Sunday, May 9, 2010

क्या है धर्म

क्या है धर्म
क्या है धर्म? और क्या है इसकी मान्यताएँ ? क्या छोटी छोटी सी मानवीय भूलों या फिर हरकतों से किसी भी धर्म का अपमान हो सकता है ? कम से कम मेरा तो यही मानना है कि धर्म अपमान की सीमा से काफी दूर है। धर्म एक अदृश्य ताक़त यानी ईश्वर का एक माध्यम है, जिसे इंसान अपनी अपनी मान्यताओं के मुताबिक अपनाता और उसका पालन करता है। इसीलिए जब कोई धर्म के संरक्षण की बात करता है तो ऐसा लगता है कि ईश्वर के संरक्षण की बात की जा रही है। ऐसे में ये महसूस होता है कि क्या इंसान ईश्वर के संरक्षण के काबिल हो गया है। क्या मनुष्य में ईश्वर के माध्यम यानी धर्म को संरक्षण प्रदान करने की क्षमता आ गयी है? भले ही धर्म बनाने वाला कोई इंसान ही रहा होगा लेकिन उसकी समझ और बूझ शायद आजकल के इंसानों से कहीं आगे रही होगी। तभी तो वेदों की रचना की जा सकी और उसने पूरी मानवीय प्रक्रिया को ही व्याख्या के ज़रिए समझाया गया।

आजकल जब कभी किसी धर्म के अपमान और अवमानना की बात आती है तो ऐसा लगता है कि इंसान आपस में लड़ने के बहाने ढूँढ़ता रहता है। यानी बिना मूल जाने विवादों में रहना लोगों को पसंद आने लगा है। जिसे देखो वो ही एक दूसरे को नीचा दिखाने और अपने आप को ज्यादा ताकतवर साबित करने में लगा हुआ है। जैसे जीने के लिए इन्हीं गुणों की ज़रुरत होती है और प्यार-सौहार्द के साथ जीने का मज़ा ही नहीं आता। लड़ाई करना तो पशुओं का व्यवहार माना जाता है, जो प्यार करते तो हैं लेकिन उसकी महत्ता हम मनुष्यों की तुलना में कम आंकते हैं। देखा जाए तो हम आज जहां भी हैं वो किसी लड़ाई या झगड़े से हासिल नहीं हुआ है बल्कि हमारी आपसी समझ और प्यार के बूते हमने इतनी उपलब्धियां हासिल की हैं। आज दुनिया के हरेक कोने में लोग सुख सुविधाएँ भोग रहे हैं। इन सुख सुविधाओं की उत्पत्ति प्यार से हुई है ना कि तनाव और झगड़े के माहौल से। क्यों हम एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। किसी ने भी कभी ये सोचा है कि अगर भारत में साम्प्रदायिकता की आग न भड़के तो कितना अच्छा हो। हमारा देश भी दूसरे विकसित देशों की तरह ज्यादा तरक्की कर सकता है। क्योंकि हर इंसान अपने आप में संपूर्ण नहीं होता। एक दूसरे के साथ मिलकर और समझ बूझ बांट कर ही तरक्की की मंज़िल हासिल की जा सकती है। लेकिन नहीं, हमारे देश में तो सबको तुरंत ही गुस्सा आ जाता है।

एक समुदाय के किसी व्यक्ति ने अगर किसी दूसरे समुदाय के लिए भड़काउ बयान दे दिए तो अपमान की आग जल जाती है। बिना समझे बूझे और परिस्थिति को जाँचे, चल पड़ते हैं तबाही करने। जैसे इस तबाही के बाद सबका जीना आसान हो जाएगा। और फिर कोई मुसीबत आएगी ही नहीं। कृपा करके कुछ सोचिए और जीने के लिए बेहतर विकल्प तलाशिए, तब जाकर भारत भी सबसे आगे होगा। एक ऐसा भारत जिसमें साम्प्रदायिकता तो होगी लेकिन ऐसी कि उससे किसी का खून नहीं बहेगा, ना किसी के आंसू झलकेगें। देश में धर्म तो होंगे लेकिन ऐसी सूरत में कि सब एक ही जगह पर मिलेंगे और जिसकी जैसी मर्ज़ी हो वो उस धर्म के साथ जुड़कर उसकी अच्छाईयां अपना ले। यानी जन्म के साथ ही धर्म का तमगा न लगे। बल्कि बालिग होने के बाद मनुष्य पर छोड़ दिया जाए कि वो किस धर्म से अपनापन महसूस करता है और फिर उसी धर्म को स्वीकार ले। ईश्वर को माने लेकिन किस धर्म के ईश्वर हैं इसकी जाँच पड़तान न करे। तब संसार कैसा दिखेगा इस अनुभव मात्र से ही सूकून सा लगता है। यकीनन वो संसार एक ऐसी दुनिया के रुप में दिखेगा जहां शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीया करते हैं।
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