो जाना बेहतर है। रुप-राध इतराने की वस्तु नही, रमने-रमाणे की चीज है, यह कहते हुए हरसिंगार यह भी झरकर कहना चाहता है कि नश्वरता संसार की नियति है, इसलिए अच्छे के लिए अपने को अर्पित कर देना अच्छा है। बहुत सारे आशय झरने मे समोया हुआ है। समझ-सोच के अनुपात से आशय खुलता जाता है।
हरसिंगार के मनुहार का मौसम प्रकृति के निखार की भी रुत होती है। अवदात अकाश, शरदचन्द्र का आहलादमय हास दिपदिपाते तारे- दिपावली के दीप जैसै। वनश्री सधस्नाता सी लटों से शबनम की बूंदे बच्चो के मन जैसे निर्मल जल, मनुहार के लिए गुहार लगाती रातरानी। शारदीय शक्ति पूजा के लिए आहवान करती नवरात्रा। वर्षा भींगे अलसाये और कृषि कर्म से थके लोक मन को शक्ति आराधना के लिए उत्साहित करता शरद दुर्गोत्सव। दुर्गति से बचाने वाला और दुर्गम विकास-विजय यात्रा को सुगम बनानेवाली दुर्गा की आराधना के लिये भर-भर डलिया हरसिंगार चुन लेने हेतु किशोर-किशोरियों में होऱ सी लग जाती थी, तब के दिनों में। रामू, श्यामू, बाले-बिन्दे, रमेश, महेश, गमकला, उर्मिला, गोदा, भूल्ली पीसी और जागेकाका- गाँव भर के किशोर वय शक्ति भक्ति की औकात के मुताबिक पौ फटने से पूर्व ही- देंखे कौन कितना फूल चुनता है, फूल चुनती थी। कमल मुख मुसकाते तालाब मे सात-सात डुबकी लगाकर तैरकर कमलों को काढते और बालसखा छिन्नमस्ता देवी की आराधना के लिए दुर्गास्थान (उच्चैठ) चल पऱते।
डुमरा से कोसो भर की दूरी पर उच्चैठ मे दुर्गा देवी राजती है, लोरिका धनौजा दोनो गाँव को पारकर जाना पऱता था। सब बाल सखाओ के हाथों मे फूलो की डलियाँ होती और जेब में ताम्बें के दो-चार पैसे। उन दिनों दो-चार पैसे दो-चार रूपये के बराबर होते। साथ मे चूऱा-गुऱ की पोटली भी। मंदिर परिसर मे पहुँचते ही भीऱ का ठेमल-ठेल और मेले का रेलम-पेल। मंदिर मे प्रवेश पाने के लिए छोटे रेल डब्बे कीसी धक्का-मुक्की देवी के चरण छू लेने की होऱ-सी लग जाती। देवी के उपर चढे फूल जब बाह के अर्पित होते फूलो के हल्के झटके से, या भार से, या अन्य कारणो से या देवी की कृपा से भक्तो की अँजुरी मे और भक्तिनो के आंचल में गिरते तो वे विभोर होकर भगवती की प्रसन्नता को सम्हालकर रख लेते, माथे से निकलते। गिरिजा पूजन के समय सीता के आँचल मे भी देवी के उपर चढी माला प्रसन्नता का प्रतीक बनकर गिरी थी और देवी गिरीजा मुस्कुरा उठी थी- खसी माल मूरति मुस्कानी।
निर्मल का अंजुरी मे गिरना या आँचल में आ जाना संभवतः उन्हीं स्मृतियो और ज्ञाताज्ञात संस्कारो की स्मृति है।
अष्ठमी के दिन का तो रंग ही दूसरा होता था। भौइद्दी मे बसे पचास गाँवो की श्रध्दा उमऱ पऱती थी- अर्पित होने के लिए, माँ की ममता दया पाने के लिए, सांसारिक सुख और पारलौकिक कृपा पाने के लिए। ‘दुर्गा माता की जय’, ‘दुर्गा महारानी की जय’ की जयकार कोसों दूर से सुनाई पऱती। श्रध्दा मेले का शोर आसपास के दसो गाँव में सुनाई पऱता। मंदिर के भीतर-बाहर ‘दुर्गा सप्तशती’ पाठियों के पाठ से आयतन पावन होता। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक चलने वाला यह दशमी मेला आज भी स्मृति मे जुऱ आता है-हरसिंगार की कलियों को चुनते हुए। कालिदास,का वह गढ (टीला) आखों के सामने झूल जाता है, जहाँ वे पढे थे। यहीं कालिदास पत्नी की वाक-बाण से बिंध होकर विद्या पाने आये, को कालि की कृपा से मिल गई और वे कालिया से कालिदास बन गये थे। भले ही विद्वानो का बहुमत उज्जैयिनी में कालिदास का होना प्रमाणित करता हो, पर इस किवदंती को एकदम से नकारा भी नही जा सकता, क्योंकि मिथिला विद्वानों से मंडित रही है और वैसे भी विद्वान, संत-महात्मा एक देश-काल के होकर नही रहते।
‘हरसिंगार’ या मैथिली ‘सिंगरहार’ हरश्रृंगार का तद-भव रुप है। तत्सम से तदभव जरा ज्यादा मीठा होता है। लोकभाषा की प्रकृति मे ढला हुआ, काक से ‘कागा’ और पिक से ‘कोईलिया’ की तरह मीठा। यह भले ही उगा हो हर-गौरी के श्रृंगार के लिए, पर इसे अन्य देव-देवियों के लिए, पर इसे अन्य परहेज नहीं। पवन-गगन सब इससे तर होते हैं। आप भी तर हो सकते हैं। यह हर की तरह सबके लिए औढर है और औषधि भी। इसकी कोमल पत्तियों को पीसकर सुबह शाम खाली पेट पी लीजिए, पुराना बुखार उतर जायेगा। भूख जग जायेगी। विश्वास बढ़ाने के लिए मेरी नातिन स्वाति से पूछ लीजिए, जो इसकी पत्ती पीकर अच्छे स्वास्थ्य की मालकिन है। तईभ से वैद्यनारायण की तरह मेरे आंगन में विराजमान है। श्रीखंड जंदन के साथ इसके दो-चार गोरोचन रंगी डंठलों को घिस दिजीए सुगंध में छवि और छवि में सुगंध समा जायेगी और यह गोविन्द के भाल के गोरोचन तिलक बन जायेगा। जब भी हरसिंगार को चुनता रहता हूँ तो दिनकर की ये काव्य पंक्तियां स्मृति द्वार से अधर पर उतर आती हैं और भूले-बिसरे दिन और लोग याद आ जाते हैं –
पहन शुक्र का कर्णफूल दिशा अभी भी मतवाली।
रहते रात रमणियाँ आई ले-ले फूलों की डाली।
हरसिंगार की कलियाँ बनकर वधुओं पर झर जाऊँगी।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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15. सर्वमंगल भाव और संस्कृत साहित्य
साहित्य सदैव सर्वमंगल भाव को जीता है। उसका आग्रह सबका हित है। हित बाव के बिना साहित्य नहीं रह सकता। जैसे हाथी के पैर के विस्तार में सारे जीवों के पाँ समा जाते हैं, वैसे इस मंगल भाव में सभी प्रकार के हित भाव समा जाते हैं। शिव सुंदर और सत्य होता ही। यह ‘साहित्य’ शब्द, जो शब्द अर्थ के परस्पर प्रतिस्पर्द्धी सौंदर्य से वाणी की उपासना करता है, संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संस्कृत’ शब्द भी अपने आप में संस्कार और सौंदर्य बोधक है। परिष्कृत या संस्कारित भाषा का नाम ‘संस्कृत’ है। संस्कार मंगल मूलक होते हैं। यह मंगल मूला देव भाषा देवताओं को तो भावित करती रही है, हजारों वर्षों से हमारी चोस-समझ को भी संस्कारित करती रही है। जितना दार्शनिक विचारधाराओं का, मानवीय मेघा का चतुर्दिक प्रसार और प्रस्रवण संस्कृत युग में हुआ उतना आधुनिक भारतीय भाषाओं की बात कौन कहे, विश्व भाषाओं में भी कदाचित नहीं हो सका। आधुनिक दर्शन-चिंतन के केन्द्र पाश्चात्य देश जरुर बन गए है, परन्तु प्राचीन काल मे भारत ही केन्द्र रहा है। इस केन्द्रत्व का साक्षी है नालंदा एंव तक्षशिला के विश्व विद्यालयों का इतिहास। सबका श्रेय-प्रेय संस्कृत का सनातन द्दयेय रहा है। दुर्योग या काल योग से सब के शुभाकांक्षी बुद्दद् जैसे दलितों के खासम खास हो गए है, पंथ या सम्प्रदाय के घोर विरोधी कबीर खास पंथ के पिंजरे में कैद हो गए, सूर-तुलसी पर वर्ग विशेष की मुहर लग गई है। ज्यादातर स्वतंत्रता के बाद सत्ता पर काबिज होने अथवा बने रहने के अपवित्र उद्देश्य से भाषावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद की विष-वेलि बोने में हमारी धरु राजनीति ने महारत हासिल कर ली है। परिणति सामने है। संस्कृत की छोङिये, जिस हिन्दी को गैर हिन्दी भाषी लोगों ने राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पहल की, एक जुटता दिखाई, राष्ट्रीय एकत्व के लिए सभी वर्गो के लोग को सिर पर कफन बाँध आगे आने हेतु प्रोत्साहित किया, उसी को पहले उर्दू से विलगाया गया। अब तो उसकी बोलियों से भी उसे अलग करने की प्रवृति पनप रही है। जिस अंगेजी के विकल्प के रुप मे और राष्ट्रीयता को पुष्ट करने के लिए हिन्दी को स्थापित किया गया था, स्वदेशी अवधारणा का अनुष्ठान किया गया था, उसी हिंदी को आजादी के बाद क्षुद्र स्वार्थवश किनारे करने का कुप्रयास किया जा रहा है, तो संस्कृत के भगवान ही मालिक है।
संस्कृत निर्विरोध रुप से उत्तर का सेतुबंध रही है। समस्त भारतीय भाषाओं की जननी-जैसी रही है। वृहत्तर भारत के वाङ्मय का माध्यम रही। ‘वसुधैव कुटुम्ब’ के भाव को सर्वातमना जीती हुई सबको आत्मसाक्षकर आत्मीयता देती रही। उसी को वर्ग विशेष की भाषा मानकर उसके पठन-पाठन पर ग्रहण विडंबना नही तो क्या है? यह वर्ग विशेष की भाषा नहीं, अशेष की है। कांची-काशी की नहीं, समस्त भारतवासी की है। संकीर्णता की नही, उदारता की है। इसी उदारता से प्रभावित होकर दाराशिकोह ने उपनिषदों का अनुवाद फारसी मे किया था। रसखान ब्रजभाषा के रस मे पगे और मलिक मुहम्मद जायसी की अवधी में समाधी लगी।वेद वाणी समस्त जगत के जीव और नर-नारी के शिवत्व की कामना करती हुई कहती है-
ऊँ स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु। स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव द्दशेम सूर्यम् –ऋगवेद् 1-31-4
इसी भाव का भाष्य यह श्लोक है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्ददुखभागभवेत्।।
पितृपक्ष में तर्पण करते हुए भारतीय जन न केवल अपने पितरो को जलांजलि देकर उनकी तृप्ति की कामना करते हैं अपितु विश्व के समस्त जङ-चेतन के लिए तृप्ति जलांजलि समर्पित करते है।
ऊँ देवास्तृप्यन्ताम्, ऋषयस्तृन्ताम् संवत्सरः सावयवः तृप्यताम् नागास्तृप्यताम् सागरा स्तृप्यन्ताम्, पर्वता-स्तृप्यन्ताम् सरितस्तृप्यन्ताम् मनुष्यास्तृप्यन्ताम् रक्षांसितृप्यन्ताम् पशवस्तृप्यन्ताम, वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् औषधयस्तृप्यन्ताम् भूतग्रामचतुर्विधस्तृप्यन्ताम्।
वेद-वेदांग की भूमिका के बाद पुराणों की भूमिका सर्वमंगलत्व की दिशा में कम महत्वपूर्ण नहीं कही जा सकती। शक्तिस्वरुपा देवी की प्रार्थना करते हुए भक्त- सबके सारे हितों की सिद्दि हेतु याचना करता है
सर्वमंगल मंगल्ये शिवे सवार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमो स्तुते।। -दुर्गासप्तशती
श्रीमदभागवत पुराण की मंगलकामना और भी व्यापक है। विश्व की मंगलभावना से भावित है। दुष्यों तक की निर्मल बुद्धि की कामना की गई है। प्राणियों में परस्पर सदभावना हो। मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो तथा निष्काम भाव से रमा रमण में हमारा मन रमता रहे
स्वस्त्यस्तु विश्वस्च खलः प्रसीदतां
ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथोधिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे
आवेश्वयतां नो मतिरप्यहैतुकी।।
यह सर्वशुभोदय की भावधारा गंगोत्री की तरह सहस्रधार होकर संस्कृत काव्य-भूमि में बहती रही है। लोगों को भ्रांति है कि संस्कृत पूजापाठ की भाषा है। पंडितों की भाषा है। जन साधारण की समस्या सोच, सुख-दुख, चरित्र से इसका दूर का भी संबंध नहीं। आभिजात्य वर्ग की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। आज के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता चुक गई है। अदी-अदि न जाने कितने भ्रम फैले हुए हैं, किन्तु गहरे उतर कर देखें तो ये सारे भ्रम, भ्रम ही हैं, सतही हैं। संस्कृत संदर्भहीन नहीं हुई है। कोई भी भाषा जब साधारण जन के बीच संवाद का माध्यम नहीं रह जाती तो उसमें ताजगी भले ही कम हो जाती है, किन्तु इससे वह संदर्भही नहीं हो जाती।सबके हित की उपेक्षा करके िकसी भाषा का साहित्य जी नहीं सकता।जबआदि कवि वाल्मीकि का अदना हृदय क्रौंचवध पर रो उठा था, तब उन्होंने राम जैसे आर्तत्राण महानायक की खोज अपने श्लोकों की सृष्टि रचने के लिए की थी। इस खोज में मुनि ने सतचरित्र एवं सभी के हितभाव को केन्द्र में रखा था। नारद जी से प्रश्न करते हुए आदि कवि ने जिज्ञासा प्रकट की कि अभी इस लोक में कौन ऐसा वीर पुरुष है, जो धर्मज्ञ, कृतज्ञ सत्यसंध, दृढ़वती गुणवान, विद्वान, चरित्रवान और प्राणिमात्र का हितैषी है ? नारद मुनि ने राम का ना लिया। सबका कल्याणकरना राम का काम था –
कोन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवा कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्वाक्यो दृढ़वतः।।
चारितत्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को रतः।
विद्वान कः कः समर्थश्य कश्चैक प्रिय दर्शनः।। - वा.रा.वा. कां. 2-3
व्यास यदि मनुष्य को सृ-ष्टि का श्रेष्ठतम जीव मानते हैं, तो कालिदास प्रकृति अर्थात् प्रजा के हित को सर्वोपरि स्थान देते हैं। पग-पग पर राजा या प्रशासक को कालिदास की कविता प्रकृति रंजन का स्मरण दिलाती है। राजा प्रकृति रंजनात्, अर्थात् सब प्रकार से प्रजा को प्रसन्न रखने वाला ही राजा हो सकता है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् के अंत में नाटककार का भरत वाक्य है कि राजा प्रजा के हित में रत रहे। विद्या में वृद्धि हो। शिव हम सबका शुभ करें –
प्रवर्तताँ प्रकृति पार्थिवः
सरस्वती श्रुतमहतां महीयसाम्।
ममापि च क्षपयतु नील लोहितः
पुनभवं परिगतशक्तिरात्मभूः।।
परम्परासे हटकर सोचने और रचने वाले करुणा के कवि भवभूति समस्त भावों के केन्द्र में करुणा को रखकर जग मंगल के लिए अपनी प्रतिबद्धता सम्प्रेषित करतेसे जा पड़ते हैं। अशेष मानवीयसहानुभूति का स्त्रोत करुणा ही तो है। उसमेंसंसार के शुभोदय का निवास है। परपीड़ा अधमताई है तो परोपकार पुण्यकापुंज। एक से बचने और दूसरे को करने के लिए करुणा चाहिए। इसी चाह की खोज भवभूति की करुणा है। पृथ्वी तनया प्रकृति स्वरूपा सीता की पीड़ा से द्रवित कवि चित्त करुणा का आश्रय लेता है। लोकाराधन के लिए सीता का निर्वासन प्रजाहित के लिए प्रकृति का पीड़न कहा जा सकता है। प्रजा मंगल के लिए और भी विकल्प खोजे जा सकते थे। इसकल्प की कसक-कचोट से पत्थर भी रो उठता है। प्रकृतिरोती है। राम रोते हैं। स्वयं राम को अपना उत्तरचरित अपराध बोध से भारी लगता है – ते ही नो दिवसाः गताः (उत्तरराम चरितम् ्ंक 1) इसी करुणा ने तो ुबद्ध को घरबार छुड़ाया था। विश्वमंगल की साधना के लिए उसकायाथा। भवभूति का कवि अपनी तथा सबकी विभूति का कारण प्रेम, करुणा और परोपकार को मानते हुए कामना करता है कि सारे संसार का शिव हो। सभी प्राणी परिहत निरत हों। दोष शांत हों। सभी स्थान के निवासी सुखी हों –
शिवमस्तु सर्वजगतां परहित निरताः भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु शान्ति सर्वत्र सुखी भवतु लोकः।। - मालतीमाधवम् 10-25
कविता संसार का प्रतीक और पात्रों के माध्यम से मंगल का संदेश देता है। वह समस्त मानवता के प्रति स्वभावतः प्रतिबद्ध होता है। पक्षी, पर्वत, प्राणी-जड़ चेतन सभी उसकी सहानुभूति और प्रेम के पात्र होते हैं। संस्कृत इसी भाव की पूजा करती है। सर्वदया का पाठ पढ़ाती है। सबके श्रेय-पेय की स्तुति गाती रहती है। अपने कल्याण से पहले विश्व मंगल की कामना की जाती है – “शिवमस्तु सर्व जगताम्।”
संस्कृत की भारत सावित्री पूडा-पाठ प्रधान नहीं, धर्म और कर्म प्रधान है। धर्म की व्याख्या में समष्टि का मंगल विधान सर्वोपरि है, बाह्याडंबर नहीं। धर्म की अवधारणा प्रजा और समाज के धारण या रक्षण करने से अर्थवती है। वे कर्म और यम नियम, जो ध्वंस से बचाते हैं और निर्माण करते हैं, उन्हें धर्म कहते हैं। वे आचरण जो आतंक नहीं, आनन्द और अभय़ प्राणि मात्र के लिए सिरजते हैं, उन्हें धर्म की मर्यादा कहते हैं। तभी तो भारत सावित्री कहती है –
धारणादधर्म इत्याहुर्धर्मोधारयते प्रजाः।
यत् स्यात् धारणसंयुक्तं सधर्म इत्युदाहृतः। - महाभारत
ऐसी सर्व मंगल धारणधर्मी आवधारणा वाले धर्म को अर्थ, काम एवं राज्यका मूल माना गया है – त्रिवर्गोsयं धर्ममूलं नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलंवदन्ति (महाभारत वनपर्व 414) आशय यह कि जो अर्थ धर्मार्जित नहीं होता, अनीति अन्याय व दुष्ट साधनों से अर्जित होता है, वह अनर्थकारी होता है। गलाकाट प्रतियोगिता व लूट-खसोट को बढ़ावा देता है। आदमी को आदमी नहीं रहने देता। वह धर्म से अनुशासित न रहने पर हवस का रूप ले लेता है। अनुजा तनुजा, परजा में भेद भूल जाता है। आसुरी बन जाता है। धर्म रहित राज्यकी भी यही दशा होती है। हस्तिनापुर का राज्य उसे छोटा लगता है। जो प्राप्त भाग है उसका विकास भूलकर काश्मीर की रट लगाने लगता है। मानों काश्मीर मील जाने पर उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रहेगी। यह देश हमेशा धर्म को कमोबेश केन्द्र में रखता चला आया है। लंका जीतकर लंकावासी को और बंगलादेश बंगलावीसी को सुशासन के लिए सौंप दिये गये। यह भारतीय धर्म का मंगल भाव है जिससे हमारा जीवन, हमारे आचार-व्यवहार और हमारी राजनीति अनुशासित है। यह धर्म आध्यात्मिकता की ऊँचाई पर पहुँचकर जीवन के बहुविध अच्छे कर्मों को ही शिव की आराधना मानता है। इस शिव स्तुति का यही विशद आशय है –
आत्मात्वं गिरिजामतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहम्
पूडा ते विषयोपभोगरचना निंद्रा समाधिस्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यतयतकर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्।। - शंकराचार्य शिवमानसपूजा
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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14. निर्वासन
निर्वासन और निर्वसन के बीच मात्र एक मात्रा का अंतर है, परन्तु दोनों के भीतर निहित अपमान-अवसाद की तादात में बेशुमार फर्क है। ठीक है कि जिसके असन, वसन और वास का ठीक-ठिकानान नहीं होता, उसके लिए पुण्य प्रकाशी काशी भी मगहर जैसी हो जाती है और पुण्य सलिला शीतला गंगा भी अंगारवाहिनी लगती है –
असनं वसनं वासो येषां चैवाविदानतः।
मगधेन समाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी।।
परन्तु आधा पेट खाकर, लंगोटी लकाकर, वृक्ष के नीचे रहकर भी कमोबेश सुख काअनुभव किया जा सकता है, ‘अइहहिं बहुरि बसन्त रितु’ की आशा में जीया जा सकता है। फुटपाथ को वास स्थान बनाकर जिंदगी को घसीटकर लोग जी ही रहे हैं। परन्तु निकाले जाने का दर्द बड़े-बड़े मर्दों से नहीं सहा जाता। इसकी पीड़ा भोक्ता को तो हिला ही देती है, द्रष्टा को तटस्थ नहीं रहने देती, द्रवित कर देती है। पाषाण को पिघला देती है। प्रमाण चाहिए तो पंचवटी से पूछिए, जोसीता के अकारण निर्वासन की कचोट से रो उठी थी, बज्र का हृदय फट पड़ा था। आकाश चीत्कार कर उठा था। वनदेवी थरथरा उठी थी और तभी सेराम राम नहीं, राजा राम – आत्मनिर्वासित राम – रह गए थे।
निर्वासन यातना का अक्रूर रूप है। यह निर्वासित को जल्दी से मारता नहीं, सालता है। चोट नहीं पहुँचाता, कचोटता है। यदि अच्छे कार्यके लिए, देशहित के लिए निर्वासन राजदंड के रूप में दिया जाता है तो वह ज्यादा दुःकद नहीं होता। व्यक्ति अच्छे काम के नाम पर कालापानी की सजा भी काट लेता है। तिलक ने तो कालापीन की यातना सहते-सहते गीता का भाष्य ही लिख डाला था। आज़ादी के दीवानों ने क्या-क्या नहीं सहाथा, परन्तु धरणीसम धीरा सीता भी निर्वासन के दर्द को नहीं सह पाई और धरती में समा गई, क्योंकि यह निर्वासन राजदंड से प्रेरित नहीं था। अपनों के द्वारा अपने का निर्वासन था। समूह मन का निकाला था। राजा समूह मन का मालिक कहालाता है। प्रकृति का रंजन करने वाला राजा कहलाता है। उसमें भी राम जैसे राजा ने निकाला दिया था। अनन्य ने अन्यकी तरह व्यवहार किया था। कैसे सह पाती सीता ?
यक्ष अलकापुरी से निर्वासित हुआ था, प्रिया के मन से नहीं। उसे अपनी अनवधानता का भी अहसास था,इसलिए वह आकुल हुआ था, पर आत्मघातके लिए आतुर नहीं।
देश निकाला का दर्द सहा जा सकता है, पर मन के निकाले का नहीं। थेथर लोगों की नेता किस्म के मानुष की बात और है। सौ जूते खाकर भी थेथर लत नहीं छोड़ता और ज जूते की माला पहनकर भी नेता कुर्सीनहीं छोड़ता। राम के बिना अकाम मैथिली ने मिट्टी में समा जाना ज्यादा बेहतर समझा। व्यर्थ चेतना का विलाप बनकरजीने से समा जाना अच्छा समझा गया। तिल-तिल जीवित मृत्यु को जीने से एक बार ही मरण को स्वीकार करना अच्छा समझा गया।
सीता के धरा में समा जाने के बाद क्या राम भी आराम से रह सके ? क्या वे भी आत्मनिर्वासन की पीड़ा से छटपटाते नहीं रहे ? वे ऊपर से भले ही शान्त दिखाई दे रहे थे, किन्तु भीतर से पूरी तरह अशान्त, शीतल सागर के भीतर आग चल रही थी। व्यथा कहें तो कैसे और किससे ? राजा तो ठीक से न रो सकता है न हँस सकता है।
राम की बात राम जानें। मर्यादा की सीमा राम-रहीमा के लिए सब कुछ सह्य है – संभव है (रामंतु सर्वं सहे) किन्तु आत्म निर्वासन की यंत्रणा यह यंत्र युग का मानव कैसे सहे ? इस यंत्र युग ने माल को भीतर भर दिया है और मनुष्य को बेघर कर दिया है। पति को परदेस भेज दिया है। बेटे को कारखाने का मजदूर बना दिया है। बाप-बेटे को अलग कर दिया है। जैसे-तैसे बाप-बेटे से मिलने बंबई नगरिया पहुँच भी जाता है तो बेटे को मन भर बतियाने के लिए फुर्सत नहीं। संतान झूलेघर में और भाग्यवान-भाग्यवती नौकरी पर। निर्वासन का सिलसिला एक हो तो बताया जाए, यहाँ तो सारे रिश्ते रिस रहे हैं और सरोकार सर्द हो रहै हैं। भीड़ बढ़ गई है। आदमी अकेला हो गया है। आत्मनिर्वासित आदमी आत्मगात से लेकर आतंकवाद तक कुछ भी अकर्म करने के लिए उतारू है। यह युग सच पूछें तो निर्वसन रहने से ज्यादा निर्वासन का ही दर्द भोग रहा है। अपनों से निर्वासित होकर जी रहा है। बंजारे भी साथ-साथ रहने का सुख पाते हैं। पर अघोषित बंजारे को तो वह भी प्राप्त नहीं है। भगवान बचाए इस निर्वासन से।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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13.सर्वमङगल माङगल्ये
सर्वमंगला काली कराल वंदना घोररूपा भयंकरी है, परन्तु विरोधाभास से देखिये कि वे सर्वमंगला कहलाती हैं। त्रिपुर सुंदरी व मंगल मूर्ति हैं। विचारकर देखें तो यह विरोधाभास ही है, वास्तविकता नहीं। ‘मगि’ धातु से अचल् प्रत्यय लगाकर ‘मङगल’ शब्द और ‘यत्’ तथा ‘ण्यञ्’ जोड़कर क्रमशः मङगल्य और माङगल्य शब्द निष्पन्न होता है। ‘सर्वमंगा’ विशेषण साभिप्राय है। उनके अनेक नाम-रूप हैं और सबके अभिप्राय हैं, किन्तु मांगल्य का भाव अन्तर्धारा की तरह सभी में समाहित है – तेज में प्रकाश की तरह, भगवान में भगवत्ता की तरह। ‘काली’ नाम के आशय पर ही विचार करें तो ज्ञात होगा कि शिवानी का यह नाम भी घोर रूप को प्रकट करता हुआ भी कल्याण से रहित नहीं है। प्रकृति अपने मूल स्वरूप से पृथक नहीं हो सकती। जल अपनी रसात्मकता नहीं छोड़ सकता न अग्नि अपनी उष्णता। उसी तरह काली रूप में भी शिवानी शुभ ही करती है। काली शब्द की व्युत्पत्ति है कि जो काल स्वरूप धारण कर समय के पाप-ताप-शाप दुर्वृत्त आदि को लीलती रहती है, उसे कालिका कहते हैं – कलयति लीलयति पापं दुर्वृत्तं वा सा कालिका। कलयति भक्षयति प्रलय काले सर्वम् इति काली अर्थात् काली काल बनकर दुराचार भ्रष्टाचार को लील जाती है। जग के कालकूट को महाकाल की तरह महाकाली पी जाती है और गौरी से काली बन जाती है – जैसे कपूर गौर शंकर नीलकंठ बन जाते हैं। है न मांगल्य भाव ?
मूढ़ हैं वे लोग, जो अपने को चतुर-चालाक समझकर गलत काम करते रहते हैं और सोचते हैं कि काली के कोप से वे बच जायेंगे। जग की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, जगदीश्वरी की आँखों में नहीं। वे भूल जाते हैं कि सर्वमंगला होकर भी दुर्वृत्त बरदाश्त नहीं कर पातीं। उसका शमन करना उनका शील है –
दुर्वृत्तशमनं तव देखि शीलम्।
भवानी का दूसरा नाम भद्रकाली भी है। काली शब्द के रूप में लगा भद्र विशेषण उनके सर्वमंगल शील का ही संकेत देता है। भद्र, अर्थात् जो भक्तों के लिए मंगल स्वीकार और प्रदान करे उसे भद्रकाली कहते हैं – भद्रं मङगलं सुखं वा कलयति स्वीकरोति भक्तेभ्यो दातुम इति भद्रकाली सुखप्रदा। भद्रकाली की असुर संहार लीला के रहस्य में भी सोचकर देखें, तो सर्वमांगल्य निहित है। संहार के पिछे सृजन का भाव भावित है। भला सोचिये की जगन्माता विश्वमूर्ति भवानी कुमाता कैसे हो सकती है ? अकारण अपने ही पुत्र असुरों का संहार क्यों करेगी ? किन्तु अपना ही पुत्र यदि कुपुत्र बन जाता है, राज-समाज का शत्रु बन जाता है तो क्या माता-पिता उसका शमन नहीं करते ? असुरों का शमन और सुरों का पोषण किसी प्रकार के पक्षपात का परिचायक नहीं है, अपितु आसुर व सुरभाव का शमन-पोषण है। जग-मंगल का विधान है। सृष्टि सुव्यवस्था है। लोकहित की रक्षा है। मूल्य-मर्यादाओं की अभिरक्षा है। शास्त्र का स्पष्ट मत है कि लोक कल्याण की दृष्टि से किया गया कार्य सुकर्म है। हत्या भी पाप नहीं धर्म है। हत्या पाप है, किन्तु वध नहीं। राम ने रावण का और कृष्ण ने कंस का वध किया था, हत्या नहीं। रावण वध के पीछे सीता मात्र निमित्त कारण थी। मुख्य कारण तो रावण का स्वयं का दुष्कृत्य था जो लोकहित को बाधित और लोक कोप को संवद्धित कर रहा था। राम का कोप उसी लोक-कोप की अभिव्यक्ति था, जिसका शिकार रावण को बनना पड़ा। भागवतकार की यह गोविन्द वंदना इसी वास्तविकता की समृति है –
लोक शोकापहाराय रावणं लोकराणः। रामो भूत्वावधीत् यस्तं गोविव्दं विन्दतां मनः।।
जन्म से ही रावण लोक को रुलाता रहा। भाइयों तक को नहीं छोड़ा। व्यासदेव का तो स्पष्ट मत है कि प्रभु मनुष्य देह धारण ही करते हैं मनुष्य को शिक्षा देने केलिए। राक्षस वध उनका एकमात्र लक्ष्य नहीं होता। आत्माराम राम के द्वारा किया गयारावण वध सीता निमित्त नहीं था, लोक हित और लोक शिक्षा से प्रेरित था –
मर्त्यावतारिस्त्विह मर्त्यशिक्षणं, रक्षोवधायैव न केवलं विभोः।
कुतोsन्यथास्यादरमतः स्व आत्मनः,सीता कृतानि व्यसनानीश्वरस्य।। - भाग. 5-19-5
तथ्यहै कि समस्त अवतार लोक उपासना की अभिव्यक्ति हैं। यह स्वार्थी मर्त्यलोग अपने अवतारों की उपासना या उनके प्रति निष्ठा का प्रकटीकरण सेंतमेंत में नहीं करता। न जाने अपने हित के लिए लोकेश को किस-किस जहालत में डालता रहता है। कृष्ण को ही लीजिए। क्या वे कबी भी सुख से दोरोटी का सके ? जिस गोपाल ने अपने बालपन में ही लोगों को त्राण दिलाने के लिए कष्ट उठाया उसी कृष्ण कोजरासंध की इस मांग पर कि मथुरा के लोग मुझे कृष्ण-बलराम को सौंप दें हत्या के लिए। मैं शेषलोगों को मुक्त कर दूँगा। युद्ध नहीं करूँगा। अन्यथा सबको जलाकर राख कर दूँगा। लोगों ने अपना स्वार्थ देखा और कृष्ण-बलराम को क्रूर जरासंध के हाथों सौंपने का निश्चय कर लिया। यह सोचकर कि इन दोनों के मरने से हम सब बच जाते हैं, तो बुरा क्या है ? ऐसा होता है लोक ?
भागवती की असुर संहार लीला के पीछे भी लोक उपासना का भाव है। वे राक्षसों को मारती नहीं, संहार करती हैं। उनके दुष्कर्मों के विस्तार समेटती हैं। रोकती हैं – अनवरुद्ध लोक यात्रा के लिए। सभी के उपकार के लिए सदा दयालु बनी रहने वाली (सर्वोबकार करणाय सदाssर्द्रचित्ता) शिवानी दानवों को मारकर जग.का कल्याण ही तो करती हैं। अपने में मिलाकर योगियों के लिए भी दुर्लभ सायुज्य मुक्त दुष्टतम राक्षसों को भी प्रदान करती है –
एबीर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते, कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु, मत्वेति नूनमहितान विनिहंसि देवि।।
- दुर्गासप्तशती 4-18
शक्ति का दुर्गा, काली, गौरी आदि रूपों में प्रकटीकरण देव शक्तियों का सामूहिक अवतरण है – समूह मंगल के लिए देव, दानव व मानव सभी उनके उपकार से उपकृत होते हैं। सभी उनके स्मरण से कृकत्य होते हैं। असुरगण तो खासकर शिव और शक्ति की उपासना करते हैं। विश्व जननी सर्वे भवन्तु सुखिनः की प्रतिमूर्ति हैं। कोई सच्चे मन से उनका स्मरण करके तो देखे –
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र दुख भयहारिणी का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाssर्द्रचित्ता।। - दुर्गा सप्तशती 4-17
जाहिर है किदेव शक्तियों के पूँजीभूत रूप मंगला भगवती शुभ शक्तियों का समवाय हैं। शुभंकरी हैं। उनके नाम और रूपों की जितनी व्याख्या की जाये कम है। उनके वाहन सिंह, अस्त्र-शस्त्र और उनकी लीलाओं – सब का आशय एक ही है – सर्व मंगल। शक्ति-साधना जरूरी है शुभ-सुख की स्तापना के लिए। दुर्बल को सभी सताते हैं। आसुरी शक्ति लाख मनाने-चेताने पर भी नहीं मानती। सीधी नहीं रह सकती – कुत्ते की दुम की तरह। सत्ता सिंह की तरह होती है जिस पर नियंत्रण रखने तथा उसेशुभ कार्य में लगाये रखने के लिए देवी उस पर सवार रहा करती हैं। साधना भी जब गलतउद्देश्य से प्रेरित होती है तो श्रेय-प्रेय के बजाय ध्वंस ही सिरजती है – दक्ष यज्ञ की तरह। मातृशक्ति ज्यादा ममतामयी धैर्यवती और उदार होती है। वह कुपुत्र को भी स्नेह देने में कोताही न हीं बरतती, किन्तु शरीर का ही कोई अंग जब सड़ जाता है, उसेक विष से सारे शरीर का खतरा बढ़ा जाता है तब उसे काटकर फेंक देने में ही क्षेम निहित होता है। ठीक इसी तरह जब कोई दानव या मानव समाज के लिए खतरा बन जाता है तब उसका अपसरण या नाश अपेक्षितहो जाता है। संहार लीला का यही रहस्य है। रहस्य यह भी है कि आदमी शिक्षा ले। आदमी आदमी बना रहे। ब्राह्मी सृष्टि का वह सर्वोत्तम जीव बन के रहे। आध्यात्म और भोतिकतामें तालमेल रहे। दुर्का दुर्गति दूर करने और योग-क्षेम वहन करने के लिए मानवताके आह्वान पर अवतरित होती हैं। सबका मंगल नारायणी का अभिप्रेत होता है।
सर्वमङगल माङगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबकेगौरि नारायणी नमोsस्तुते।।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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12. भोग और शक्ति
साधारण तौर पर पानी और जल में, भोग और भोजन में, भोज और भोजन में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। केवल शब्दों का हेर-फेर लगता है। मूड़ का नाम कपार जैसा लगताहै,पर बारीक विचार करने पर इनमें बहुत फर्क है। नाली का पानी जल नहीं कहला सकता, गंगा का जल पानी नहीं कहला सकता। कहना हो तो कह लीजिए पर तर्कसंगत नहीं लगता। भोज और भोजन में वही दूरी है जो राजा भोज और भोजबा तेली में है। भोज भोग के ज्यादा समीप है। जो रस, जो आस्वाद, जो सौजन्य और जो आह्लाद भोज में है वह भोजन में कहाँ ? खाना ता भूख की खानापूर्ति है और लंच पेट के प्रपंच की पूर्ति। भोज के नाम से भोज्य पदार्थ का जायका कुछ और ही हो जाता है। उसका नाम सुनते ही कई मीठे प्रसंग और संदर्भ ढेर सारे अनुषंगों के साथ मन में तैरने लगते हैं। साथ में मिल-बैठकर बाँटकर भोगने के भाव भी भोजन में शामिल हैं। एक ही प्रकार के भोजन आप होटल में कीजिए। गृहिणी की प्रीति की छौंक से सिक्त वही घर में कीजिए और वहीं सबके साथ एक प्रांत में बैठकर बोज में कीजिए, तृप्ति में भारी अंतर मालूम पड़ेगा। यही हाल भोग का है। भोज में कई प्रसंगों की साझेदारी होती है, तो भोग में भाव की। यह भाव भगवदीय भी हो सकता है और मानवीय भई। भाव के योगायोग से साधारण भोज्य पदार्थ भी भोग बन जाता है – नैवेद्य बन जाता है – भगवान का प्रसाद बन जाता है। बहुत दिन पहले की बात याद आ रही है – मेरे घर पिताजी के मामाश्री आये हुए थे। मेरे दादाजी ने बड़े प्रेम से शकरकंद को कंडे में पकाकर उसमें दूध-चीनी मिलाकर मामाश्री को देना चाहा। उन्होंने बिना चखे कहा की रहने दीजिए, ऐसा तो मैं रोज खाता हूँ। किन्तु दादाजी ने कहा इसे जरा चखकर तो देखिए। यह खाना नहीं भोग है, प्रसाद है, इसका स्वाद ही और है। प्रसन्न हो जायेंगे। चखने के बाद वे और मांगने लगे।
दरअसल भाव का भोग लगता है। सूखी रोटी भी मेहमान को या भगवान को आदर भाव से निवेदित कीजिए वह नैवेद्य बन जायेगी और इसके विपरीत रसगुल्ले भी बिना भाव के परोसे जाने पर भूसा बन जाते हैं, क्योंकि सांवरा भाव का भूखा होता है। जूठा बेर भी प्रेम से खिलाया जाये तो वह रुचि से खाता है। बिदूर का साग भी बड़े चाव से खाता है और दुर्योधन के छप्पन भोग को भी छोड़ देते हैं। जिस छप्पन में छल छिपा हो, अहंकार मिला हो, जिमाने का भाव नहीं, निवेदन नहीं, उसे भगवान तो भगवान इंसान भी ग्रहण नहीं करता। यदि वह उसे खाता भी तो उसमें वह रस नहीं पाता, उसे व्यवहारवश निगलता है। इसीलिए भगवान को कोई चीज भोग लगाते समय भक्त बड़े भाव से निवेदन करतेहुए कहता है कि हे गोविन्द यह आपकी वस्तु आपको अर्पित है। आप उसे प्रसन्न मन से ग्रहण करें।
त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये। ग्रहण सुमुखी भूत्वा प्रसीद परमेश्वर।।
इस भाव से जब व्यक्ति खाली हो जाता है तब वह मालामाल रहते हुए भी कंगाल नजर आता है। पूरे देश को भी चाट लेने के पश्चात भी वह अतृप्त रहता है। और की तलाश में कई तरह के घोटाले हवाले में संलग्न रहता है। इस अतिरिक्त संलग्नता और हवस में पड़कर वह मनुष्यता से वंचित तो हो ही जाता है, प्राप्त सुखभोग से वंचित रहा करता है। हब्शी और वहशी को सुख कहाँ ? उसकी तो “डासत ही भाव निशा सिरा जाती है।“ जोड़ता कोई और है और भोगता कोई और है। यह आँखों देखी बात है, कानों सुनी नहीं। हमारे गाँ में एक महाजनी सभ्यता के ठेकेदार थे। नाम था सत्यदेव। नाम के विपरीत उनका आचरण था। चालीस साल पहले बहुत ब्राह्मण बंधुओं के लिए भी काला अक्षर भैंस बराबर हुआ करता था और अन्यों के लिए ओनामासी ढम, बाप पढ़े न हम जैसी स्थिति थी। इस स्थिति का फायदा उठाकर और ईमान-धरम से आँखें बचाकर वे काला-पीला किया करते थे। ऋण देते वक्त दो तीन और लेते वक्त तीन का दो बहीखाते में लिख दिया करते और ऋणी से अंगूठा लगवा लिया करते थे। पाप का धन प्रायः बहुत जल्दी बढ़ता है और उसी मान से घटता भी है। देखते-देखते सत्यदेव पहले तो शक्कर और उच्च रक्तचाप के शिकार हुए। भोग उठ गया। दो सूखी रोटी भी ठीक से खा नहीं पाते थे। जिसके पास भरपेट भोजन की व्यवस्था नहीं होती उससे ज्यादा दुःखी वह होता है जिसके पास भोगने के सारे पदार्थ प्रस्तुत होते हैं, परन्तु बीमारी के कारण वह उन्हें देखता भर है, भोग नहीं पाता।
सकल पदारथ जगमाहीं। करमहीन नर पावत नाही।
सत्यदेव के बेटे विलासी बन गए और देखते-देखते ही उनके खाने के लाले पड़ गए। पर मानता कौन है ? इतिहास पुराण के पन्ने दृष्टान्तों से भरे पड़े हैं। रोज-बरोज पास-पड़ोस में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, पर आदमी मानता नहीं है, चेतता नहीं है, आगे-पीछे देखता नहीं है। नहीं तो ऐसा दिन क्यों देखना पड़ता कि जिनके इशारे से पत्ते हिलते थे आज वे पत्तों की तरह काँपते हैं। जिन मंत्रियों का स्वागत आँखें बिछाये होता था, आज उनके स्वागत में बंदी गृह सज रहेहैं। लानत है अमानत में खयानत करने वाले लोगों के भोग को।
भोग काशी शास्त्र होता है। कोई बहुत भूखा होने पर भी दोनों हाथ से खाने लगता है। दोनों हाथ से बटोरा जा सकता है। खाया नहीं जा सकता। ऐसा न भोगें कि हाजमा खराब हो जाए। अजीर्ण भोजन विष बन जाता है। मित भोजन मीत होता अमित मित्र। ऐसा ही भग रोग बन जाता है। भोग सुख भी होते हैं और दुःख भी। और किये का फल यहाँ या वहाँ भुगतना ही पड़ता है। क्रिया कभी निष्फल नहीं होती। यही कारण है गीता निष्काम कर्म करने के लिए प्रेरणा देती है। क्रिया के सारे फलों को कर्म-धर्म को समर्पित कर देने की सलाह देती है,ताकि अच्छे-बुरे फलों को सुख-दुख को समभाव से भोगा जा सके।
दरअसल समर्पण का भाव कर्तव्य के अहंकार का त्याग है, निमित्त भाव का स्वीकार है। यह फालतू किस्म का दैन्य नहीं, न ही हारी हुई सेना का शस्त्र समर्पण है। हारे हुए का हरिनाम तो रहारा होता ही है, दुख में तो सब सुमिरन करते ही हैं, किन्तु यह सुख में सुमिरन की मानसिकता है। असीम के प्रति ससीम का श्रद्धा अर्पण है। कृपालु के प्रति कृतज्ञता का बोध है। इन्हीं भावों के साथ भगवान को पत्र-पुष्प जो भी अर्पित आस्वाद्य बन जाते हैं, अमृत बन जाते हैं। अमृत भी तो एक अलौकिक अनुभूति ही है। मीठा अहसास है, आनन्द की चरम उपलब्धि है। फिर असली अमृत को देखा किसने है और पिया किसने है ? वस्तुतः भोजन चाहे लाख स्वादिष्ट हो, यदि भक्तिपूर्वक निवेदित नहीं होता तो वह भोग नहीं बन सकता और भक्ति रहित भोग रोग है। और ऐसा भोग आदमी को बी भोग लेता है, भले ही आदमी इस मुगालते में हो कि वह उसे भोग रहा है। मद्यपायी सोच रहा हो कि मैं मद्य पी रहा हूँ। शंकराचार्य जैसे ज्ञानी ज्ञान की सीमा जानते हैं। अतः वे भोग रोग से बचने के लिए गोविंद भजन की सीख देते हैं –
“भोग न भक्ता वयमेव भुक्ताः
कालो न यातः वयमेव यातः
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्
गोविन्द भज मूढ़मते।।”
तुलसी के राम भी शबरी से कहते हैं कि हे भामिनी बिना भक्ति के कुल, जाति, बड़ाई, मान-सम्मान आदि जल विहीन बादल की तरह शोभित नहीं होते।
“जाति-पांति कुल धर्म बडा़ई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगतिहीन न साहई कैसा। बिनुजल बादि देखिन जैसा।”
वस्तुतः भक्तिहीनता श्रद्धआ-विश्वास का चुक जाना है। “ईश्वर मर गया” यह घोषणा करने वाला आस्थाविहीन यह युग क्या जाने कि देवता मनुष्य के लिए और मनुष्य देवुता के लिए कितना जरूरी है ? भक्ति को पूजापाठ क्रियाकाण्ड का पर्याय मानने वाले मानुष क्या जाने कि धर्म और सम्प्रदाय से भक्ति करती है, सबको सबका भाग देती है, भक्ति नहीं करती जोड़ती है। वह बाँटती है तो केवल आनन्द को, प्रेम को, उछाह को, प्रसन्नता को, वह अर्पितकर बाँटकर भोगने के लिए सूत्र देती है। उसी सूत्र की व्याक्या कदाचित मार्क्सवाद है। गीता का स्पष्ट कथन है कि जो व्यक्ति केवल अपने लिए पकाता है, बाँटकर नहीं बोगता, वह भोग नहीं पाप भोजन है – भुज्यते ते अद्यंपापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। भक्ति का दर्शन सहभाग का दर्शन है। इसमें भक्त, जगत और जगतपति सभी सहभाग होते हैं। एक दूसरे को भावित करते हैं एक दूसरे को श्रेय-प्रेय बाँटकर जीवन को अर्थ प्रदान करते हैं –
देवान्भावयतानेन ते देवा भायुन्तु वः।
परसांर भवयन्तः श्रेयःऋ परमावश्यथ।।
इवटान्भागान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
नैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो छु भुङ क्ते स्तेन एव सः।। 31.11.92
भक्ति और भजन भी भोग भोजन की तरह चिंतनीय है। भजन यद्दपि भकि्त का ही स्वरुप है, परन्तु दोनों के बीच बारीक लकीर खींची जा सकती है। दोनों मे साध्य-साधन संबंध स्थिर किया जा सकता है। राम को पाने के लगए सुमिरन आवश्यक है। एक भजन साधन है। भक्ति की विद्दा है। एक भाव है तो दूसरी रस है भजन-भाव है तो भक्ति अहोभाव है इसी अहोभाव के सामने सुधा र भी तुच्छ लगने लगता है सुखदेव जी गवाह है कि राजा परिक्षित को जब वे भगवान कथा सुनाने को प्रस्तुत हुए तभी देवता लोग स्वर्ग लोक से अमृत घर लेकर पहुँच गए। और सौदा करते हुए बोले मुनिवर आप राजा परिक्षित को बनाने के लिए यह अमृत घर ले लिजिये और बदले मे हमें कथामृत का दान दीजिए। दावो पर हंसते हुए मुनि बोले काघ और कंचन में अदला-बदली कैसी? कहाँ यह अमृत और कहाँ यह भगवदीय कथमृत।
इस मकारा के पीछे निश्चय ही यह धारणा रही होगी कि अमृत तो खारे सागर से उत्पन्न रस है इसमें खारा पन का कुछ रस तो बचा ही होगा। दूसरी बात यह छीना-झुटी से बचा अमृत है। राक्षसों को वंचित कर संचित ईष्या-वेष समन्वित इस अमृत मे वह स्वाद-प्रभाव कहां जो वेद-पुराण से उदभूत भगवतकथामृत मे है। यह भक्ति रस पूरित कथा मनुष्य को ईष्या द्वेष से उपर उठाती है किसी को वंचित नही करती और न कुछ संचित करती है। यह तो सबको प्रेमसुधा रस बांटती ही रहती है। अमृत गले से नीचे उतर कर चूक जाती है, प्रभावहीन हो जाता है, स्वाद रहित हो जाता है, कथारस भीतर उतरकर तर कर देता है। देह-गेह बिसारकर भक्त सांई का सुमिरण करता कराता रहता है।
सब रग तमत रबाब तन बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुन सके, कै साईं के चत्त।।
कई मायने मे कथामृत अपनी श्रेष्ठता का इजहार करता है। इसमे मन को बांधने की ताकत होती है। रमाने की औकात होती है। झरने की तरह प्यास बुझाने की सामर्थ्य होती है। बादल की तरह भिगोने की सहज परोपकारी होती है। यह एक साथ कई इन्द्रियों को बाँधती है। ऐसे गुण उद्द्दि अदभूत् अमृत मे कहाँ? उसे तो एक बार पी कर आदमी निश्चिंत हो जाता है। अमरत्व के अंहकार से भर जाता है। इतना ही नही कथीमृत कई रसो का रसायन होता है। इसमें हृदय दहलाने-सहलाने और दुबोने-उबारने एख से बढ़कर एक प्रसंग होते है, लीलाचरण के अध्याय होते है जो कई तरह से विभोर करते है। यह खूबी अमृत मे कहाँ। वह घर रीत सकता है पर कथा सागर तो अथाह है। कथा के कारण ही सूर के गीत से ज्यादा तुलसी के दोहे-चौपाई जन-जने को समोते है। दूर तक खींचते है। सूर के गीत भी लीला संदर्भो के कारण कदाचित अन्यों की अपेक्षा ज्यादा रमाते है।
दरअसल भगवदीय कथा की बात ही कुछ और है। यही कथा कथा है, बाकी सब व्यथा है, क्योकिं यह भक्ति रस से सिक्त होती है और भक्ति श्रद्ददा विश्वास और प्रेम के भाव संमिश्रित होते है जो व्यक्ति को मम ममेतर से मुक्त करते है मुक्तदशा में न कोई चाह शेष रह जाती है और न चलने के लिए राह। संदेह मिट जाते है, तर्क गल जाते है। ज्ञान का जाल मिट जाता है। जिस मुक्ति के लिए मुनिगण जन्म-जन्म जतन करते रह जाते है, पंडित वृंद पोथी पढ-पढ कर थक जाते है, ुस परम को बिना किसी विशेष यम नियम और धरम-करम के भक्त पा लेता है। प्रभु को अपने भीतर पधरा लेता है-सारे संतो का एक ही मत है
पायो जिन राम, तिन प्रेम ही सो पायौ है।
नृगां जन्मसहस्त्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिर्भक्त्या कृष्ण पुरः स्थिर्तिः भागवत 1-2-19
अर्जुन भगवान के अत्यन्त प्रिय पात्र थे अपने सखा के श्रेय के लिए गुहृय गीता ज्ञान का आख्यान उन्होनें किया। उन्हें ज्ञान योग और कर्म योग के अनेक बुझौवल बुझा लेने के बाद, फेंट-फेंटकर गुह्यादगुह्यतर ज्ञान दे लेने के बाद श्री कृष्ण ने अपने दिव्य रुप की झाँकी दिखाई। इस झाँकी से संभवतः अर्जुन का मन और चकरा गया। गीता के 18 अध्याय के 6 सौ 86 श्लोक भी चक्कर दूर नही कर सके तो श्री कृष्ण ने सौ बातो के लिए एक ही बात कही- प्रिय अर्जुन तू अपने मन को मुझमे रमा दे, मेरा भक्त बन जा, मेरी पूजाकर, मुझे प्रणामकर मुझमे समा जायगा, समझ जाएगा।
मन्मना भव मदभक्तो मव्याजी मां नमरकुरू।।
मामेवैष्सि सत्यं ते प्रति जाने प्रियोश्सि में।। 18 1165
वस्तुतः सोचकर देवों तों ज्ञान की कोई सीमा नही है शब्द शास्त्र अनन्त है। अनेक वेद-पुराण है, बाईबिल-कुराण है शास्त्र स्मृति है, अनेक ऋषि-मुनि और महापुरुष के वचन- प्रवचन है। किसको माने किसे नही, यह पचड़े का विषय है इसलिए इस प्रषंच से निजात पाने के संत पते की बात कानों मे कहते है।
भगति भजन हरिनाम है, दूजा दुख अपार ।।
मनसा बावा कर्मना कबीर सुमिरन सारे।।
सच मे सुमिरन सार है सुबदन को सार समझने वालों कोयह बात सारहीन लग सकती है परन्तु अद्वैत वेदान्त के चूड़ान्त ज्ञानी आचार्य़ शंकर भी अन्त मे सुमिरन के लिए आदेशात्मक राय देते हैं।
भज गोविन्दम् भजगाविन्द भज, मुढमते। क्योकि वे जानते है भजन भक्ति के सारे भाव समा जाते हैं। सारे ज्ञान-विज्ञान क्रिया अनुष्ठान तिरोहित हो जाते है, निराकार आकार पा जाता है निंरजन लीम्बुज श्यामल बनकर नयन मे रच जाता है। वह ऐसा अनुरुब रुप पा जाता है कि देखने वाले ठगा-सा रह जाता, जीने मरने लगता है जीयतमरत झूकिं झूकिं परत जेहि वितवत एकबार, तन यमुना तट हो जाता है और मन वृंदावन। लोक लाज छोड़कर कुल कानि को ताक पर रखकर गापियां इन्द्रियाँ रास मे रम जाती है। मीरा लागी लगन मे मगन हो जाती है चित्र द्रवित हो उठता है, विभोर हो जाता है और पोर-पोर महारास में सराबोर होने लगता है और भुवन धन्य हो उठता है।
ताग, गदगदा, द्रवते यस्य चिद्तं रुदत्यभिक्ष्णं हसति क्वच्चिद
विलन्ज उदगायेति नृत्यते च मद् भक्तितयुक्तः भुवनं पुनाति, भागवत 11/14/24
सोचकर देखें तो पता नही चलेगा कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह पूरी तरह व्यक्ति आश्वस्त भी नहीं कर पाता जबकि भक्ति के आते ही आशवस्ति मिल जाती है। यह जीवन का बीमा है। पोषण है। अनुग्रह है। लोकसंग्रह है। भक्ति का ना कोई शास्त्र है और तर्क जाल है। नारद मुनि ने भी भक्ति के शास्त्र नही सूत्र दिये हैं, जिन सूत्र को गहकर व्यक्ति आसानी से अंधकार को पार कर सकता है। भक्ति तो गीत है, दीवानगी है, अश्रु है, अनुराग है, जीवनोत्सव है, इसलिए दुनियादारी एक किनारे करके मीरा गाती है, नाचती है और गिरिधर के रंग में रंग जाती है। सूर सूरसागर में ऊभचूम करने लगते है। तुलसी की भक्ति का मन जब “मानस नहीं” भरता तो वह कवितावाली-दोहावली गाने लगता है भक्ति में निहित इसी मस्ती को छानने के लिए भक्त गण राज पाट धन-दौलत यहां तक कि मुक्ति भी नकार कर भक्ति की मांग करते है। हनुमान जी की यह दशा है कि जहाँ रघुनाथ की गाथा गाई जाती है वहाँ वे अश्रु छलकाते उपस्थित रहते हैं। भक्तिस्वरुपा माता सीता ने भी हनुमान जी को वरदान देते हुए कहा था कि “तुम पर रघुनाथ जी नेह की वर्षा करते है”।
भक्ति लगी की वस्तु है। लगी नहीं कि समझिये ज़िंदगी तर गी, विहाल हो गई। सारी भाव बाधा दूर हो गई इसमें राधा माधव हो जाती है और माधव राधा। भक्त ज्ञान का पहाड़ा भूलकर प्रेम का पाठ पढ़ने लगता है और वह पोथी नहीं ढाई आघर पढ़ता है और सब कुछ पा जाता है।
“हहिहिं साध्यते भक्त्या प्रणामं तत्र गोपिका”
की पहली शर्त ज़रूर है, किन्तु रिरियाहट उसकी नियति नहीं। वह रिरियाती नहीं, वह पुकारती है। यही प्रकार भजन-कीर्ति और अजान होती है जो आराध्य को चाहे वह जिस किसी बाल में हो खींच लाती है। द्रौपती ने पुकारा, कृष्ण चीर बन गए। गज ने पुकार, गंडक तीर पहुँच गए। मीरा ने पुकारा उसके एक तारा बन गए। जब सूर से बाँह छुड़ाकर भागने लगे तो सूरदास रिरियाये नहीं। अपितु ललकारते हुए कहा –
“बाँ छुड़ाये जात हौ अबल जानि के महि।
हृदय से चले जाव तो मर्द बखानौ तोहीं।।”
भक्त के आत्मनिवेदन और विनय में रिरियाहट नहीं होती आत्मविश्वास, श्रद्धा और अनुराग होते हैं। उसी अनुरागवश वासुदेव हो जाते हैं। कभी उखलन में बँध जाते हैं। कभी गाय नचाने लगते हैं। चराने लगते हैं तो कभी माखन चोरी के लिए पकड़े जाते हैं। धन्य है भक्त और वृंदावन जो भगवान सहित भक्ति को भी नचाते हैं –
“वृंदावनस्य संयोगत्युनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्ति यत्र च्।।” – 1-1-96
यही कारण है कि भगवान अपना अपमान सह सकते हैं किन्तु भक्तों का नहीं अपना वचन छोड़ सकते हैं, किन्तु भक्त को दिए हुए वचन को हर हाल में निभाते हैं। वे बैकुण्ठ को छोड़ सकते हैं परन्तु भक्त के हृदय निवास नहीं।
“नाहं वसामि बैकुण्ठे, योगिनां हृदयेषु च मत भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।”
ज्ञान और वैराग्य भक्ति के आत्मज हैं। भक्ति के आते ही व्यक्ति को संसार का वास्तविक ज्ञान असली तात्पर्य भासित हो जाता है। यह ज्ञान तर्क-वितर्क, वाद-वितंडा से कम और श्रद्धा-विश्वास से अधिक जुड़ा होता है। मतवाद नहीं, संवाद होता है। विराग के भीतर भी परमात्मा का – इन दोनों से भक्ति पुष्ट होती है। ह भी ध्यान रहे कि भक्ति तर्क को एकदम से नहीं अस्वीकारती। अंध श्रद्धा, अन्ध विश्वास, सकाम प्रेम भक्ति के स्वरूप में शामिल नहीं। भव को बंधन समझकर रस्सी तोड़ाकर पर्वत पर भाग जाना, धुनी रमाना, माया के भय से भाग खड़े होना, ये भक्ति के भाव नहीं हैं। वह जीवन को इंच-इंच स्वीकारती है, जीती है – उत्साह से जीती है, कण-कण में सीयाराम के दर्शन करती है। प्रणाम करती है और उदास निराश चेहरे पर मुस्कान बिखेरती है। वह ज्ञान की तरह स्थितप्रज्ञ नहीं रहती। वह हर रंग को , हर मौसम को अहोभाव के साथ स्वीकारती है और शरद की ज्योत्सना और वृंदावन जैसी जगह, अनुकूल काल स्थान पाकर नाचने लगती है। सुख-दुख को ईश्वर की ही देन समझकर भोगभाव से स्वीकारती है। वह भागती है आडम्बर से, चाहे वह अनुष्ठान का आडम्बर क्यों न हो। वह परहेज करती है, पुरोहिताई से, क्योंकि भक्ति भगवान से सीधा-सीधा साक्षात्कार चाहती है। सम्पर्क चाहती है, संवाद चाहती है। वह किसी को बीच में लाना पसंद नहीं करती। पुरोहित बिचौलिया होता है। क्रियाकांड में भरमाता है। राम में सीधे रमने के लिए अवसर नहीं देता। द्रावीड़ प्राणायाम कराता है। “हरितालिका में जो नारी व्रत नहीं करती वह अमुक दोष से ग्रस्त हो जाती है।जो लोग नरक निवारण चतुर्दशी नहीं करते वे कुंभीपाक नरक में जाते हैं।” परन्तु भक्ति तो सीधे-सीधे कहती है जो हरि को भजता है वह हरि का हो जाता है। वह कभी नहीं पछताता।
भक्ति मिथ्याचार और चमत्कार से भयभीत रहती है। चमत्कारी स्वामियों से कोसों दूर रहती है। चमत्कार के चक्कर में स्वामी पड़ सकते हैं परंतु गोस्वामी नहीं। गोपियाँ कभी कृष्ण के चमत्कारों से अभिभूत नहीं हुईं। वे तो उसके वंशी वादन से, नर्तन से विबोर होती थीं, रास से रसमय होती थीं, उसकी सहजता पर रीझती और कुटिलता पर खीझती थीं। भगवान का भी यही हाल था, तभी तो आज भी हंसुला की सदा कगरी को कंजन की छैंया को मटकी के माखन को नहीं भूल पाये। राम हनुमान के अदभुत करतब के ऋणी नहीं बनते अपितु उनके निरभिमान भक्ति व्यवहार के ऋणी हो जाते हैं। उनके सहज स्नेह पर वे बेमोल बिक जाते हैं। जब राम हनुमान से कहते हैं कि मैं तेरा प्रतिउपकार नहीं कर सकता, तेरे ऋण का चुकारा नहीं कर सकता, तब हनुमान जी प्रशंसा की इस बड़ी आँधी में भी आन्दोलित नहीं होते और कहते हैं “प्रभु यह सब आपकी कृपा का प्रताप है, वरना इस डाली से उस डाली कूद करने वाले बंदर की औकात ही क्या है ?” इतना नहीं वै प्रभु प्रशंसा से अकुला जाते हैं। बोझ सम्हाल नहीं पाते और श्रीराम के चरण पर प्रेमाकुल होकर गिर पड़ते हैं –
“सुनि प्रभु वचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुमत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।” – सुंदर कांड 32
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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11. अपवित्रो पवित्रो वा
बहुत छुटपन से इस मंत्र को सुनते और इससे जुड़े पूजन-विधान को सुनते-देखते आ रहे थे –
ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
यः स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।
पिताजी नित्य पूजन प्रारंभ करने से पूर्व इस मंत्र को पढ़कर ‘विष्णु र्विष्णुर्हरि हरिः’ कहते व जल छिड़कते हुए देह, पूजन द्रव्य एवं भू शुद्धिः करते थे। आज स्वयं नित्य-पूजन अनुष्ठान करने के पूर्व उक्त श्लोक का उच्चारण करता हूँ – टेप की तरह औरशुद्धता का कर्मकाण्ड पूर्ण कर लेता हूँ – सोचविहीन क्रिया की तरह। इस क्रिया के द्वारा बाहर भीतर से कितना पवित्र हो पाता हूँ, वह तो हरि जाने, परन्तु अब जबकि सोचने की उम्र को जी रहा हूँ तब कभी-कभार बाबा तुलसी से बतियाते और भागवत के आंगन में रमते हुए लगता है कि सच में हरि का स्मरण पूजन पूर्व विधान ही नीहं, विश्वास भी है। भाव-कुभाव से सोच-असोच से जैसे तैसे प्रभु का स्मरण आत्म अभिषेक है। मल धुले वा न धुले, मंगल का आमंत्रण है –
हरिर्हरति पापानी दुष्टचित्तैपरि स्मृतः। अनिच्छा्याsपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः।
अज्ञानादथवा ज्ञानादुक्तमश्लोकानाम् यत्। सङकीर्तनमघं पुंसो दहेदेधोयथानलः।।
यथागदं वीर्यतममुयुक्तं यहच्छ्या। आजानतोsप्यात्मगुणं कुर्यान्मन्त्रोsप्युदाहृतः।।
- भाग 6-2-18-19
तात्पर्य स्पष्ट है। हरि का गुणानुवाद इच्छा या अनिच्छा के साथ किया जाये, वह मन के मैल को जला डालता है – जैसे आग ईंधन को। जाने अनजाने अमृत पीने पर अमरत्व तो मिलता ही है। मंत्र चाहे जाने-अनजाने में उच्चरित हो, वह निष्फल नहीं होता। राम-कृष्ण नाम तो महामंत्र है।
अतिरिक्त श्रद्धावश विशाल बुद्धि व्यासदेव ने यह बात नहीं कही है। महाभारत जैसे महानग्रंथ लिखकर जब वे आत्माराम न हो सके, अकृतार्थता उन्हें सालती रही तब वे नारद के सदपरामर्श से हरि स्मरण के ग्रंथ भागवत-रचना में रमे और कृतार्थता की प्राप्ति हुई। महाभारत की मार-काट, कुटिलता, द्वेष-दंभ, छल-कपट ने तो उनकी शांति चौपट कर दी थी। गुहा निवासी धर्म की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते वे स्वयं अशान्त से रहे। शांति, संतोष, आनन्द, कृतकृत्यता तो उन्हें भक्ति काव्य श्रीमदभागवत से मिले। अतः भागवत व्यासदेव के अनुभूत का आख्यान है, अतिरिक्त श्रद्धा या भक्ति का भावावेश नहीं। आप भी आजमा सकते हैं।
पवित्रता का एकमात्र स्नान है। मलापकर्षण का नाम स्नान है। मल चाहे देह का हो या मन का, वह स्नान से ही धुलता है। मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, वारुण स्नान और मानस स्नान –
मान्त्रं भौमं तथाग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च।
वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात्।।
आपो हि षष्ठादिभिर्मान्त्रं मृदालम्भस्तु पार्थिवम्।
आग्नेयं भस्मना स्नानं वायव्यं गोरजं स्मृतम्।।
यत्तु सातपवर्षेण स्नानं तद् द्व्यमुच्यते।
अवगाहो वारुणं स्यात मानसं ह्यात्मचिन्तनम्।।
‘ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा’ यह मानस स्नान है। आभ्यन्तर का अभिषेक है। हरि स्मरण का आग्रह है। आत्म चिंतन है। यही वास्तविक स्नान है। देह शुद्धि जन्म से हो जाती है, परन्तु आत्म-शुद्धि के लिए मानस चिंतन अनिवार्य है। माया की नगरी में चाहे जैसे भी सयाने आयें, बेदाग नहीं बच सकते। कबीर जैसे सयाने संत ही दावा करसकते हैं कि उन्होंने चदरिया ज्यों की त्यों धरदीनी। फिर भई वे माया का लोहा मानकर कहते हैं कि ‘राम चरण’ में रति होने से ही गति मिल सकती है –
राम तेरा माया दुंद मचावे।
गति-मति वाकी समझि परे नहिं, सुरनर मुनिहि नचावे।
अपना चतुर और को सिप्ववै, कामिनि कनक सयानी।
कहै कबीर सुनो हो सन्तों, राम-चरण रति मानी।
पूजा बर बाठा रहता हूँ और मन में माया द्वन्द्व मचाती रही ती है। घरु, मिट्ठ, करु – दुनियाभर की बातें मन को नचाती रहती हैं और मन को तो नाच पसन्द ही है। पूजा के बीच में कुछ सोच बैठता हूँ। बोल पड़ता हूँ। संदीप टोक देता है – “बाबूजी ! पूजा कीजिए, बाकी बात बाद में।” झेंपता हूँ। चित्त को मोड़ता हूँ – हरि स्मरण की ओर। पुण्डरीकाक्ष का स्मरण मान स्नान जो है –
अतिनीलघनशामं नलिनायतलोचनम्।
स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम्।। - वामनपुराण
अर्थात् नीलमेघ के समान श्यामल कमल लोचन हो जाता है। हरि का स्मरण कर व्यक्ति नहा जाता है, पावन सोचू उम्र और पंडितम् मन्य प्रवृत्ति। छोटी सी बात विचार का विषय बना लेती है।पद-पदार्थ पर आगे-पीछे विचार करने लगती है। मामंसक की तरह बाल की खाल निगालने लगती है। जबकि दास कबीर ठौका बात कह गये हैं कि पंडित बनने के िलए प्रेम का ढाई आखर ही पर्याप्त है, परन्तु ‘संसकिरत भाषा पढ़ि लीन्हा, ज्ञानी लोक कहो री’ इस गुमान को गौरवान्वित करने सोचू मन उपर्युक्त मंत्र श्लोक की मीमांसा करने लगता है। मीमांसा कहती है कि शुद्ध पवित्र मन से भगवत भजन करने से फल मिलता है, फिर ‘अपवित्रो वा’ पद से ही जब काम चल सकता था, तो ‘सर्वावस्था गतोsपि वा’ पद बंध का विन्यास क्यों किया गया ? जबकि संस्कृत के वैयाकरण अर्ध मात्रा लाघव को पुत्र जन्मोत्सव जैसा आनन्द मानते हैं, तब इस बड़े पदबंधका प्रयोग आनन्द में अवरोध है कि नहीं ?
गहरे पैठकर देखियेतो इस छोटे श्लोक में सारे पद विन्यास सार्थक हैं, चौकस हैं, अर्थानुष्ठित हैं। हरि-स्मरण की सहज महिमा का अवबोधक ये पद साफ-साफ कहतेहैं श्याम संकिर्तन व्यक्ति चाहे बिना नहाये-धोये, मन को भिगोये बिना करें अथवा स्नान ध्यान करके वह बाहरःभीतर से पावन हो उठता है। स्मरण की महिमा ऐसी है कि वह अपवित्र को पवित्र और पापी को पावन बना देती है, स्मरणीय बना देती है। वाल्मीकि इतने डूबे हुए थे कि मुख से सही भगवान्नाम उच्चरित नहीं हो पा रहा था। ‘राम-राम’ के बदले ‘मरा-मरा’ जप रहे थे, परन्तु उल्टा नाम जप कर मभी ब्रह्म समान हो गये। द्रौपदी ने हरि का स्मरण किया। स्मरण करते ही उसका गुमान गल गया, श्याम दौड़ पड़े और वह पावन हो उठी। पवित्र होने के लिए तो स्मरण किया जाता है –
कृष्णेति मङगलनाम यस्य वाचि प्रवर्तते। भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः।।
यहाँ फिर मीमांसा की जा सकती है कि जो अपवित्र है वह हरि स्मरण करे – पवित्र होने के लिए। पवित्रों के लिए जरूरी तो नहीं लगती। दरअसल हरि स्मरण सबके लिए निरंतर जरूरी है। तिरगुन फाँस लिये डोलती माया निरंतर बाँधने के लिए चौकस रहती है। थोड़ा भी लोभ मोह जन्य असावधानी दिखी की वह बाँध लेती है। नारद मुनि से ज्यादा कौन पावन होगा, परन्तु वे भी माया के चक्कर में पड़ गये। नर से वानर हो गये। लोग पवित्र होकर भी पापी हो जाते हैं – पवित्र पापी। गंगा-यमुना नहाने के बाद भी मैं नहीं धुलता। कपड़ा रंगाकर भी मन नहीं रंगता राम में। माला फेरते युग बीत जाता, पर मन का फेर नहीं मिटता। नाम बेचकर साधुता की दुकान चलाते रहते हैं –
भगति विराग ज्ञान साधन कहि, बहुविधि डहकत लोग फिरौं।
सिव सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं।। - विनय पत्रिका 141
इसीलिए मंत्र कहत है कि पवित्रो हो अथवा अपवित्र प्रभु का स्मरण करते रहो। बाहर-भीतर से पवित्र होते सहे। राम में रमते-रमाते रहे। किसी अवस्था, देश, काल में रहो नाम जपते रहो। पावन हो तो और पावन हो जाओगे। सुंदर हो तो और सुंदर हो जाओगे। भारद्वाज मुनि क्या कम पवित्र थे ? परन्तु आश्रम में राम के पग पड़ते ही और पवित्र हो उठे। पावनता में नहा उठे। कृतार्थ हो उठे।
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आज सुफल जप जोग बिराजू।
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू।। अयोध्या कांड 107
भगवान ने अपने स्मरण की छूट तो यहाँ तक दी है कि व्यक्ति चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते देश –काल के नियम से परे होकर स्मरण कर सकता है। आश्चर्य, भय, शोक, क्षत, मरणासन्न – किसी भी दशा में ईश्वर स्मरण कल्याणकारी है –
न देश नियमो राजन्न काल नियमस्तथा। विद्यते नात्र संदेहो विष्णोर्नामानुकीर्तने।।
आश्चर्ये वा भये शोके क्षवेवा मम नाम यः। व्याजेन वा स्मरेत् यस्तु ययाति परमां गतिम्।।
अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्था गतोsपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षां स बाह्यान्तरः शुचिः।।
गोपियों ने प्रेम से, कंस न भय से, शिशुपालन जैसे राजाओं ने द्वेष से, वृष्णिवंशी यादवों ने संबंध से, पाण्डवों ने स्नेह से और नारद जैसे भक्तों ने भक्ति भाव में डूबकर भगवान का स्मरण किया और सभी प्रभु को पा गये। वैरानुबन्ध से स्मरण तो और भी तन्मय बनाकर पतित को पावन बना देता है, क्योंकि बैर तीव्रता सेदिन-रात बैरी का स्मरण दिलाता रहता है। हाँ, क्षुद्र से बैर ठानने में क्षुद्रता ही हाथ लगती है। अतः रावण-कंस जैसे महान पापियों ने महानाम परमात्मा से शत्रुता करके वे सबके शरण को पा गए। बाहर-भीतर से पवित्र हो गये –
तस्माद् वैरानुबन्धन निर्वैरेण भयेन वा।
स्नेहात्कामेन का युञ्जयात् कथञ्चिन्नेक्षते पृथक्।।
गोप्यः कामाद् भयादकंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहात यूयं भक्तया वयं विभो।। - भागवत 7-1-25-30
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
posted by जयप्रकाश मानस @ 11:35 AM 1 comments
10. कृतार्थता की आकांक्षा और भागवत
बरुत नामी, ज्ञानी-ध्यानी, शोहरतशुदा तख्त-ताजधारी व्यक्ति सफलकहला सकता है, समृद्ध और प्रतिष्ठित हो सकता है, पर वह कृतार्थ ही हो सकता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सामान्य की बाद जाने दें, विशाल बुद्धि व्यास जैसे मुनि की भारत कौन कहे महाभारत जैसा अदभुत ग्रंथ रचकर – ज्ञान, दर्शन, धर्म का संदोह, वेदोपवृंहणन महान काव्य लिखाकर ही कृतार्थ नहीं हो सके। विश्वास इतना बढ़ गया कि उन्हें लगा कि जो कुछ महाभारत के घट बीत जाने के बाद उनका मन अकृतार्थता के बोध से उदास हो चला। घटनाओं के मलबे से चीत्कार की उठती प्रतिध्वनि उनकी संवेदना को सालने लगी। ध्वंसजन्य सन्नाटा अशांत करने लगा। धृतराष्ट्र, दुर्योधन, द्रौपती, अश्वत्थामा के अंधापन, घमंड, पुकार, कुंठाग्रस्त हिंसा और जीतकर हार गये युधिष्ठिर का बोध, सबसे उपजा सन्नाटा बहुत गहरे उतरकर व्यास की तटस्थता को कुरेद रहा था। धर्म-दर्शन के सारे ज्ञान, विदुर की नीति, कृष्ण-भीष्म जैसे लोगों का होना ही त्रासद यथार्थ को घटित होने से नहीं रोक पाया था। उसकी त्रासदी कदाचित व्यास के कवि हृदय को बेचैन किये बैठी थी। वे अपनी अकृतार्थता को कुछ-कुछ महसूस करते हुए कहते हैं – महाभारत के बहाने मैंने वेदों के अर्थों को खोल दिया ताकि सभी उसका लाभ ले सकें। अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकें। यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ तथापि मेरा हृदय अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है –
भारत व्यापदेशेन ह्याम्नार्थश्च दर्शितः।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्री शूद्रादिभिरप्युत।।
तथापि वत में दैह्यों ह्यात्मा चैवात्मना विभुः।
असम्पन्न इवाभांति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः।। - भागवत 1-4-29-3-
व्यास जी अकृतकाम खिन्न हो बैठे थे, तभी नारद जी वहाँ पधारे। कुशल-क्षेम और आतिथ्य ग्रहण करने के बाद कुशल वैद्य कीतरह नाड़ी टटोले बिना चेहरे को पढ़कर ही नारद ने व्यास की अकृतार्थता को पहचान ली। और मानों उनके समग्र ज्ञान की खान महाभारत पर व्यंग्य मुस्कान चस्पा करते हुए वे बोले – महाराज व्यास जी। धर्मादि सभी पुषार्थों से परिपूर्ण महाभारत रचकर आप अपने कर्म एवं चिंतन से संतुष्ट हैं न ? सनातन ब्रह्म तत्व को आपने जान ही लिया है, फिर भी आप अकृतार्थ नर के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? व्यास जी ने स्वीकृति के स्वर में कहा – नारद जी। सच में परब्रह्म और शब्दब्रह्म को जान लेने के बाद ही कहीं कोई कमी रह गई है, जिससे मेरा परितोष अधूरा है। कृपया आप ही इस अधूरेपन का कारण बतायें –
नारद उवाच
पराशर्य महाभाग श्वतः कच्चिदात्मना।
परितुष्यति शरीर आत्मा मानस एव वा।।
जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदभुतम्।
कृतवान भारतं यस्त्व सर्वार्थपरिबृहितम्।।
जिज्ञासितमधीतं च यत्तदब्रह्म सनातनम्।
अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो।।
व्यास उवाच
अस्त्येव में सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते में।
तन्मूलमव्यक्तमगाथ बोधं
पृच्छामहे त्वssमश्वात्मभूतम्।। - भागवत 1-5-2,3,4,5.
वस्तुतः महाभारत में सब कुछ होते हुए भी वह नहीं है, जो कृतिकार औस उससे साक्षात्कार करने वाले पाठक-श्रोता को कृतार्थ कर सके। माना कि उसमें धर्म, दर्शन, इतिहास वेद की व्याख्या सब कुछ है, परन्तु वह जो प्रभाव छोड़ता है, उसमें सब कुछ दब सा जाता है और उभरकर आती है मृत्यु की त्रासदी, ध्वंस की पीड़ा, मानवी नियति की विडंबना, करुण गाथा। व्यास मुनि जिन मूल्यों को सम्प्रेषित करना चाहते थे, अपने जिन बोधों से संसार को संस्कारित करना चाहते थे, सब हो नहीं पाया, घात-प्रतिघात, दंभ-द्वेष और काल की निर्ममता की गाथा बनकर ही महाभारत रह गया। आज भी महाभारत को लोग न पढ़ना पसंद करते हैं न घर में रखना। यह अकृतार्थता का सबसे बड़ा सबूत है। जो कृति लोक स्वीकृति नहीं पा सकी वह भारत हो या महाभारत वेद हो या पुरण न खुद कृतकृत्य हो सकती है न लेखक को बना सकती है और न लोक को। लोग उसी युद्ध की गाथा सुनना पसंद करते हैं, जो गाथा श्रेय-प्रेय को बढ़ावा देती हो, भाई-भाई के द्वन्द्व और छल-छद्म की नहीं। रोजमर्रा रोज-ब-रोज उ्हें स्वाद्व स्वार्थ-संघर्ष में तो घसीटता ही रहता है। देशी संस्कृति और मानस जीवन के दुखद अंत का अभ्यासी नहीं। इन्हीं सब कारणों से महाभारत और व्यास दोनों उतने लोक स्वीकृत नहीं हो सके जितना वाल्मीकि और उनकीरामयण,तुलसी और उनके ‘मानस’ (व्यास ने यदि श्रीमद भागवत की रचना नहीं की होती तो संभवतः और अलोकप्रिय तथा अकृतार्थ रह जाते। नन्द दुलारे वाजपेयी का मनना है) “महाभारत के गीता प्रकरण में महाकवि ने आँसू पोंछने की चेष्टा न की होती तो उसका अध्ययन करने का साहस एक भी व्यक्ति न कर सकता। उसका अंतिम शांति पर्व तो विकट अशांतकारी है।” – हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी पृष्ठ 42
बहस की जा सकती है कि महाभारत में भी तो कृष्ण हैं ही। उनके बिना महाभारत कैसा? रामायण या मानस में राम हैं, तो महाभारत में कृष्ण, फिर व्यास को कृतार्थता क्यों नहीं मिली ? कृतार्थ होने के लिए क्या जरूरी है कि भगवान की चर्चा और अर्चा की जाए ? बहस तर्क आश्रित होती है और तर्क का कोई अन्त नहीं। नारद जी साफ-साफ व्यस जी से कहते हैं कि आपने भगवान के निर्मल यश का गान प्रायः नहीं किया है। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होत, वह शास्त्र और ज्ञान अधूरा है। आपने वासुदेव की महिमा का वैसा वर्णन नहीं किया है जैसा धर्म आदि पुरुषार्थों का। जिस वाणी से श्रीकृष्ण का गुणगान नहीं होता वह कौओं के उच्छिष्ट अन्न फेंकने के स्थान जैसा अपावन होता है, वहाँ हंस नहीं जाते –
भवानुदितप्रायं यक्षो भगवतो मलम।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तददर्शनंखिलम्।।
यथा धर्मादयाचार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्युनुवर्तितः।।
न यद्वचश्चित्र पदं इर्श्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीतकीर्जित।
तदवायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमुन्त्यशिक्क्ष्याः।।
- भाग 1-5, श्लोक 8-9-10
तुलसीदास बी प्रकारन्तर से इसी बात का समर्थन करते हैं –
किन्हें प्रकृतजन गुनगाना। सिर धरि गिरा लगी पछिताना।।
यहाँ फिर बहस को बढ़ाई जा सकती थी कि भगवान का गुणगान ही क्या वाणी की धन्यता केलिए जरूरी है ? फिर सदियों से इतने काव्य क्यों लिखे जा रहे हैं ? फिर तो कुरान, पुराण, बाइबिल लिखे जाने के बाद शेष की जरूरत ही नही थी। ऐसी बात नहीं है। दरअसल भगवान के गुणों के बखान और यश के कीर्तन से तात्पर्य मनुष्य के ही उन मूल्यों और कर्मों का कीर्तन करना है, जो लोक-परलोक को साधने के लिए जरूरी है। सत्य, शील, सौन्दर्य और शक्ति के पर्याय का नाम भगवान है। परोपकार, दया,दान आदि धर्म के समस्त मान मूल्यों का आचरण भगवान के गुणों का गान है। मनुष्य बेहतर दशा दिशा प्रदान करने एवं उसे नर से नारायण बनाने के लिए नारायण विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं, वरना, क्या जरूरत है उस अनादि अनन्त अजन्मा को यहाँ अवतरित होने की। वस्तुतः प्रत्येक के भीतर बसेवासुदेव जिस शास्त्र या रचना विधान से प्रसन्न नहीं होते, वह अधूरा है। जिस कला या ज्ञान के द्वारा लोकसंग्रह यालोक मंगल की श्रीवृद्धि नहीं होती, वह कृतार्थता नहीं दे सकती। महाभारत की नियति ऐसी ही रही। युधिष्ठिर जीतकर भी हारे हुए लगते हैं और भीष्म इच्छा मृत्यु का वर पाकर भी अभिशप्त। शर शय्या पर महीनों सोते रहने के लिए शापग्रस्त/ द्रोणाचार्य का गुरुत्व ग्लानि में डूबा हुआ है। व्यास इतना महान ग्रंथ रचकर भी अकृतार्थ हैं, क्योंकि यह रचना लोगों को रच नहीं सकी। युधिष्ठिर जैसे धर्मधुरीण स्वर्ग में भी पहुँचकर दुर्योधन को सुख मनाते और अपने भाइयों को दुःख से हाय-हाय करते देख अड़ गए कि उसे भाइयों के साथ नरक में रहना पसंद है, पर यहाँ नहीं। येसब अकृतार्थता के सबूत हैं। शून्यता के प्रमाण हैं।
तुलसी वाल्मीकि व्यास सबेस कृतार्थता के तत्व को लेकर मानस की रचना करते हैं। वे उन तत्वोंको छोड़ते चलते हैं जो जो वास्तव होकर भी लोक के मूल्वान नहीं होते/कृतार्थ करने के योग्य नहीं होते। सीता निर्वासन के प्रसंग को तुलसी पूरी तरह छाँट देते हैं, क्योंकि वह प्रसंग लोक को अब भी सालता है, करुणा को भी करुणा से भर देता है। महाभारत भाई-भाई के बीच मरणोपरान्त भी बैर को शमित नहीं करपाया। राज्य की खातिर बंधुता को नष्ट करता है, जबकि मानस यारामायण बंधुता की खातिर राज्य का त्याग करना सिखाता है। बड़ी से बड़ी कुर्बानी देना सिखाता है। भ्रातृ प्रेम को केन्द्रस्थ भाव मानता है, यही कारण है कि ’मानस’ की चौपाई मंत्र बन गई और महाभारत के श्लोक पुण्यश्लोक नहीं बन पाये। व्यास देव भी महाभारत के प्रसंगो को एकदम काट-छाँट करते हैं, अनुच्छेद परिवर्तन भागवत जैसे काव्य ग्रंथ रचनाकार को सच में कृतकृत्यता देते हैं। जहाँ प्रेम ही प्रेम हो वहाँ ईर्ष्या-द्वेष, संगर्ष, दंभ-अहंकार, लोभ-मोह जैसे अशांत करने वाले भाव कैसे टिक सकते हैं। यहाँ दया, उदारता, परोपकार, दान, धर्म, नियम-संयम जैसे दैवी गुणों का गान है – मानव को देव बनाने के लिए। प्रीति की रीति है – रमणीय में रम जाने के लिए। राधा भाव है – माधव बन जाने के लिए। भक्ति भाव है – सभी धर्मों से ऊपर, कुल कानि जाति-पांति की बड़ाई से बड़ा साझा भाव। रास है, जिसमें रास बिहारी का निवास है (रसौ वे सः) जहाँ रासेश्वर स्वयं बंशी बजाते, नाचते हैं और भक्त के साथ-साथ भक्ति भी नाच उठती है। वहाँ कृतकृत्यता दूर कैसे रह सकती। ये तो ऐसे भाव हैं जो दूर खड़े को भी पास खींच लेते हैं, रमा लेते हैं, समा लेते हैं।
भागवत में उन भावों का व्यास ने परित्याग कर दिया है, जो उन्हें महाभारत में थका चुके थे, आकुल कर चुके थे। कृष्ण जैसे को भी कपट और क्रूरता के लिए विवश होना पड़ा था। विदुर की उपेक्षा और भीष्म की अनसुनी कर दी गई थी। वे इसमें कौरवों के युद्धोन्माद और पांडवों की युद्धोन्माद में शामिल होने की विवशता के वर्णन से बचते हैं और त्रासद घटनाओं का उल्लेख भर करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। वे महाभारत की तरह धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में लहुलुहान होती मानवता को नहीं देखना चाहते, धर्म की गुहा में मनुष्य को उलझाना नहीं चाहते हैं। वे भक्ति भाव में सबको सराबोर करना चाहते हैं। कृतकृत्य होना चाहते हैं। भागवत की शरुआत में ही वे भक्ति को परमधर्म मानते हैं और वासुदेव में सबका वास-समाहार –
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
अहेतुक्यप्रतिहता यया त्माssसम्प्रसीदति।।
तस्मादेकेन मनसा भगवान सात्वतां पतिः।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यरच ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा।।
यदनुध्यसिना युक्ताः कर्मग्रन्थिनिबन्धनम्।
छिन्दन्ति कोविदास्तस्यकोनु कुर्यात् कथारतिम्।।
वासुदे परा वेदा वासुदेव परामखाः।
वासुदव परा योगा वासुदेव परा क्रियाः।
- भागवत 1-1-6,14,15,28
व्यथा कथा के भवजाल में फँसनेके बजाय व्यासजी की अकृतार्थता अपनी कृतार्थता के लिए वासुदेव-कथा-रति को ही अपनी गति बनाती है और भटकाव से बचने के लिए भागवत रचना के दस प्रस्थान बिन्दु निर्धारित करती है –
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः।
मन्वन्तरेशानकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः।।
ऐसा सोचना भूल है कि व्यासदेव महाभारत कथा से आकुल-व्याकुल होकर भागवत-कथा में पलायन कर गये। पलायन तो इस देश ने कभी सीखा ही नहीं। न प्रेम जीवन के संघर्ष से पलायन है, भक्ति। भक्ति तो वह शक्ति है जो व्यक्ति को टूटने से बचाती है, बैकुंठ बनाती है, जीवन जीने में रसप्रदान करती है। भगवान कृष्ण की रणछोर उपाधि पलायन नहीं, अपितु पैंतरा बदलकर दुष्ट दलन और सज्जन रक्षण के एक उपाय का पर्याय है। सब धर्मों-प्रपंचों का पूर्णविराम है भक्ति। अतः इसी भक्ति को भागवत के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर व्यास स्व और पर को कृतकृत्यतो छकककर परोसते हैं। राधा-माधव गोपिकाओं में डूबते-डूबते हैं। माधव यदि रसमय विग्रह हैं तो सोलह हजार गोपिकाओं की राशिभूत पीड़ा की पर्याय राधा मिठासमय प्राण रासेश्वरी –
सोलह सहस पीर तर एकै
राधा कहिए सोई।
राधा रासेश्वरी की आह्लादिनी शक्ति है। महाभाव रूपा। आधा प्रकृति। नितय् लीला सहचरी। आह्लाद महाभाव से भावित प्रेम परिपूर्ण लीला का काव्य भागवत, जो विद्वानों और श्रोताओं को एक साथ आह्लादित करता है, राधा-माधव भाव से भावित करता है, सच में कृतार्थता का काव्य है। यहाँ कर्म है तो समर्पण लिये, वैराग्य है तो अनुराग लिये, वध है तो उद्धार के लिए – वध किया ही जाता है लोक उद्धार के लिए। आकुल करने वाली कथा का संदर्भ देकर लीन करने वाली कथा-लीला का गायन है। यहां कुरुक्षेत्र और द्वारका का उतना महत्व नहीं है, जितना ब्रज रेणु-धेनु गोपी-ग्वाल का है। रसराज श्रृंगार से सिक्त माधुर्य गुण से मधुमय सख्यभाव का यह काव्य किसे कृतकृत्य नहीं करता ? ज्ञान यहाँ गदगद हो जाता है। विश्वास न हो तो उद्धव जी से पूछ लीजिए, थोड़ी देर के लिए गोपी-ग्वाल बनकर देख लीजिए। बारह स्कन्धों में रचित भागवत का दशम स्कन्ध जो कृतार्थता का मूल स्रोत है, पूरे भागवत के एक तिहाई से भी ज्यादा भाग में फैला हुआ है। भागवत का सार है। जैसे तुलसी हृदयस्पर्शी प्रसंगों का, तल्लीन करने वाली लीलाओं का रम-जमकर वर्णन करते हैं वैसे ही व्यासदेव दशम स्कन्ध की लीलाओं में लीन से हो गये हैं। लीला वर्णन करते-करते लीलामय हो गये हैं।
इस दशम स्कन्ध को रचते-रचते व्यास देव स्वयं रच गये हैं। श्रद्धालु सुनते-सुनते गदगद हो जाते हैं। इस स्कन्ध की वाणी धन्य हो जाती है। प्रकृतजन अपने ही भावों का गुणगान कृष्ण लीला गान को मानकर तृप्त हो जाते हैं। यहाँ मैं ‘हम’ में समा जाता है, स्वार्थ परमार्थ के लिए समर्पित हो जाता है। महाभारत की तरह रिक्तता, खीझ, त्रास, करुणा और धर्म का उलझाव नहीं है। द्रौपदी धर्मवृंद सभासदों से सवाल करती है कि जब मेरे पति युधिष्ठिर मुझे दांव पर चढ़ाने से पूर्व अपने को ही हार चुके थे, फिर मुझे दांव पर कैसे चढ़ा सकते थे ? और यदि एक हारे हुए जुआरी के द्वारा मैं दांव पर चढ़ा भी दी गई, तो क्या मैं दुर्योधन की दासी बन गई ? धर्म धुरंधर भीष्म ‘धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है’ कहकर उलझा सा जवाब देकर चुप हो गये। ज्ञानवृंद द्रोण चुप्पी साध गये। धर्मावतार युधिष्ठिर का वाक बंद हो गया और भरी सभा में – अपने ही लोगों के सामने अपनों के ही द्वारा ऐसी अपमानित होती रही, जिसका घाव आज तक हरा है, भरा नहीं है। नारी जाति आज भी द्रौपदी के अपमान से चीख पड़ती है। अनेक घटनाएँ, जिनकी याद भूल से भी आ जाती है तो मानवता काँप और कचोट उठती है, महाभारत से कृतार्थता पाने का सवाल ही नहीं उठता। विदुर जी मैत्रेय ऋषि से कहते हैं – “हे ऋषि। व्यास जी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म कई बार सुन चुके हैं किन्तु अब कृष्ण कथा रूपी अमृत प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प सुखदायक धर्मों से मेरा मन ऊब गया है।” –
परावेषां भगवन् व्रतानि श्रुतानि मे व्यसमुखादभीक्षण्।
अतृप्नुमः क्षुल्लसुखावहानां तेषामृते कृष्णकथामृतौदात्।।
- भागवत 3/5/10
विनम्रता के अनुपात से अनुप्रेरित व्यास ने प्रभु से कहा था – “हे जगत के गुरुदेव। आप अरूप हैं, फिर भी ध्यान के द्वारा मैंने महाभारत आदि ग्रंथ में आपकी बहुशः रूपकी कल्पना की है, रूप में बाँधने की कोशिश की है, आप निर्वचनीय हैं, व्याख्याओं द्वारा आपके रूप को समझ सकना संभव नहीं, फिर भी वचन बाँधने का प्रयास किया है। आप सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि तीर्थयात्रा विधान से आपके उस व्यापकत्व को मैंने खंडित किया है, सीमित किया है। अतः हे जगदीश। मेरी बुद्धिगत विकलता के तीन अपराध – अरूप की रूप कल्पना, अनिर्वचनीय का स्तुतिनिर्वचन और व्यापी का स्थान विशेष में निर्देश – क्षमा करें।” –
रूपं रूपविवर्जितस्यभवतो ध्यानेन यत्कल्पितम्।
स्तुत्या निर्वचनीयता खिलगुरोदूरीकृतायन्मया।।
व्यापित्वं च निराकृतं भगवते यततीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीश, तदविकलता दोष त्रयं मत्कृतम्।।
वस्तुतः विनम्रतावश स्वीकारे गए ये दोष, दोष नहीं, गुण हैं। अरूप को रूप देकर जन-जन में रमाया गया है। जिनका ध्यान योगी भी नहीं साध पाते उन्हें ब्रज रेणु-धेनु के बीच रमाकर सर्वसुलभ बनाया गया है। तीर्थयात्रा को भगवत प्राप्ति यात्राबताकर जन-जन को जोड़ने तथा भूमा बनानेकी कोशिश की गई है। दरअसल भागवत कथा के द्वारा कृष्ण के गुण व लीलाओं का गान वाणी की धन्यता है। अक्रूरजी स्वीकारते हैं कि “जब अखिल पाप विनाशक कृष्ण मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन में स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार होता है। जिस वाणी से प्रभु का कीर्तन नहीं होता वह मुर्दा वाणी है, व्यर्थ है।” –
यस्याखलामीवहभिः सुमङगलैर्वाचेवि मिश्रा कर्मजन्माभिःय़
प्रणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति पै जगद् यास्तद्विरक्ताः भव भोगना मताः।।
भागवत 10-38-12
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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9. होने का अर्थ
‘होना’ क्रिया है। है, हूँ, हैं, था, थे, होंगे, हो सकता है, हो सकता था, हो सकेगा, हुआ होता, हो रहा है आदि-आदि होने के बहुत सारे रूपों में आदमी उदय से लेकर अस्त तक होता रहता है। अपने को अर्थवान बनाता रहता है।
शब्दों के अर्थ होते हैं। व्यक्ति व वस्तुके भी अर्थ होते हैं। अर्थ शब्द रहित शब्द शोर है तो होनेपन के अर्थ से रहित व्यक्ति हाड़-मांस का पिंड, गोबर-गणेश, मिट्टी के माधो। मनुष्य मनुष्येतर सृष्टि से इसलिए श्रेष्ठ है कि वह मनन धर्मा है। चेतना का विशिष्ट रूप है। सच्चिदानन्द का विशेष प्रतिरूप है। व्यक्त स्वरूप है। वह निरंतर अपनी सृजनशीलता के विविध रूपों के द्वारा मनुष्येतर सृष्टि से पृथक पहचान बनाता रहता है। अपने होने की सार्थकता की तलाश क्रियाओं के द्वारा करता रहता है। सर्वांगपूर्ण की बात जाने दें, विकल अंग सूरदास गीत से, गूँगा मूर्तिगढ़ के बछरा के चित्र उकेरकर लंगड़ा वाद्य बजाकर भाँति-भाँति से परम रचनकार को और अपने आसपास को अपने होने का प्रमाण देते रहते हैं।
‘होना’ क्रिया पद है। मतलब यह है कि व्यक्ति कर्म के द्वारा अवयक्त की महिमा को प्रकट कर सकता है. अपनी महिमा के प्रकटीकरण के सर्वोत्तम माध्यम के रूप में कदाचित अव्यक्त को ही चुना है। वह अवतरित होकर विविध लीलाओं के द्वारा अपने अवतारत्व का विशिष्ट बोध स्वयं कराता है। दसों अवतार एक जैसे नहीं होते। वह हर युग में अपनी संभवता की अलग-अलग पहचान कराते हैं और मनुष्य रूप धारण करने का अर्थ प्रतिपादित करते हैं। जितने संत और महापुरुण हुए हैं, कोई अहिंसा के, कोई करुणा के, कोई सेवा के तो कोई परोपकार के मिथ बन गए हैं। कवि कोकिल, खेलन कवि के रूप में यदि विद्यापति का काव्य व्यक्तित्व जाना जाता है तो सूर पुष्टिमार्ग के जहाज के साथ-साथ वात्सल्य एवं श्रृंगार के सूर के रूप में। कबीर अपनी पहचान कराते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “ऐसे थे कबीर, सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़ भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग के तुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय” – कबीर पृ.167
जाहिर है कि अवतार सहित संत साहित्यकार, अन्य महापुरुष सभी, जो गाथा के रूप में गाये जाते हैं और मानवता की उत्कृष्ट पहचान हैं, गौरव हैं, मूल्य हैं, होने के अर्थ हैं, वे सब सीख-संकेत प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से देते रहते हैं कि मनुष्य कर्म से महान बनता है, ‘होने’ पहचान बनता है, जन्म से नहीं। रामचार भाई, थे किन्तु जो राम की पहचान बनी वह दूसरे भाईयों की नहीं बन पायी। जो कृष्ण की बनी वह बलराम की नहीं बनी।
‘होने’ की पहचान सद् और बद दोनों तरह की होती है। बहुतों के आत्मीय, अनुकूल और सहज आकर्षण का केन्द्र बन जाना, मानवता को कृतार्थ करना सद् पहचान के लक्षण हैं। इसके विपरीत बद पहचान के लक्षण हैं। दोनों तरह के लोग मिलते हैं, अपितु दूसरी तरह के लोग गिनती में ज़्यादा हैं। कलियुग और कलयुग के दुष्प्रभाव से बदनाम लोग ज़्यादा मिलते हैं, परन्तु याद रहे गुमनाम से बदनाम अच्छा है। कम से कम बुरे के रूप में ही सही, राम के साथ रावण और कृष्ण के साथ कंस तो याद किये ही जाते हैं। सुबह-शाम यों ही खुद को तमाम करना, रोजमर्रे में अकारथ करना हीरा जनम को मिट्टी पलीद करना है। “उदर भरन कारने जनम गँवायो सारा”। बड़े भाग्य से चौरासी चक्कर लगाने के बाद यह सुर दुर्लभ मानुष जनम मिलता है। इस अमोल को माटी के मोल गँवा देना, लोक-परलोक सुधारे बिना गुर गोबर कर देना निहायत निखट्टूपन है।
अवसर बीत जाने पर पछताते रहना बची खुची संभावनाओं को भी गारत करना है। भला इसी में है कि व्यतीत से सबक लेकर शेष को विशेष बनाएँ। न सही महापुरुण, पौरुषवान तो बने। जब तक सामान्य से हटकर अपने किये को दर्ज नहीं कराया जाता, अपनी अस्मिता से लोगों को वाकिफ नहीं कराया जाता तब तक व्यक्ति का होना न होना एक बराबर है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि डॉक्टर नहीं बन सके तो डाकू बन जायें, समाज सुधारक नहीं रो सके तो बिगाड़क बन जाएँ। बनने या होनेका सही मतलब है कि अपनी सृजनशीलता औरस्वतंत्र चेतना का अधिकाधिक बेहतर इस्तेमाल करना। “मनुष्य की स्वतंत्र चेतना और सृजनशीलता ऐसे तत्व हैं जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करते हैं। स्वतंत्रचेता होने का तात्पर्य ही उत्तरदायी होना – किसी बाह्य सत्ता के प्रति नहीं, बल्कि अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी।” – नन्दकिशोर आचार्य – संस्कृति का व्यारण, पृ.- 11
अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी होना ही नैतिक होना है, मनुष्य होना है, सृजनात्मकता को संभावनाओं की हद तक ले जाना है। उत्तरदायित्व का यह बोध अपने साथ अन्यु गुणों को भी समेटता है, जो गुण आदमी को आदमी होने में सहायक होते हैं। होने के मार्ग में अवरोध खड़ा करने वालों के विरुद्ध संघर्ण और असहमति जताने के लिये तैयार करते हैं।
सभा सभ्यों की होती है और ससंद सद् मनुष्यों की। सभा और ससद सभ्य इसलिए कहलाती है कि वह सब के प्रति उत्तरदायी होती है, परन्तु जब वह असद् वृत्तियों से लैस लोगों का जमावड़ा बन जाती है, धृतराष्ट्र जैसे राजा और दुर्योधन जैसे सेनापति नियुक्त करती है तो नियति से ही क्रूर सत्ता द्रौपदी के चीर हरण तथा अहिल्या के शील हरण में संकोच नहीं करती। उत्तरद्यित्व के भाव से उपजी नैतिकता उसके लिए बेमतलब होती है। मतलब की होती है सत्ता। सत्ता का इस्तेमाल। कभी न तृप्त होने वाली तृष्णा का भोग। किन्तु यह भी वास्तविकता है कि कोई न कोई विकर्ण सभा में होता है जो अपने होने के साथ ही सभा के होने को भी अर्थ देने की हिम्मत करता है। भले धर्मवृंद भीष्म अपनी थोथी निष्ठावश विवश हों, पर ज्ञानवृंद द्रोण समझौतावादी बन जाएं, कर्ण बदले के कुभाव में आँख मूँद कर समर्थन कर रहे हों, नीतिवृंद विदुर धकिया दिये जाएं, किन्तु विकर्ण जैसे लोक उत्तरदायी चेतना का इज़हार किये बिना नहीं रहते। द्रौपदी के दाँव पर चढ़ाये जाने और चीरहरण मे विरोध में आवाज उठाये बिना नहीं रुकते। (महाभारतः सभापर्व, 61/21,22) भले ही नक्कारखाने में तूती की आवाज दब जाये, पर कवि की संवेदना उसे सुनती है। व्यास उसे इतिहास में दर्ज करता है। विकर्ण का होना हर सभा-समाज के लिए महत्वपूर्ण होता है। लात खाकर भी रावण की सभा में विभीषण का बने रहना, उसकी अमानवीय नीतियों का चाहे-अनचाहे समर्थन करते रहना या तो भाई-भतीजावाद का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है या असभ्य सभासद होने का प्रमाण, क्योंकि सभासद होकर सभासदों के दोषों को जानते हुए भी चुप रहना, अनभिज्ञता प्रकट करना एक प्रकार का अपराध है, दोष है –
न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषानिनुस्मरन्।
अब्रूवन् विब्रूवनज्ञोनरः किल्वषमश्नुते।।
- भागवत 10-44-10
स्प्ष्ट है ‘चीर हरण’ के साक्षी महारथियों के बी विकर्ण का विनम्र विरोध भी बड़ा महत्वपूर्ण था और वहाँ उपस्थित होने को सार्थक सिद्ध कर रहा था। उसकी उत्तरदायी स्वतंत्र चेतना का इज़हार कर रहा था। उसे उन महारथियों से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध कर रहा था, जो उससे वय, बल, ज्ञान, धर्म, नीति में अधिक प्रतिष्ठित कहलाते रहे। विवेक को मारने या ओछा बनाने के बजाय विरोध जताना ज्यादा बेहतर है. विवेकहीन श्रद्धा जताने से श्रेयस्कर है असहमति जताना – नचिकेता की तरह। धृतराष्ट्र की संसद में रहकर उसकी अंधी नीतियों का समर्थन करते रहने से कहीं अच्छा है वहाँ से हट जाना विदुर की तरह। नीति या अनीति केपक्ष में लड़ना अनिवार्य हो तो नीति के पक्ष में लड़ना उत्तम है – युयुत्सु की तरह। भयाक्रान्त और दास बनकर जीने से सुन्दर है स्वाधीन होते तक लड़ते रहना – महात्मा गांधी की तरह। रिरियाते, घिसटते जिंदगानी और दूसरे की मेहरबानी पर जीते रहने से बेहतर है कुरुक्षेत्र में लड़ते-लड़ते वीर गति प्राप्त करना।
जो मुझसे हुआ नहीं
वह मेरा संसार नहीं
कोई लाचार नहीं
जो वह नहीं है
वह होने को
– श्रीकान्त वर्मा, समाधि लेख
ठीक है कि वह मेरा संसार नहीं है जो मुझसे हुआ नहीं, किन्तु आदमी लाचार भी तो है अन्यों के संसार के समान होने को। जीने के लिए उसे वह भी करना पड़ता है जो वह नहीं चाहता है। वह जो नहीं होना चाहता, वह भी उसे होना पड़ता है, करना पड़ता है, बनना पड़ताहै। क्या उग्र विरोधी या उग्रवादी होने का मतलब यह नहीं है कि वे कहीं न कहीं सामाजिक, राजनीतिक व सत्ता के शोषण से उपजे हुए लोग हैं ? मंथरा की मति मारी जाने से क्या राम-सीता को वनवास की पीड़ा से नहीं गुज़रना पड़ा ? क्यातापस की तरह रहना चाहकर भीवनवास के दिन भी काटे जा सके ? रावण जय भय से आशंकित राम की मर्यादा क्या अपनी ही सीमा सेखा को नहीं लांघ जाती है ? पलायन में मुक्ति नहीं। भागने से उबारा नहीं –
तुम लोभ मोह अहंकारा। मद क्रोध बोध रिपु मारा।।
मैं एक, अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा।।
भागेहु नहि नाथ उबारा। रघुनायक करेहुँ सँवारा।। - विनय पत्रिका, पद – 125
ठीक है कि विनयवश तुलसी संभार के लिए रघुनाथ क पुकारते हैं, किन्तु असली बात जो वे यह कहना चाहते हैं वह यह कि व्यक्ति भागकर भी मुक्ति नहीं पा सकता। उबार के लिए दुर्निवार विषम परिस्थितियों से जूझना उसकी मजबूरी और जरूरी दोनों है। होने की यात्रा में यात्री अकेली होता है और बटमार अनेक। बटमारों के भय से यात्रा करना ही छोड़ देना नकारा बटोही साबित होना है। अतः लाचारीवश अमानुष हो सकता है, और कुछ हो सकता है तो व ‘स्व’ की तलाश तो करे। यदि सच में मनुज ब्रह्म का आंश है, तो वह अपने इस ‘है’ को कई तरह से अर्थवान बना सकता है। ‘होने’ का हमारा अर्थ विवादी नहीं, संवादी है, घटाव नहीं, जोड़ है। पाश्चात्य अस्तित्ववाद की अवधारणा की तरह नहीं, कि जहाँ अन्य को नरक समझा जाता है। नरक समझकर अन्य को रौंदा जाता है। दुसरे कि स्वतंत्रता को नकारा जाता है। उपनिवेशवाद को प्रोत्साहित किया जाता है। शोषण को उकसाया जाता है। दूसरे धर्म के मानने वाले को काफ़िर समझकर कत्ल किया जाता है। व्यक्ति को बाज़ार नहीं कुटुम्ब में तब्दील करो। जो व्यवहार अपने को प्रतिकूल लगे वैसा दूसरे के साथ आचरण मत करो (आत्मनः प्रतिकूलानिन समाचरेत) वह धर्म धर्म नहीं है जो दूसरे र्म का बाधक है – न धर्मः तत् यो बाधते धर्मम्।
वैश्वीकरण का असली तात्पर्य ‘स्व’ को विश्व बनाना है न कि विश्व को ‘स्व’ के लिए इस्तेमाल करना है। ‘स्व’ की सीमा का इतना विस्तार करना है कि ‘अन्य’ अपना बन जाये। अन्य के ‘होने’ में अपना ‘होना’ शामिल हो जाये। प्रत्येक के होने में अपना सहकार यदि दर्ज न हो, तो विरोध तो कतई न हो। सह-अस्तित्व बना रहे। वह युग या व्यक्ति विश्व क्या बन सकता है, जो खुद का नहीं हो सकता।जो आत्मनिर्वासित होकर जी रहा हो, जो मेले में रहकर भी निपट अकेला हो, जो घर में रहकर बेघर बना रहे, जो अपने परिवार को तोड़ चुका हो, अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम में भेजकर छुट्टी पा रहा हो, वह ससुरा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, अर्थात विश्व ही परिवार है, का अर्थ क्या जानेगा ? अपनी खोल में सिमटा आदमी दूसरे को क्या समा सकता है ? कुत्ते को गोदी में खिलाने वाले तथा माता-पिता को फटकारने वाले लोग क्या जानें स्वजन स्नेह का स्वाद ? किसी अन्य या अपनों के होने का आस्वाद। मिशनरी हिन्दुओं की आस्था को बदल नहीं सके तो उसका कारण यह नहीं था कि हिन्दुओं में ईसा मसीह के संदेश के प्रति कोई प्रतिरोध था, बल्कि उन्होंने उस संदेश को अपनी बहुलतावादी आस्था की कोटियों में ही समा लिया। - निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी, पृ. 139) भारत की समोने-पिरोने वाली संस्कृति ने इस्लाम को भी समोना चाहा है। हिन्दुओं के द्वारा ताजिए पर चढ़ाये जाते चढ़ौना, मानी जाती मनौतियों और मजारों पर चढ़ाई अन्य को अपने से अलग न समझने के ही प्रमाण हैं। इस देश ने ब्रह्म को अन्य पुरुष माना है। उसे तत् से संबोधित किया है।थ वह प्रथम पुरुष है। चराचर जगत चल-अचल उसकी प्रतिमा है। ऐसा प्रमाण देने के लिए आग्रह भी है।
“जैविक स्तर पर मनुष्यत्व स्वयं प्राप्य है, लेकिन उसके बाद का मनुष्यत्व अर्जित करना होता है – इस अर्जन की सारी संभावनाएं मनुष्य में ही हैं। जिस सीमा तक कोई यह अर्जन कर पाता है वास्तविक अर्थों में उसी सीमा तक मनुष्य हो पाता है। ...अमानवीयता के खिलाफ़ संघर्ष भी मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है। इस तरह सहमति, असहमति, विरोध संघर्ष तथा स्वतंत्र चेतना से उपजी सृजनशीलता के माध्यम से व्यक्ति अपनी संभावनाओं को उपलब्धि के रूप में अर्जित करता रहता है। यह अर्जन किसी अन्य को क्षति पहुँचाकर नहीं किया जाता। मनुष्येतर सृष्टि से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के फिराक में मनुष्येतर को हेय, हीन, जेतव्य मानकर नहीं। व्यष्टि और समष्टि के सामंजस्य में, सहवीर्य, सहकार में भी होने का अर्थ अर्जित किया जाता है। गैर-मानवीय संसार से अलगाव यूरोपीय सभ्यता का सबसे त्रासद आयाम रहा है, जिसने गोएटे को यह यह कहने के लिए विवश किया कि ‘हर अलगाव में विक्षिप्तता के बीज होते हैं : हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम उसे पनपने न दें।” – निर्मल वर्मा (पत्थर और बहता पानी पृ. 172)
स्पष्ट है कि अलगाव में यदि विक्षिप्तता के बीज होते हैं तो अन्य को अन्य समझने में संघर्ष के। ऐसे संघर्ष के महाभारत को जो व्यक्ति के होने के अर्थ को कुत्सित करार देता है, कौन अच्छा कहेगा। लोग उसे घर में पुस्तक के रूप में भी रखने से कतराते हैं। भारत ने महाभारत को अच्छा नहीं समझा। वह होना था, हो गया यह और बात है, किन्तु उसकि आत्मीयता सदा अन्यको आत्मसात करने में अपनी समृद्धि मानती रही है. यह देश बाहर से आए जातियों अपना बना कर याय उनके होकर वृहत्तर भारतवर्ष के गौरव से अपने को मंडित करता रहा है। बिना किसी के भूभाग को राजनैतिक उपनिवेश बनाते हुए, अपने भूमा स्वरूप का परिचय देता रहा है। जिन बाहरी जातियों ने अपनी सीमित सोच एवं धर्मान्धता के कारण अन्य को काफ़िर या नरक समझकर रौंदना चाहा उसके साथ अब तक भारत की अस्मिता अपना तालमेल बिठा नहीं पाई है। बिठाये भी कैसे ? अपने ‘स्व’ को विसर्जित करके परधर्म को अपनाने से मर जाना बेहतर जो माना गया है – स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
- गीता।
‘होने का अर्थ’ बहुअर्थी है – छंद की तरह। बहुरूपी है – सृष्टि की तरह। अव्याख्येय है – भूमा की तरह। व्यक्ति भूत, भवन और भविष्य में होता रहता है, क्योंकि वह धरती से आकाश तक व्याप्त विष्णु का सगुण स्वरूप है। हमारे तीनों कालों में वही तो होता रहता है। इसी से भाव हमें होते रहना चाहिए – उस पुराण पुरुष सहस्र शीर्ष प्रभु को प्रणाम करते हुए –
भुत भव्यभवन्नाथः पवनः पावनोsनलः।
कामहा कामकृत् कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः।। - विष्णुसहस्रनाम
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान
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रामकाज
डॉ. शोभाकांत झा
राम और उनके काज इतने व्यापक हैं कि विचार करते रहिये विराम नहीं मिलेगा। उनमेंरमते रहिए अघा नहीं पायेंगे। उनके कार्य करते जाइये विश्राम नहीं मिलेगा –
राम काज कीन्हें बीना मोहि कहाँ विसराम। हनुमान जी रामजी के काज करते चले गए – एक के बाद एक सँवारते चले गए पर क्या उन्हें विश्राम मिल पाया ? नहीं, वे अब भी उनके कार्यों को सँवार रहे हैं, क्योंकि अजर अमर भक्त जो हैं। विश्वास बढ़ाने के लिए मंगल मूरती मारुति नंदन के भक्तों से पूछ लीजिए।
वास्तव में जन-जन और कण-कण में रमे राम के कार्य जन-जन के कार्य हैं। जीवमात्र के कार्य हैं। उनके कार्यों के न कोई ओर है न छोर। सामान्यतः सीता-खोज को प्रमुख रामकाज माना जाता है। जिसके लिए राम ने सुग्रीव को राज्य में प्रतिष्ठित करते हुए कहा था कि अब हे सुग्रीव ! आप अंगद के साथ मिलकर राज करें, किंतु मेरे कार्य सम्पादन का धान हृदय में हमेशा रखें –
अंगद सहित करहु तुम राजू।
सतत हृदय धरेहु मम काजू।। - 4/12/9
अब विचार करें कि सीता खोज का सतत चिंतन क्या है ? ुस्तुतः सीता खोज तो शांति, भक्ति, शक्ति, मुक्ति की तलाश है। शंकराचार्य ने सीता को शांति रूप में नमन किया है –
शान्ति सीता समाहिता आत्मारामो विराजते।
शांति की तलाश तरह-तरह की उठती समस्याओं के निदान की खोज है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ उठ-उठकर शांति पर प्रहार करती हैं, दबोचती हैं, व्यक्ति, राज-समाज – सब को अशांत करत ीहै, आकुल करती हैं, संघर्ष को न्यौता देती हैं और अंत में महाभारत जैसे महाविनाश के जिम्मे जिंदगी को झोंक देती हैं। मनुष्य क ोसदियों के एक अर्जित मान-मूल्यों को मिट्टी में मिला देती हैं, अतः शांती- सीता की खोज एक व्यापक अवधारणा है। खो गई धरती की बेटी की खोज है। जमीनी सच्ई की तलाश है। सीता कृषि संस्कृति का प्रतीक है। लंका की औद्योगिक सभ्यता, जो हर जगह कृषि संस्कृति और उससे जुड़े मान-मुल्यों कोलील रही है, हमें अशांत बना रही है, सबूत है, इसीलिए गांधी ने इसे चाण्डाल सभ्यताकहा था। इन्हीं सब अर्थों में सीताखोज को देखा जाना चाहिए।
सीता करुणानिधान श्रीराम को अतिशय प्रिय तो थी ही,भारतीय नारी का आदर्श भी थी। सीता की खोज यदि राम की व्यक्तिगत समस्या मात्र होती तो राम स्वयं समर्थ थे – सर्व समर्थ। किसी की सहायती की जरूरत नहीं थी। तुलीस तो राम को ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री और वैराग्य के सपुंज भगवान मानते ही हैं, वाल्मीकि भी उन्हें अपने युग का सर्व समर्थ महानायक मानते हैं। इस महानायक के सेवक हनुमान की सर्व समर्थ सेवकाई में भी किसी तरह के संशय की कोई गुंजाइश नहीं है। हनुमान की शक्ति पर जबसीता को संशय हुआ तो पनवसुत ने पर्वताकार रूप का विस्तार करतेहुए कहा था माँ ! आप अधीर न हों। शपथ राम की ! यदि उनका आदेश मिला होता तो मैं अभी आपको यहाँ से लिवा ले जाता –
अबहिं मातु मैं जाऊँ लनाई।
प्रभु आयसु नहि राम दोहाई।। - सुंदरकांड 16/2
हनुमान जी बुद्धि-विवेक के निधान हैं। वे और उनके राम सीता काउस रूप में वापसी चाहते हैं, जिससे पृथ्वी पर मर्यादा प्रतिष्ठित हो। शईल संयम की शिक्षा लोक प्राप्त करे। अत्याचार बंद हो। लोक को रुलाने वाले रावण जैस लोगों पर अंकुश लगे। मूल्यों की प्रतिष्ठा हो –
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुंपुर नारदादि जसु गैहहिं।। - सुंदरकांड 12/3
निश्चय ही हनुमानजी सीता-खोज और उनकी सही ढंग से वापसी के द्वारा तीनों लोक को सबक देना चाहते थे। युग को संदेश देना चाहते थे कि मर्यादा की सीमा लांघने वाला व्यक्ति राम-कोप का भाजन है। राम का कोप लोक कोप का पर्याय है। देवराज इन्द्र हों या असुरराज रावण। यदि वे अहंकार और आतंक से लोक को आकुलकरेंगे तो राम-कोप से बच नहीं पायेंगे। सीता का अपहरण करेंगे तो सीता रूपी प्रजा की आह से जलकर खाक हो जायेगी उनकी स्वर्णमयी लंका – शीत निशा मे ंकोमल वन की तरह। मंदोदरी तीखे शब्दों में सचाई समझाती हुई रावण से कहती है –
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।। - सुंदरकांड 36/4
मंदोदरी न मंद मति है न भीरु। उसकी सुमति दूर तक साफ-साफ देख रही है – द्वार आये खतरे को। जब सेसीता लंका लाई गई तब से अपशकुन एक के बाद एक आकर आने वाले अनिष्ट की सूचना दे रहे हैं। उसका विवेक मानता है कि सीता यद्यपि सर्वश्रेयस्करी है – सर्वमंगला है, परन्तु श्रेयस और शांति को कोई बलात अपने अधिकार में करना चाहेगा तो वह श्रेयस उसके लिए अमंगलकारी बन जायेगा। शांति अशांति बन जायेगी। मंगला लक्ष्मी जब चौर्य, छीन-झपट और गलत तरीके से अर्जित की जाती है तो वह अर्जनकर्ता के लिए अशांति और आपदा बन जाती है, इसलिए मंदोदरी सीता को लंका रूपी कमल वन के लिए शीत निशा समझती है – कमल वन को जला सी देती है। शीतल होकर भी ताप देती है। लंका का जलना स्पष्ट प्रमाण है।
सीता खोज के बहुत सारे आशय हैं। निर्मल मति से सोचें तो इस खोज के बहाने ढेर सारे संदेश राम और उनके सेवक, सखा, सहायक संसार को देना चाहते हैं, क्योंकि अवतार के कार्य मात्र दुष्टों कादमन या वध और सज्जनों का रक्षण ही नहीं होता। तरह-तरह की लीलाओं के द्वारा मर्त्यों को शिक्षा देना, धर्माचरण का संस्कार देना अवतार के विशद् प्रयोजन होते हैं –
मर्त्यावतारः खलु मर्त्य शिक्षो।
रक्षोवधायैव व केवलं विभोः।। - पुराण विमर्श पृ. 165
जरा विचार किजिए कि -
“तिहुंपुर नारदादि जसु गैहहिं”
अर्थात् सीता को जब भगवान राम लंका से वापस ले जाएंगे, तो इसमें राम की कौन-सी यशगाथा निहित होगी कि तीनों लोक गायेगा ? यह लांक्षण गाथा क्या गाने योग्य है ? क्या राम-सीता इससे मिले लोकापवाद से जिंदगी भर तपते नहीं रहे ? सीता तो पाताल में ही समा गई। फिर तुलसी ने ऐसा क्यों लिखा, जबकि उनकी कलम में स्खलन का अवसर कम ही होता है। मेरे वीचार से सीता की वापसी से समस्त आसुरी शक्ति का शमन, शांति और व्यवस्था की स्थापना और लोकरंजन का साध्य सधने वाला है। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से निजात मिलने की संभावना है – राम राज्य के द्वारा। महि भार उतारने और देवों को भी भयमुक्त करने के लिए राम अवतरित जो रुए थे। इन आशयों का संकेत स्वयं रावण को दी गई सलाह में है।
गो द्विज धेनु देवहितकारी। कृपासिंधु मानुष तनु धारी।।
जनरंजन भंजन खलब्राता। बेद धर्मरच्छक सुनु भ्राता।।
- सुंदरकांड 39
यदि सीता का पता लागाना ही राम काज होता, तो हनुमान सीता से मिलकर लौट आते। रावण के दरबार में जाकर उसे विनम्र और विवेकमय सिखावन नहीं देते। वे उसे सर्वनाशी अहंकार और सर्वग्रसी मोह से बचाकर युद्ध में निर्दोष जनता का खून बहाने से रोकना चाहते थे। उन्होंने जाते ही उसे चुनौती नहीं दी, न खरी-खोटी सुनाई। वे रुद्रावतार थे और रावण रूद्र भक्त, अतः वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्त को आपदा से बचाना चाहते थे –
मोह मूल बहु सूल प्रद त्यागहुँ तम अभिमान।
भजहुँ राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।
- सुंदरकांड 23
साफ है कि रामकाज जीव के बाहर-भीतर की सफाई है। अहंकार और मोह-लोभ, जो बढ़िया से बढ़िया व्यक्ति को पतन का पात्र बना देतेहैं, अच्छे कार्यों पर पानी फेर देते हैं, उनको दूर करना और सुर दुर्लभ मानव जीवन को कृतार्थ करना रामकाज के वृहत् आशय हैं। रावण महाज्ञानी और कुलीन होकर भी अपने दुर्गुणों के कारण नष्ट हुआ। वह तो राक्षस था या अपने कृत्य से असुर बन गया किंतु नारद तो मुनि थे। वे भी साधना के अहंकार और मोह में फँसकर मुनि से वानर बन गए – विरूप हो गए, इसलिए तुलसी काकभुशुंडि के माध्यम से मानस रोग और उसके निदान का बखान करते हैं। और यह भी रामकाज से असंदर्भित नहीं है। नर वानर न बन जाये, यह भी रामकाज का उद्देश्य है।
रामकाज के विशद् संदर्भों की आख्या करते हुए पंडित रामकिंकर उपाध्याय कहते हैं कि “वेदान्तियों की दृष्टि में सीता शांति हैं, भक्तों की दृष्टि में वे भक्ति हैं, कर्मयोगी की दृष्टि में वे शक्ति हैं और तुलसीदास जैसे अपने आप को दीन मानने वालों की दृष्टि में वे माँ हैं। ... सीता के खोजने का मतलब है शांतिका खो जाना, भक्ति का खो जाना, शक्ति का खो जाना, माँ का खो जाना।”
– पंडित रामकिंकर उपाध्याय श्री हनुमत चरित्र, पृ. 124
स्पष्ट है कि इन सब की खोज और उपलब्धि रामकाज और फलश्रुति हैं। ये सारे जीवन के संग्राह्य संदर्भ हैं। इनके बिना सब कुछ व्यर्थ है। आप भी सोचिये जीवन में सब कुछ हो, पर शांति न हो – आधुनिक समृद्ध आदमी की तरह तो समृद्धि कैसी ? अशांत को सुख कहाँ ? केवल भागमभाग हो, तनाव हो, लगावरहित यांत्रिक जिंदगी हो, तो सुख कैसा ? प्रतीति न हो तो अकूत सम्पदा के स्वामी से मिलकर देख लीजिए।इसी तरह भक्तिभाव रहित जिंदगी दरिद्र मानी जानी चाहिए
राम विमुख प्रभुताई।
जाई रही पाई बिनु पाई।।
- सुंदरकांड 23
यहाँ भक्ति का तात्पर्य केवल राम या ईश्वर भक्ति से नहीं है। न नाम रटन से है, न पूजा पाठ से, अपितु उन मूल्यों के प्रति आदर-आचरण से है, जिनके राम प्रतीक हैं। राम को जो-जो प्रिय हैं – प्रेम, सत्य,शील, मर्यादा, सदाचार,परोपकार आदि की ओर उन्मुखता होने से ही रामभक्ति है। भक्ति प्रेम और श्रद्धा का समवाय है। जीवन में प्रेम न हो, श्रद्धा न हो, राग-रस न हो तो जीवन मात्र साँसों का मेला बन जाता है। इसी श्रद्धा-प्रेम के अभाव में दुर्योधन कृष्ण की नारायणी सेना तो पा गया, पर वह उन्हें नहीं पा सका। परिणामस्वरूप वह विजयश्री से वंचित रहा। स्वयं नष्ट हुआ और वह तत्कालीन राज-समाज के लिए अभिशाप बन गया।
शक्ति का आभाव व्यक्ति को शव रूप में बदल देता है। माँ की ममता के अभाव में मानुष अधूरा, अतृप्त, असंतुलित बन कर रह जाताहै। अतएव सीता की खोज इन सब जीवन मूल्य रत्नों की खोज है, प्राप्ति का अनुष्ठान है। समूचापन की चाहत है। रामायण या मानस की कथा का सार दो पंक्तियों में बताया जाता है कि राम कथा का आरंभ राम वन गमन से होता है। राम स्वर्ण मृग के पीछे भागते हैं। सीता का रहण हुआ। जटायु रक्षा करते मारे गए। सुग्रीव से मैत्री हुई। बालि मारा गया। हनुमान सागर पार गए। लंका जली। कुम्भकर्ण और रावण का वध हुआ। यही रामायण है।
आदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं काञ्चनं।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव सम्भाषणं।।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लंका पूरी दाहनं
पश्चात् रावण-कुम्भकर्ण हननं एतदि रामायण्।।
जरा ठहरकर सोचिये कि क्या यही है ? क्या इतनी-सी ही कथा वस्तु रामायण के चौबीस हजार श्लोकों में निबद्ध है ? क्या रामकथा का यही अभिप्राय है ? फिर तुलसी का लक्ष्य रामकथा को दुहराना भर है ? राम भक्ति भर प्रकट करना है ? क्या नानापुराण निगमागम और अन्यत के ये अन्यतम हैं ? नहीं, मात्र इतने ही तात्पर्य रामायण के होते तो न यह आदि काव्य अमर होता, न रामकथा को लेकर मानस जैसे बहुत सारे राम काव्य लिखे जाते। न राम काव्य परम्परा का विकास होता न राम अब तक पूजे जाते। अब तक काल के गाल में समा गये होते। देश की सीमा में सिमटकर महज पोथी पुराण की जिल्दों में लिपटकर रह गये होते। परन्तु अपने काज और चरित के द्वारा राम देश और कालजयी बन गये। विश्वव्यापी बनी रामकथा आज भी सूरीनाम, मॉरीशस, मलाया आदि देशों में रामकाज सम्पादित कर रही है।
दरअसल पूरी रामकथा के भीतर रामकाज समाहित है – माटी के अंदर की गंध की तरह, पवन के भीतर सुगंध की भाँति। सारी घटनाएँ, सारे पात्र और समस्त प्रसंग रामकाज सूत्र से आबद्ध हैं। सारे तागों को बटोरकर रामकाज पूरी खूँटे से बाँध दिया गया है। सीता का अन्वेषण तो एक तात्कालिक महत्वपूर्ण काज था। नहीं तो हनुमान के बल-बुद्धि की परीक्षा लेने गई नाग-माता सुरसा उन्हें यह आशीर्वाद नहीं देती कि तुम सारे राम काज को सम्पन्न करोगे –
रामकाज सबु करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।
- सुंदरकांड 2
चलिए एक श्लोकी रामायण पर ही विचार करें। तपोवन गमन से आरंभ राम जीवन-यात्रा विभिन्न पड़ावों को पार करती है और अंत में राज्य की स्थापना के साथ पूर्ण विराम लेती है। इसके एक-एक पड़ाव पर अटक कर यदि राम काज का आकलन करें तो तुलसी जैसे सामर्थ्यवान कवि अब भी अनेक रामचरित मानस, उप मानस लिख सकते हैं। राम के सम्पूर्ण चरित – आचरण ही राम काज का पर्याय हैं। यदि सीता-खोज ही प्रमुख घटना या कार्य होता तो मानस का शीर्षक रामकाज रामायण कदाचित रखा जाता। राम का प्रतिद्वन्द्वी रावण स्वयं भीतर से स्वीकारता है कि शायद सुर काज साधने और पृथ्वी के भार को उतारने के लिए राम अवतरित हुए हैं। मुझे भी राक्षसवृत्ति से मुक्ति मिलेगी। इस तामस शरीर से भजन-भाव तो होने से रहा –
“सुर रंजन भंजन महिमारा।”
“होइहि भजन न तामस देहा।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।”
– अरण्य कांड 3/23/3,5
वास्तव में लोकाराधन राम-लीला का लक्ष्य था।लोक उनकी आराधना करता है और वे लोक की। अतिशय प्रिय जानकी को भी लोकाराधन के लिए उन्होंने भेंट चढ़ा दिया – “आराधनाय हि लोकस्य मुञ्चतो नास्ति में व्यथा” – (उत्तर रामचरित – भवभूति)। देव और मनुज का पारस्परिक भावन भाव विश्व को महाभाव से भर देता है – “परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यतः” – गीता। जनाराधन के लिए जनार्दन ने सेवा, त्याग, प्रेम, दया और मर्यादा के जो-जो प्रतिमान स्थापित किए वे आज भी लोक में अमिट हैं। उनकी लीला से लोक संस्कारित है। भारतीय लोग चाहे वे किसी धर्म के उपासक हों, घर-घर के बड़े भाई राम और छोटे लखनलाल होते हैं। हम और आप यदि बड़े होकर जन्मे हैं तो थोड़ा बहुत ही सही, जरूर इस भाव को जी रहे होंगे अथवा दूसरे को जीते देख रहे होंगे, क्यों राम हममें रमे हैं और हम राम में रमते रहेंगे। “लोग कहते हैं कि हनुमान राम की शक्ति से सब कुछ करते हैं। और राम मेरी दृष्टि में लोक की शक्ति करते हैं।”
– डॉ. युगेश्वर – तुलसी का प्रतिपक्ष, पृष्ठ 53
राम की तरुणाई ने विश्वामित्र को निर्भय किया, जनक परिताप को मेटा, ऋषि-मुनियों को भयविहीन बनाते हुए जन-जन को अभयता दी। स्वतंत्रता भयमुक्तता का नाम है। जो स्वाधीनता भयमोचिनि होती है वह अर्थवती होती है। जो आजादी आतंक, अराजकता, अन्याय, अभाव, व्याधि के भय से मुक्ति नहीं दिला पाती, वह कागजी होती है। जिस शासन तंत्र में मंत्रणा देने वाले सचिव-सयाने सही सलाह देने में खौफ खाते हों, उचित कहने लिखने वाले के लिए सिर कलम कर दिया जाने का फतवा दिया जाता हो, देश का पहरेदार चोर और नेतृत्व निष्ठाहीन हो, उस देश की स्वतंत्रता बेमानी हो जाती है। और तो और घर की मंदोदरी भी मात्र भोग की वस्तु समझी जाय और उचित कहने के कारण सगा भाई लतियाया जाय – भयग्रस्त हो, उस लंका का स्वर्ण सुख किस काम का? वह तो डराता है, आकुल ही करता है – विभीषण से पूछ लीजिए –
“सुनहु पवन सुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्ही मँह जीभ बिचारी।।
अब मैं कुशल मिटे भय भारे।
देखि रामपद कमल तुम्हारे।।”
राम का पद सुग्रीव को भी भयमुक्त करता हुआ आया था ौर लंका विजय के बाद उसने सब को भयमुक्तताके लिए आश्वस्त किया –
“निज निज गृह अब तुम सब जाहू।
सुमिरेहु मोही डरपहु जनि काहू।।”
राम के सुमिरन में सामंती अहंकार की बात नहीं है। नीति, न्याय, सुव्यवस्था, शांति की बात है।
तात्पर्य यह कि राम काज एक व्यापक अवधारणा है। पूरी रामायण रामकाज की चौहद्दी है। राम और उनके सखा-सहाय, सेवक के सारे मर्यादित कार्य के विविध रुप हैं और प्रतिपल प्रतिपक्षी पात्रों के अकार्य में राम कार्य के पृष्ठपोषक हैं – प्रकाश के पृष्ठपोषक अंधकार की भाँति, नायक के गुणों के प्रकाश, खलनायक की तरह, अच्छाइयों की महत्ता बढ़ाने वाली बुराइयों के समान। सियाराममय जगत के सारे हित साधक प्रयोजन और लोकमंगल राम के काज हैं। वे अनन्त की तरह अनन्त हैं, इसलिए हनुमानजी को राम काज से आज तक विश्राम नहीं मिल पाता है, न मिल पायेगा और न वे ऐसा कभी चाहेंगे।
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प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस (सृजनगाथा)
4. आषाढ़स्य प्रथम दिवसे
आषाढ़ का स्नेहगाढ़ प्रधम दिवस हो अथवा एक दूसरे में समा जाने वाला प्रथम माधवी क्षण, प्रथम तो प्रथम ही होता है। औव्वल। लाजवाब। अछूता। अनाघात। अपरुब। चू लेने वाली। स्मृति में छप जाने वाली। बेजोड़ घड़ी। सबके जीवन में ऐसी घड़ी आती है, पर इसे तरबदार और तड़पदार लोग पकड़ पाते हैं। रामगिरी के यक्ष को ऐसी ही घड़ी ने पकड़ लिया था।
आषाढ़ का पहला दिन था। रामगिरी की चोटियों पर बादल उतर आये थे – संतप्त को तृप्त करने, पोर-पोर भिगोने, तर करने। यक्ष की घनीभूत पीड़ा को जगाने, साथ-साथ बरसने के लिए याद दिलाने। शिखर-शिखर पर मंद-मंद पवन तार पर तैरते बादलों को देखकर विरह दग्ध यक्ष का मन विकल हो उथा था और चित्त चंचल। बदली को घिय आये देखकर आबाल वृद्ध अपने-अपने स्तर से खुशी का इज़हार करने लगते हैं। धरती बूँद पाते ही उच्छवसित हो उठती है। अपनी सोंधी उच्छवास को रोक नहीं पाती। दादुर डहकने लगते हैं और मेंढक चहकने। प्रीति का इज़हार करने लगते हैं। सुखी जीव और जड़ जीव का जब यह हाल होता है तो विरही जन का तो कहना ही क्या ? उसके लिए सदा वसन्त बना रहता है –
मेघालोके भवति सुखिनोsप्यन्यथावृत्तिचेतः।
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूर संस्थे ।।
- मेघदूत, श्लोक 3
मेघ दर्शन से सुखी लोगों का भी चित्त चंचल हो जाता है तो प्रेमि को प्रिया की दूरी सतायेगी ही।
हो सकता है विरह-विरह की बात आधुनिक युग को बेमानी लगे। जो युग मनुष्य को माल और मशीन बनाने में लगा हो, हाँफते ही रहना जिसकी नियति बन चुकी हो, अनापसनाप तृष्णा ही जिसका मकसद हो, उसके लिए क्या आषाढ़ का पहला दिन और क्या सावन की रिमझिम ? क्या वर्षा, क्या वसन्त ? सब बेमतलब।मतलबी के लिए मतलब की चीज ही मतलब की होती है, बाकी सब बेमायने की।
दरअसल इन्द्रियों में श्रेष्ठ मन ही जिसका मर गया हो, महघट बन गया हो, संवेदनाशून्य हो चुका हो,उसे आषाढ़ का प्रथम दिवस तो दूर, जगत की कोई गति नहीं व्यापती। ब्दल बरस-बरस के रीत जाये, रीते लोग रीझ नहीं पाते, भी ंग नहीं पाते। कोयल बोल-बोल कर थक जाये, सिर पटक ले, पर सब बेमतलब। लोभी के सामने उदारता का बखान भैंस के आगे बीन बजाना है और औंधे घड़े पर रिमझिम की बौछार जैसी है। रीझ-बूझ रहित ठूँठ और बिरस लोगों के लिए आषाढ़ का प्रथम दिवस क्या और क्या फागुन की पूर्णिमा ! तीसों दिवस और बारहो महीने उनके लिए एक जैसे होते हैं। रोजमर्रा का अंग। न मन में तरंग न अंग में उमंग। परन्तु वियोगी यक्ष का पोर-पोर प्रेम की अंतर तरंग से तरंगित था, पगा था। विरह रस में डूबा था। रीझ रिस रही थी। तभी तो वह प्रिया के प्रथम प्रेम को पाकर इतना बेसुध हो गयाथा कि उसे अपने स्वामी कुबेर को पूजा पुष्प पहुँचाने की सुध नहीं रही और हृदयहीन स्वामी के आदेश का वह दंड भुगत रहा था रामगिरी पर्वत पर। चारों ओर पहाड़ और बीच में पछाड़ खाता विरही यक्ष। पर्वत की तरह तपता मन आषाढ़ के पहले बादल को देखकर उमड़ पड़ा। उसके भीतर मेघ उतर आया। उसकी घनीभूत पीड़ा बरसने के लिए आतुर हो उठी। आठ मास तक रुका अन्तर्वाष्प आत्मीय मेघ को देखते ही सहस्रधार हो उठा। मेघ बनकर दूत बन गया।
निश्चय ही पहला कवि वियोगी रहा होगा। तभी तो क्रौंच मिथुन के वियोग जनित करुणा सेविगलित होकर उसका पहला छंद फूटा था जो आदि काव्य का स्रोत बन गया।
वस्तुतः वियोग से संयोग पुष्ट होता है। राग गाढ़ होता है। श्रृंगार रस राज बनता है। प्रियका अभाव ही वियोग है।अभाव ही वस्तु या व्यक्ति के असली भाव की महत्ता का बोध कराता है तभी जानकी हरण के समय राम इतने विकल हो गये थे िक वाल्मीकि रामायणभींग गई।उत्तर चरित में ही राम ने अपने चरित से असली साक्षात्कार कियाथा। पत्थरो को रोते देखा था। करुणा द्रवित होते देखा था।जब राम का यह हाल था तो रामगिरी के यक्ष कातो बुरा हाल होना ही था। आषाढ़ का पहला बादल, वियोग पर पहला प्रहार। दुर्बल पर दो आषाढ़ है। तड़प उठा विरही मन। इस तड़ में शामिल हो गयाथा कालिदास का बेहद संवेदनशील समूह मन। यक्ष मेघ को संदेश देता रहा और कालिदास का की कमल तार में तार मिलाकर पाती ‘मेघदूत’ रचती रही। यक्ष के बहाने अपने अन्तर से साक्षाात्कार करती-कराती रही। पात्र और घटनाएँ अपने को ही खोलने के वास्तविक बहाने होते हैं। जिस रावण को तुलसीदास खलनायक के रूप में चित्रित करते हैं उसे माइकेल मधुसूदन दत्त नायकके रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह अपने भीतर को खोलने का खूबसूरत बहाना है।
वैसे तो सैकड़ों-हजारों दिन जीवन में दाखिल होते हैं और बिना कुछ खास दर्ज कराये गुज़र जाते हैं। छाप नहीं छोड़ पाते। गिनती में नहीं आते। अनामिका नहीं बन पाते। रोजनामचा बनकरबीत जातेहैं, परन्तु कुछ पल-धिन ऐसे आतेहैं जो देह प्राण से गुज़रकर गीत बन जाते हैं, ‘मेघदूत’ बन जाते हैं और बन जाते हैं इतिहास। ‘मेघदूत’ के छंद कुछ ऐसे ही हैं। प्रथम दिवस औस वयस के वाष्प भी भींगे क्षणों का छंद। मंद-मंद पवन संग तैरने वाले मेघों का मन्दाक्रान्ता छंद। मधुर मिलन का क्षण –
मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां
वामश्चायं नदति मुर चातकस्ते सगन्धः।
गर्भाधानक्षण परियान्नूमाबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयन सुभगं खे भवन्तं बलाकाः।।
- मेघदूतम्
प्रधम दिवस की बाते, मुलाकातें और रातें सभी प्रधम होती हैं – सर्वोत्तम।यह विष्णु-दिवस जो ठहरा। विष्णुके शयन उत्थान की एकादशी तिथि – ‘प्रथमो प्रख्यातो विष्णु दिवसः, प्रथमे एकादशी इत्यर्थः - मल्लीनाथ’। उत्सवी दिवस। यक्ष का पक्ष जाने भी दें और पुरुषोत्तम राम को ही देखें। जब पहली बार वे जनक वाटिका में गये थे और जानकी उनके नयन की अतिथि बनी थी, चक्षु राग के सहारे एक दूसरे के भीतर समा गये थे, तो वह प्रथम दिवस अविस्मरणीय बन गया था। मर्यादा भू ल गये थे। बार-बार गर्दन घुमा-घुमा कर ताकने लगे थे। अकबका गये थे। नयन के मीठे मसागम से रघुवंशी मनडोल उठा था –
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।
सिय मुख ससि भय नयन चकोरा।।
देखि सीय सोभा सुख पावा।
हृदय सराहत बचनु न आवा।।
यह प्रथम वाटिका राग ऐसा महाराग बन गया, अविस्मरणीय क्षण बन गया कि निराला के राम का मन युद्ध भूमि में भी हताशा से बचने के लिए स्मरण करता है –
ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत
जाकी पृथ्वी तनया कुमारिका-छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का-प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
ज्योति प्रपात स्वर्गीय-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय
जानकी-नयन-कमनीयप्रथमकम्पन तुरीय
– राम की शक्ति पूजा
यक्ष बेचारा तो युद्ध भूमि में नहीं था। वह वनवास में था। विरह भूमि में। वह आषाढ़ केप्रथम दिवसीय मेघमाला को देखते ही आकुल हो उछा था। प्रिया के प्रथम मिलन से उठे प्रथमतुरीय कम्पन की सम्ृति ने उसे हिला दिया था। चेतनाचेतनके विवेक को बुला दिया था और स्मृति धूम-ज्योति-सलिल सन्निपात मेघ को दूत बनाने के लिए विवश कर गई थी। यह क्षण ही विवशता का होता है, विवेक का नहीं। आइए उसकीविवशता से आत्मीयता जो़ड़ें और आषाढ़ की प्रथम दिवसीय साझा अनुभूति में हम सब अपने-अपने प्रथम दिवस का स्मरण करें।
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