Thursday, May 6, 2010

श्रीमद् भागवती कथा'

श्रीमद् भागवत साक्षात भगवान का स्वरूप है इसीलिए श्रद्धापूर्वक इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। इसके पठन एवं श्रवण से भोग और मोक्ष दोनों सुलभ हो जाते हैं। मन की शुद्धि के लिए इससे बड़ा कोई साधन नहीं है। सिंह की गर्जना सुनकर जैसे भेड़िए भाग जाते हैं, वैसे ही भागवत के पाठ से कलियुग के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। इसके श्रवण मात्र से हरि हृदय में आ विराजते हैं।

भागवत में कहा गया है कि बहुत से शास्त्र सुनने से क्या लाभ हैं? इससे तो व्यर्थ का भ्रम बढ़ता है। भोग और मुक्ति के लिए तो एकमात्र भागवत शास्त्र ही पर्याप्त है। हजारों अश्वमेध और वाजपेय यज्ञ इस कथा का अंशमात्र भी नहीं हैं। फल की दृष्टि से भागवत की समानता गंगा,गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग कोई भी तीर्थ नहीं कर सकता-

सम्मान के साथ सेवा का अवसर दिलाने में सहायक- जनमानस में भागवत का विशिष्ट स्थान है, अतः भागवत के ज्ञाता के लिए रोजगार की समस्या आड़े नहीं आती। आज लाखों लोग भागवत प्रवक्ता बनकर स्वयं धन कमा रहे हैं और दूसरों को भी जीवन-यापन का अवसर प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार भागवत का ज्ञान प्राप्त करके तथा प्रवचनकार बनकर कोई भी व्यक्ति धन के साथ-साथ सम्मान और यश भी अर्जित कर सकता है।

कितना और कब करें पाठ- क्योंकि बहुत दिनों तक चित्तवृत्ति को वश में रखना तथा नियमों में बँधे रहना कठिन है, इसलिए भागवत के सप्ताह श्रवण की विधि उत्तम मानी गई है। भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, आषाढ़ और श्रावण मास के शुभ मुहूर्त में कथा सप्ताह का आयोजन होना चाहिए। तथापि भागवत में स्पष्टतः कहा गया है कि इसके पठन-श्रवण के लिए दिनों का कोई नियम नहीं है। इसे कभी भी पढ़ा-सुना जा सकता है। मात्र एक, आधे या चौथाई श्लोक के अर्थ सहित नित्य पाठ से अभीष्ट फलों की प्राप्ति हो सकती है-

जिस घर में नित्य भागवत कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है। केवल पठन-श्रवण ही पर्याप्त नहीं- इसके साथ अर्थबोध, मनन, चिंतन, धारण और आचरण भी आवश्यक है।

इस प्रकार त्रिविधि दुःखों के नाश, दरिद्रता, दुर्भाग्य एवं पापों के निवारण, काम-क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय, ज्ञानवृद्धि, रोजगार, सुख-समृद्धि भगवतप्राप्ति एवं मुक्ति यानी सफल जीवन के संपूर्ण प्रबंधन के लिए भागवत का नित्य पठन-श्रवण करना चाहिए, क्योंकि इससे जो फल अनायास ही सुलभ हो जाता है वह अन्य साधनों से दुर्लभ ही रहता है। वस्तुतः जगत में शुककथा (भागवत शास्त्र) से निर्मल कुछ भी नहीं है। इसलिए भागवत रस का पान सभी के लिए सर्वदा हितकारी है-
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राधा का अर्थ है ...मोक्ष की प्राप्ति
'रा' का अर्थ है 'मोक्ष' और 'ध' का अर्थ है 'प्राप्ति'।कृष्ण जब वृन्दावन से मथुरा गए,तब से उनके जीवन में एक पल भी विश्राम नही था।

उन्होंने आतताइयों से प्रजा की रक्षा की, राजाओं को उनके लुटे हुए राज्य वापिस दिलवाए और सोलह हज़ार स्त्रियों को उनके स्त्रीत्व की गरिमा प्रदान की। उन्होंने अन्य कईं जनहित कार्यों में अपने जीवन का उत्सर्ग किया।

श्रीकृष्ण ने किसी चमत्कार से लड़ाइयाँ नहीं जीती। बल्कि अपनी बुद्धि योग और ज्ञान के आधार पर जीवन को सार्थक किया। मनुष्य का जन्म लेकर , मानवता की...उसके अधिकारों की सदैव रक्षा की।

वे जीवन भर चलते रहे , कभी भी स्थिर नही रहे । जहाँ उनकी पुकार हुई,वे सहायता जुटाते रहे।

उधर जब से कृष्ण वृन्दावन से गए, गोपियाँ और राधा तो मानो अपना अस्तित्व ही खो चुकी थी।
राधा ने कृष्ण के वियोग में अपनी सुधबुध ही खो दी। मानो उनके प्राण ही न हो केवल काया मात्र रह गई थी।

राधा को वियोगिनी देख कर ,कितने ही महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी।
दे भी क्यूँ न ?

राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था...उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें , वृन्दावन की वे कुंजन गलियाँ , वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते थे , वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी ।

राधा जो वनों में भटकती ,कृष्ण कृष्ण पुकारती,अपने प्रेम को अमर बनाती,उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा। ...तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।



राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था...उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें , वृन्दावन की वे कुंजन गलियाँ , वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते थे , वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी ...



किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना। स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात..मन की बात सुन सकें। या फिर क्या यह उनका अभिनय था?

जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास -क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब 'जरा' के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। तभी उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ,'राधा' शब्द का उच्चारण किया।

जिसे 'जरा' ने सुना और 'उद्धव' को जो उसी समय वह पहुँचे..उन्हें सुनाया। उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे। सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद ,जब उद्धव ,राधा के पास पहुँचे ,तो वे केवल इतना कह सके ---
" राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ,
किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी"
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हम में से बहुत से लोग यही जानते हैं कि राधाजी श्रीकृष्ण की प्रेयसी थीं परन्तु इनका विवाह नहीं हुआ था। श्रीकृष्ण के गुरू गर्गाचार्य जी द्वारा रचित "गर्ग संहिता" में यह वर्णन है कि राधा-कृष्ण का विवाह हुआ था। एक बार नन्द बाबा कृष्ण जी को गोद में लिए हुए गाएं चरा रहे थे। गाएं चराते-चराते वे वन में काफी आगे निकल आए। अचानक बादल गरजने लगे और आंधी चलने लगी। नन्द बाबा ने देखा कि सुन्दर वस्त्र आभूषणों से सजी राधा जी प्रकट हुई। नन्द बाबा ने राधा जी को प्रणाम किया और कहा कि वे जानते हैं कि उनकी गोद मे साक्षात श्रीहरि हैं और उन्हें गर्ग जी ने यह रहस्य बता दिया था। भगवान कृष्ण को राधाजी को सौंप कर नन्द बाबा चले गए। तब भगवान कृष्ण युवा रूप में आ गए। वहां एक विवाह मण्डप बना और विवाह की सारी सामग्री सुसज्जित रूप में वहां थी। भगवान कृष्ण राधाजी के साथ उस मण्डप में सुंदर सिंहासन पर विराजमान हुए। तभी वहां ब्रम्हा जी प्रकट हुए और भगवान कृष्ण का गुणगान करने के बाद कहा कि वे ही उन दोनों का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न कराएंगे। ब्रम्हा जी ने वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ विवाह कराया और दक्षिणा में भगवान से उनके चरणों की भंक्ति मांगी। विवाह संपन्न कराने के बाद ब्रम्हा जी लौट गए। नवविवाहित युगल ने हंसते खेलते कुछ समय यमुना के तट पर बिताया। अचानक भगवान कृष्ण फिर से शिशु रूप में आ गए। राधाजी का मन तो नहीं भरा था पर वे जानती थीं कि श्री हरि भगवान की लीलाएं अद्भुत हैं। वे शिशु रूपधारी श्री कृष्ण को लेकर माता यशोदा के पास गई और कहा कि रास्ते में नन्द बाबा ने उन्हें बालक कृष्ण को उन्हें देने को कहा था। राधा जी उम्र में श्रीकृष्ण से बडी थीं। यदि राधा-कृष्ण की मिलन स्थली की भौगोलिक पृष्ठभूमि देखें तो नन्द गांव से बरसाना 7 किमी है तथा वह वन जहाँ ये गायें चराने जाते थे नंद गांव और बरसाना के ठीक मघ्य में है(sakarikhori)। भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को Aristocratic Love की श्रेणी में रखते हैं। इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।
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राधा तू बडभागिनी

राघाजी भगवान श्री कृष्ण की परम प्रिया हैं तथा उनकी अभिन्न मूर्ति भी। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को बरसाना के श्री वृषभानु जी के यहां राघा जी का जन्म हुआ था। श्रीमद्देवी भागवत में कहा गया है कि श्री राघा जी की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य श्री कृष्ण की पूजा का अघिकार भी नहीं रखता। राघा जी भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अघिष्ठात्री देवी हैं, अत: भगवान इनके अघीन रहते हैं। राघाजी का एक नाम कृष्णवल्लभा भी है क्योंकि वे श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली हैं।
माता यशोदा ने एक बार राघाजी से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा। राघाजी ने उन्हें बताया कि च्राज् शब्द तो महाविष्णु हैं और च्घाज् विश्व के प्राणियों और लोकों में मातृवाचक घाय हैं। अत: पूर्वकाल में श्री हरि ने उनका नाम राघा रखा। भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं—द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप में वे बैकुंठ में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी के साथ वास करते हैं परन्तु द्विभुज रूप में वे गौलोक घाम में राघाजी के साथ वास करते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि एक को कष्ट होता तो उसकी पीडा दूसरे को अनुभव होती। सूर्योपराग के समय श्रीकृष्ण, रूक्मिणी आदि रानियां वृन्दावनवासी आदि सभी कुरूक्षेत्र में उपस्थित हुए। रूक्मिणी जी ने राधा जी का स्वागत सत्कार किया। जब रूक्मिणी जी श्रीकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं। बहुत अनुनय-विनय के बाद श्रीकृष्ण ने बताया कि उनके चरण-कमल राधाजी के ह्वदय में विराजते हैं। रूक्मिणी जी ने राधा जी को पीने के लिए अधिक गर्म दूध दे दिया था जिसके कारण श्रीकृष्ण के पैरों में फफोले पड गए।
राधा जी श्रीकृष्ण का अभिन्न भाग हैं। इस तथ्य को इस कथा से समझा जा सकता है कि वंदावन में श्रीकृष्ण को जब दिव्य आनंद की अनुभूति हुई तब वह दिव्यानंद ही साकार होकर बालिका के रूप में प्रकट हुआ और श्रीकृष्ण की यह प्राणशक्ति ही राधा जी हैं।
श्री राधा जन्माष्टमी के दिन व्रत रखकर मन्दिर में यथाविधि राधा जी की पूजा करनी चाहिए तथा श्री राधा मंत्र का जाप करना चाहिए। राधा जी लक्ष्मी का ही स्वरूप हैं अत: इनकी पूजा से धन-धान्य व वैभव प्राप्त होता है।
राधा जी का नाम कृष्ण से भी पहले लिया जाता है। राधा नाम के जाप से श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और भक्तों पर दया करते हैं। राधाजी का श्रीकृष्ण के लिए प्रेम नि:स्वार्थ था तथा उसके लिए वे किसी भी तरह का त्याग करने को तैयार थीं। एक बार श्रीकृष्ण ने बीमार होने का स्वांग रचा। सभी वैद्य एवं हकीम उनके उपचार में लगे रहे परन्तु श्रीकृष्ण की बीमारी ठीक नहीं हुई। वैद्यों के द्वारा पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि मेरे परम प्रिय की चरण धूलि ही मेरी बीमारी को ठीक कर सकती है। रूक्मणि आदि रानियों ने अपने प्रिय को चरण धूलि देकर पाप का भागी बनने से इनकार कर दिया अंतत: राधा जी को यह बात कही गई तो उन्होंने यह कहकर अपनी चरण धूलि दी कि भले ही मुझे 100 नरकों का पाप भोगना पडे तो भी मैं अपने प्रिय के स्वास्थ्य लाभ के लिए चरण धूलि अवश्य दूंगी।
कृष्ण जी का राधा से इतना प्रेम था कि कमल के फूल में राधा जी की छवि की कल्पना मात्र से वो मूर्चिछत हो गये तभी तो विद्ववत जनों ने कहा
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माधव और माधव
नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

फागुन-चैत के नाम मधु-माधव भी हैं। फागुन मधु है, मधु की मिठास है, मधु की मदिरता है और चैत माधव है, माधव की राधा के लिए उत्कंठा भी है।
अनुज ने घर में मंदिर बनाया है। उसमें केवल कृष्ण विराजे हैं। उसका आग्रह था कि युगल छवि प्रतिष्ठित होनी चाहिए। अभी तो जो कुछ सहना पड़ता है, अकेले कृष्ण को ही सहन करना होता है, सँभार की अधिकता असंतुलन का कारण बनती है। उन्हें चाहिए रासेश्वरी का साहचर्य, जिसके बिना वे अपूर्ण हैं। इसलिए जयपुर के मित्र से आग्रह किया कि एक सुंदर प्रतिमा राधिका जी की भेजो, लेकिन ऐसी भेजना जो यह आभास करा दे कि वे कृष्ण की परम आह्लादिनी शक्ति हैं।
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देखना कि संगमरमर में तेजोमय लावण्य अपनी पूरी दीप्ति के साथ खिलकर उभर आए, देखना कि रास में शामिल होकर कृष्ण की परमप्रिया होने का गर्वमय उल्लास उनके चेहरे पर छलके और देखना कि उनमें राधिका का नारीत्व हो न हो, उनमें कृष्ण की भावित उपस्थिति भी हो- ऐसी उपस्थिति जिसके कारण राधा अपनी पहचान कृष्णमय होकर ही देखना चाहती हैं। मुझे पूरा विश्वास हे कि मेरे मित्र ने संगमरमर को तराशनेवाले शिल्पी को यही कहा होगा। मूर्ति का पार्सल लेकर मेरे सहकर्मी आज ही लौटे। पार्सल में क्या है, यह न तो मेरे जयपुर के मित्र ने देखा, न मेरे सहकर्मी ने- और आज जब पार्सल खोला तो देखा, उसमें मनोहारी प्रतिमा झाँक रही है। अद्भुत लावण्य और तेज छलक आया है चेहरे पर, पूरी देह दमक रही है। मेरे सामने मुरलीधर कृष्ण की मुसकराती प्रतिमा है। मैं हतप्रभ हो गया हूँ, फिर सँभल जाता हूँ। मुझे लगता है, तराशनेवाले शिल्पी ने बनाई तो राधा ही होगी, लेकिन उन्हें उसी तरह बनाया होगा जैसी मेरी भावना थी तो गढ़ा गए कृष्ण। राधा और माधव के साथ यही है। बनाओ राधा को तो कृष्ण बन जाते हैं और कृष्ण को गढ़ने लगो तो तराश ली जाती हैं राधा।
बारहवीं सदी के महाकवि जयदेव ने राधा-माधव की प्रेमलीला को केंद्र में रखते हुए, एक सुंदर काव्य रचा- 'गीतगोविंद'। इस ग्रंथ की जाने कितनी व्याख्याएँ हुईं। हाल ही में एक मौलिक व्याख्या की प्रख्यात संस्कृति मर्मज्ञ आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने 'राधा-माधव रंग रंगी' शीर्षक से। जब इस कृष्ण के मनोरम शिल्प को निहारा तो मुझे पंडित जी की व्याख्या याद आ गईं। उन्होंने इस ग्रंथ के पहले श्लोक, जिसे 'मंगल श्लोक' कहा जाता है, मैं यह विशेषता पाई कि पूरा काव्य वसंत से भरपूर है। 'गीतगोविंद' का रास वसंत में होनेवाला वासंती रास है, लेकिन इनका मंगल श्लोक वर्षा का है। इस काव्य की आखिरी अष्टपदी की बड़ी विलक्षण व्याख्या उन्होंने की है, जिसमें यह भेद खुलता है कि कैसे राधा और कृष्ण एक हैं और क्यों इस काव्य का मंगल वर्षा में होता है और वसंत में पूर्णता पाता है? इस अंतिम अष्टपदी में राधा कृष्ण से पूर्व मिलन के बाद कहती हैं कि मुझे फिर से सजा दो तो उनका पूरा आग्रह इस बात पर है कि अब द्वैतभाव मत रहने दो। मैं अब उस स्वरूप में लौटना नहीं चाहती जो मिलन के पूर्व का था। यही राधा के प्यार की चरम परिणति है कि वह जब तक नहीं मिलतीं तब तक श्रीकृष्ण को आमने-सामने निरंतर ध्यान में पाती रहती हैं वह दो रहती हैं और पा लेने के बाद उनका राधापन एकदम विगलित हो जाता है। फिर वह श्रीकृष्ण के हाथों से श्रीकृष्ण की ही एक आकृति के रूप में पुनर्निर्मित हो जाती हैं। राधा यही होना चाहती थीं। वसंत पावस बनने के लिए ही उत्तपित होता है, निपतित होता है, कंटकित होता है, पुष्पित होता है, पल्लवित होता है। 'गीतगोविंद' वर्षा की स्मृति में मंगल से प्रारंभ होता है, इसलिए कि पूरे काल की वासंती रसवृष्ठि का संकल्प बन जाए।

राधा रसवृष्टि का संकल्प हैं। मेरे सामने जो स्वरूप रखा है कृष्ण का, उनमें मुझे यही संकल्प झाँकता दिखाई दे रहा है। यह मनोहारी स्वरूप वसंत पंचमी को घर आया है। उज्जयिनी में वासंती शोभा अब नहीं दिखाई देती। रही होगी कालिदास के समय में सच्ची वासंती शोभा, बसती रही होगी उनके समय में अवंतिका में वसंत की आत्मा- तभी तो वाग्देवी ने उन्हें वरदान दे दिया और वे कालिदास से कवि कुलगुरु हो गए। आज भी उनकी आराध्या गढ़कालिका यहाँ विराजी हैं, जिनके संबंध में किंवदंती है कि कालिदास ने अपनी जिंह्वा का रक्त उन्हें समर्पित किया था। वसंत आगमन की प्रतीक वसंत पंचमी माँ शारदा की आराधना का दिन है। इस दिन सरस्वती की पूजा के लिए कोई अलग से जतन नहीं करने होते, वसंत में फूले आम के बौरों की पीली सुषमा उनके मस्तक का अभिषेक कर देती है और पलाश के रक्ताभ पुष्प उनके पाँव पखार देते हैं। वसंत की केसरिया शोभा ही शारदा का परिधान है, यही वसन है वासकसज्जा बनी राधा का और यही है पीतांबर पुरुषोत्तम का।

इसलिए अभिन्न हैं वसंत और बनमाली।

बसंत कुबेर है स्मृतियों का। सुधियों का अंतहीन सिलसिला, अटूट क्रम वसंत के साथ जुड़ा है। इन यादों के बीच सबसे सबल स्मृति है निराला की। वसंत पंचमी को जनमे निराला का जीवन भले पतझर का पर्याय रहा, लेकिन उनका मन सदैव शारदा और वसंत में ही डूबा रहा-
देखा शारदा नील वसंत।

वीणापाणि, वेणु गोपाल और वसंत- ये तीनों ही हमारी जातीय संरचना के अभिन्न अंग हैं। तीन इसलिए की चौथी जो राधा है, वह तो श्रीकृष्ण में ही समाई हैं। इन तीनों को हमने कहीं जड़ रूप में प्रतिष्टित कर भुला दिया। सरस्वती देवी बनकर पूजी जाने लगीं, कृष्ण ईश्वर बन गए, राधा कृष्ण की प्रेयसी बनी रहीं और वसंत सिर्फ़ ऋतु बनकर रह गया। जबकि वास्तविकता तो यह है कि इनकी व्यंजना में, इनमें समाए अर्थ की ज़मीन पर हमें अपने पाँव आगे बढ़ाने थे।

ये जड़ प्रतीक नहीं हैं। निराला जब शारदा की वंदना करते हैं तो वे इस देश की समष्टि को सँवारने के लिए गति का, लय का, ताल का और छंद का आह्वान करते हैं। गति का वेग कहीं मनोरम निर्मित को भंग न कर दे, इसलिए वे छंद के साँचे का भी आह्वान करते हैं। वे कंठों की, नभ की, उसके निस्सीम आँचल में विचरते विहंगों की स्मृति संजोते हैं और प्रार्थना करते हैं शारदा से कि इनको सदैव नए स्वर देते रहना। स्वर पुराने हो जाएँ तो मंद हो जाते हैं। निराला की प्रार्थना हरेक के लिए नए की है। उनकी आराधना नए निर्माण की आराधना है, भग्न स्मारकों की स्तुति नहीं है। नया, सबकुछ नया, सबके लिए नया, वसंत में शारदा सृष्टि भी नई रचे और स्वर भी। वे शारदा से सभी के लिए नए स्वरों का वर माँगते हैं-

वर दे, वीणावादिनी वर दे,
नवगति, नवलय, ताल छंद नव,
नवल कंठ नव, जलध मंद रव
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर नव स्वर दे,
वीणावादिनी वर दे।

शारदा की इस व्यंजना में यदि जाते तो नए गढ़ने का संकल्प पुराना नहीं होता। सरस्वती हरेक के द्वारा नया रचने का प्रतिनिधि प्रतिमान है।

और वसंत! उसे तो पहचानना तक छोड़ दिया। अखबारों में कभी-कभार कोई आलेख पढ़ने को मिल जाए, कहीं कोई काव्य-गोष्ठी आयोजित हो जाए, कभी कोई बुजुर्ग पद्माकर के वासंती छंद सुना दे तो यह एक आकस्मिकता की तरह होता है। वसंत के अर्थ हमारा देश पलाश के वनों, उनमें गुम होते नव परिणीत आदिवासी युगलों, आम के बौरों और कोयल की कूक से गूँजते उस वातावरण से लेता आया है, जिसने इस देश को अपनी वह सांस्कृतिक पहचान दी जिस पहचान के बूते पर भारतीय अस्मिता विश्व फलक पर अपने निराले सौंदर्य के साथ सबसे अलग और भव्य दिखाई देती है। हमारा समूचा दर्शन और कला-बोध वसंत के उपादानों में अपने उत्स को छुपाए हैं। भारतीय मनीषा ने इसी ऋतु में जनमनेवाली सुषमा में अपने आधार तत्वों की खोज की है। इसी वसंत ने दैन्य को खदेड़ा है और प्रकृति के माध्यम से यह संदेश दिया है कि यदि अपने मन में उर्वर हो लेने का संकल्प हो तो सूखी और काली धरती हरी चूनर भी ओढ़ सकती है, झुकी शाखों और कुम्हलाए आम के पीले पत्तों के जीवन में भी वह दिन आ सकता है, जब वह बौरों से लदे मुकुटों को कारण करे। और वह हर सुबह जो सन्नाटे में ऊबते हुए उगती है, वह शीतल वासंती बयार, कोयल के स्वरों की कूक और भौरों के गुंजार के बीच अपनी गरिमामय लालिमा के साथ उगकर इस सृष्टि को यह अभय संदेश दे सकती है कि निसर्ग पर भरोसा रखना, तपन स्थायी नहीं होती और सूरज का शौर्य भी वासंती जीवट से पराजित हो सकता है।

अंत में फिर कृष्ण! वे जड़ ईश्वर हैं ही नहीं। वे तो अपनी परम आह्लादिनी शक्ति राधा से संचालित होनेवाले ऐसे वासंती प्रतिमान हैं, जो नित्य हैं, सदैव नूतन हैं, परिभाषित नहीं होते, क्योंकि स्वयं परिभाषा हैं, अजीवित नहीं हैं, जीवंत हैं, अंत नहीं, आरंभ हैं, गोल घूमनेवाले परिक्रमावासी नहीं, पराक्रमी यात्री हैं, जो एक गंतव्य तक पहुँचकर सबको पहुँच जाने की ऊर्जा देते हैं। प्राप्त न हो सकने की विवशता को पाले, अपनी दूरियों के आवरण ओढ़े जड़ आराध्य नहीं बल्कि नित्य हो सकनेवाली ऐसी आराधना हैं, जिसके करने पर उस शक्ति को पाया जा सकता है जो उनकी स्वयं की परम आह्लादिनी शक्ति हैं।

कृष्ण नित्य प्रेरित करते हैं अभिन्न बनने के लिए। भिन्नता उन्हें नहीं भाती। युगल छवियाँ प्रतिष्ठित कर लेते हैं राधा और माधव की, किंतु एक ही छवि होतो उसमें दोनों विराजे हैं।

मैं वसंत की ढलान की वेला में घर में आए माधव को निहार रहा हूँ। नहीं, ये माधव नहीं हैं, ये तो श्रीराधा हैं- वही जिनके गढ़ने के लिए मैंने अपने मित्र को कुछ हिदायतें दी थीं।


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आपने रितिक रोशन की कृष फिल्म देखी होगी। कृष्ण आज होते तो निश्चित ही क्रिकेट खेलते और राजनीति में भी दखल रखते। उनके जमाने में उन्होंने फुटबॉल तो बहुत खेला और राजनीति में तो वे माहिर थे ही। यह जानकर आश्चर्य करने की कोई बात नहीं कि जब वे युद्ध के मैदान में थे तो एकदम तरोताजा युवा थे। लेकिन इस सबके बावजूद उन्होंने उनके जमाने में जो किया वह आज का कोई भी कृष नहीं कर सकता। इसीलिए कहना पड़ रहा है कि असली कृष तो कृष्ण ही है।

आधुनिक युग में अब दो ही मार्ग बच गए है युद्ध या बुद्ध। आश्चर्य यह क‍ि दोनों ही मार्ग कृष्ण से शुरू होते हैं और उन्हीं पर खत्म भी। दुनियाभर के युवाओं में फेमस हैं कृष्ण। 70 के दशक में तो कृष्ण आंदोलन की धूम थी। आने वाला भविष्य भी कृष्ण का ही होगा। क्योंकि कृष्ण में दोनों ही मार्ग समाहित हो जाते हैं।

युवाओं में क्यों फेमस हैं कृष्ण : कृष्ण तीन कारणों से युवाओं में फेमस हैं। पहला यह कि वे जीवन के हर मोर्चे पर स्वयं को युद्ध स्तर पर प्रस्तुत करते हैं। दूसरा यह कि वे प्यार को भी उतना ही महत्व देते हैं जितना की वार को। तीसरा यह कि उन्होंने बहुत संघर्ष के बाद स्वयं के जीवन को सफल बनाया था। उनके जीवन का एक भी पल ऐसा नहीं है जो व्यर्थ गया हो, क्योंकि उन्होंने भाग्य से ज्यादा कर्म को महत्व दिया।

युद्ध से प्रेम करो : कृष्ण कहते हैं कि ना कोई मरता है और ना ही कोई मारता है प्राणी तो बस निमित्त मात्र है, तो तू मरने और मारने से क्यूँ डरता है। अर्जुन जिन्हें तू जिंदा समझ रहा है, उन्हें तो मैं पहले से ही मार चुका हूँ, अब तो बस खेल मात्र है। तू डर मत और निश्‍चिंत होकर युद्ध से प्रेम कर। वेद कहते हैं आत्म रक्षा के लिए संगठित होओ और जो कौम युद्ध करना छोड़ देती है वह धीरे-धीरे अपना अस्तित्व भी खतम कर लेती है।


NDभाग्य नहीं कर्मवाद : कृष्ण फेटेलिस्ट नहीं है वे परफार्मेंस और प्रेक्टिस पर ही विश्वास करते हैं। कर्म करो और फल की चिंता मुझ पर छोड़ दो। भाग्य या भगवान भरोसे मत रहो। सामने युद्ध खड़ा हो तो भाग्य के बारे में नहीं सोचते। युद्ध के मैदान में सोचने का काम नहीं होता जोश और होश का काम रहता है। सोचने वाले कब मर जाते हैं उन्हें पता भी नहीं चलता। भगवान के भरोसे भी नहीं रहते। भगवान खुद तीर चलाकर नहीं जीता सकते युद्ध। तीर तो आपको ही चलाना होगा। जीवन के हर क्षेत्र में कर्म तो करना ही होगा। कर्मवान लोगों के साथ ही भाग्य और भगवान होते हैं। पहले खुद को बुलंद करो।

प्यार से प्यार करो : जीवन में प्रेम नहीं तो समझो तुम रेगिस्तान में भटक गए हो या किसी ग्लेशियर इलाके में धूप की तलाश कर रहे हो। यदि आपने 'डैथ वेली' का नाम सुना है तो आप वहीं खड़े हो। कृष्ण तो घने वन की तरह है जहाँ जंगली जानवरों के अलावा झरने, नदी, पहाड़ और वृक्षों के झुंड के बीच तुम्हें समुद्र की झील दिखाई देगी। प्रेमपूर्ण होना कुछ इसी तरह होता है। जिन्होंने अवतार फिल्म देखी है वे जानते हैं कि पेंडोरा कैसा था।

सच्चे प्रेमी : कृष्ण ने एक से नहीं 16000 स्त्रियों से प्रेम किया था और सभी की जिम्मेदारी उठा रखी थी कि जब तक तुम्हें मोक्ष नहीं मिल जाता मैं यह धरती नहीं छोडूँगा। लीलावती नामक उनकी एक प्रेमिका चूक गई थी। कहते हैं कि कई जन्मों के बाद मीरा के रूप में जन्मी लीला को कृष्ण ने पुन: पकड़ लिया। साथ पकड़ा है तो फिर आसानी से नहीं छोड़ेंगे सनम।

युवाओं के प्रेरक : कृष्ण का जीवन बहुत ही तेजी से चेंज होता रहा है। कृष्ण ने स्वयं को समय के अनुसार तेजी से परिवर्तित किया है। कृष्ण कहते भी है कि संसार परिवर्तनशील है जो बदलते नहीं वे इतिहास के गर्त में खो जाते हैं। कृष्ण ने अपनी प्रत्येक जिम्मेदारी का गंभीरता से पालन किया है जबकि जीवन को उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया। सदा हँसमुख और प्रसन्न चित्त रहकर उन्होंने राजनीति के बड़े से बड़े पाठ को पढ़ाया ही नहीं करके भी दिखा दिया। जो बोला वह किया।...'हे शिशुपाल में तेरा 100वाँ अपराध माफ नहीं करूँगा। तेरा अंतिम वक्त आ चुका है।'

एस्ट्रो टिप्स : जिनके सितारे गर्दिश में हैं उन्हें कृष्ण मंत्र का सहारा लेना चाहिए...'कृष्णाय शरणं मम'। मैं कृष्ण की शरण में हूँ। जो कृष्ण की शरण में होते हैं उन्हें किसी भी ग्रह-नक्षत्र से डरने की जरूरत नहीं। चंद्र को बलवान करने के लिए भी कृष्ण की भक्ति की सलाह दी जाती है। भाग्य के चक्र को जाग्रत करने के लिए कृष्ण के कर्म के सिद्धांत का अनुसरण किया जाता है।
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भागवत चिन्तन पितामह भीष्म की कृष्ण-भक्ति

कुरुक्षेत्र की पवित्र एवं कर्म प्रधान-भूमि में धर्मरथ रथी पांडवों एवं अधर्म रूपी रथ में आरूढ़ कौरवों के मध्य छिड़े युद्ध में अभूतपूर्व अतिरथी पितामह ने बाणों की शय्या पर लेटे हुए अपने अंतिम समय में भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए अश्रुपूरित नेत्रों से कहा कि ``हे प्रभु! मुझे उस समय आपके मुख-मण्डल की बहुत याद आती है, जब युद्ध के मैदान में आप अर्जुन के रथ को लेकर इधर-उधर दौड़ रहे थे। आपके मुख पर लहराते हुए घुंघराले बाल घोड़ों की टाप की उड़ती हुई धूल से मटमैले हो गये थे और श्रम के कारण निकली हुई पसीने की छोटी-छोटी बूंदें मुख-मण्डल पर शोभायमान हो रही थीं। उस समय ऐसा लग रहा था कि प्रभु का मुख-मण्डल ही नीला आकाश है और छोटी-छोटी पसीने की बूंदें कण ही तारे हैं। मैं अपने तीखे-बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुंदर कवच मण्डित भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर, अंतकरण और आत्मा समर्पित हो जाय।''

युधि तुरग रजो विधूम्र विवूक,
कच लुलित श्रम वार्यलङ्कतास्ये।
मम निशित शरैर्विभिद्य मान,
त्वचि विलसत्कवचे स्तु कृष्ण आत्मा।। (श्री.भा. 1.9.34)

पितामह भीष्म ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर तुंत ही रथ को पांडव और कौरव सेना के बीच में ले आये और वहां पर स्थित होकर अपनी दृष्टि से ही शत्रु-पक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली। उन पार्थ-सखा भगवान श्रीकृष्ण में मेरी प्रीति हो।

इस लीला पर श्रीमद्भागवत के टीकाकारों का भाव है कि प्रभु को समदर्शी कहा गया है और संपूर्ण जीवों के ऊपर समान भाव रखने वाले प्रभु ने ऐसा क्यों किया कि कौरवों की सेना की आयु हर कर पाण्डवों का पक्ष लिया है। टीकाकारों का मत है कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि ``धर्म संस्थापनार्थाय, संभवामि युगे-युगे।।'' धर्म की रक्षा करने के लिये, धर्म की स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में अवतार लेता हूं।

अत यहां पर प्रभु ने पाण्डवों का पक्ष नहीं, बल्कि धर्म को विजय श्री दिलाने के लिए धर्म का पक्ष लिया है और वास्तव में पाण्डवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर भी साक्षात धर्म के अवतार थे। दूसरा भाव यह भी है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना मित्र बनाया है और संकट के समय मित्र का पक्ष लेना मित्र का परम कर्त्तव्य है। आगे पितामह भीष्म कहते हैं कि अर्जुन ने जब दूर से कौरवों की सेना के मुखिया हम लोगों को देखा तो पाप समझकर अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया। उस समय उन्होंने श्रीमद्भागवद् गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके अर्जुन के सामयिक अज्ञान को नाश कर दिया, उन परम परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे।

प्रभु की इस लीला का भाव टीकाकारों ने बताया है कि उस समय पितामह भीष्म ने श्रीमद्भागवद् गीता के उपदेश को याद इसलिए किया कि जिस प्रकार से अर्जुन का मोह नष्ट हुआ और अर्जुन ने निष्काम भाव से प्रभु को हृदय में विराजमान कर युद्ध करना प्रारंभ कर दिया, तो इसी प्रकार का भाव पितामह भीष्म के हृदय में भी पैदा हो रहा है कि हमारी मति निष्काम भाव से प्रभु के चरणों में लगी रहे और प्रभु हमारी आत्मा में विराजमान रहें।

आगे पितामह भीष्म कहते हैं कि हे प्रभु! आप का यह कथन आज हमने सत्य पाया कि आप का भक्त स्वतंत्र है और आप भक्त के पराधीन हैं। उन्होंने कहा कि मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोड़ूंगा, और प्रभु आपने प्रतिज्ञा की थी कि मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। अंतत प्रभु आपने अपने भक्त की बात को सिद्ध करने के लिए अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया, क्योंकि किसी भक्त ने आपके लिए लिखा है कि ``अपना मान टले टल जाये, पर भक्त का मान न टलते देखा।'' जिस समय मैंने बाणों की वर्षा करके अर्जुन के रथ को ढंक दिया था और अर्जुन उस समय हमारी स्फूर्ति की प्रशंसा भगवान से कर रहा था कि प्रभु देखो तो दादा भीष्म का शरीर वृद्धावस्था का शरीर है, किंतु कितनी स्फूर्ति है। उधर प्रभु ने देखा कि भीष्म पितामह ने बाणों की वर्षा कर दी है तो प्रभु से रहा नहीं गया और वे रथ से कूद पड़े और जिस तरह जंगल का राजा सिंह हाथी को मारने के लिए उस पर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेकर प्रभु मुझ पर टूट पड़े। संसार के देखने में तो वह रथ का पहिया था, परंतु प्रभु के हाथ में आते ही वह रथ चक्र सुदर्शन-चक्र बन गया। उस समय वे इतने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी कांपने लगी।

स्व निगमयह्यय मप्रतिज्ञा,
मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थ।
धृतरथ चरणोsश्ययाच्चलद्गु र्द्वरि रिव हन्तुमिम गतोत्तरीय।। (श्री म.भा. 1,9,37)

पितामह भीष्म ने कहा कि मुझ आततायी ने तीखे बाण मार-मारकर उनके सारे शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था। अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिए मेरी ओर दौड़े आ रहे थे।

इस लीला में टीकाकारों का मत है कि जब भगवान का शरीर पंच-तत्व (पृथ्वी, जल, तेल, वायु, आकाश) से रहित है तो प्रभु के शरीर से रक्त कहाँ से निकला? इस पर टीकाकारों का मत है कि महाभारत के युद्ध को देवता भी आकाश से देख रहे थे और रक्त पुष्पों की वर्षा हो रही थी। वे पुष्प आकर के प्रभु के शरीर से लिपट गये थे और ऐसा लग रहा था कि रक्त की बूंदों से शरीर लथपथ हो गया।

दूसरा भाव यह भी टीकाकारों ने लिखा है कि पितामह भीष्म को उस समय भयंकर क्रोध आ रहा था, क्रोधावेश से उनकी आँखें लाल हो रही थीं और उन्हें प्रभु के शरीर में रक्त ही रक्त दिखाई दे रहा था। तीसरा भाव टीकाकारों ने यह भी बताया कि अर्जुन के शरीर में बाण लगने से रक्त निकल रहा था, कुछ बाण घोड़ों के शरीर पर लगे, जिससे रक्त निकला और वह रक्त की बूंदें प्रभु के शरीर पर पड़ गयी थीं, पितामह भीष्म ने कहा, ऐसे प्रभु जो रथ चक्र लेकर मुझे मारने के लिए दौड़े आ रहे थे और ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्त वत्सलता से परिपूर्ण थे, वे ही प्रभु श्रीकृष्ण मेरी एक मात्र मति हों - एक मात्र मेरे आश्रय हों।
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भालुका तीर्थ जहाँ श्रीकृष्ण ने त्यागी थी देह


एक देही के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की जो लीला मथुरा के कारागृह से शुरू हुई थी, उसने सागर के किनारे प्रयास क्षेत्र में विराम लिया। श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष जीवनकाल की अंतिम घटना के बारे में यह कहा जाता है कि वे शाम के समय आराम की मुद्रा में शांत-भाव से एक वृक्ष के नीचे बैठे थे और तभी जरा नामक बहेलिये का तीर उनके पैर में आकर लगा।

और इस लीला के बहाने भगवान अपने धाम गोलोक को वापस चले गये। माना जाता है कि यह लीला द्वापर काल में गुजरात के प्रयास क्षेत्र में अरब सागर के किनारे घटित हुई। वर्तमान में जूनागढ़ जिले के वेरावल कस्बे के बाहर ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर व तीन नदियों के संगम के निकट का यह स्थान कृष्ण-प्रेमियों को अनायास ही रूला देता है। एक देही के रूप में भगवान श्री कृष्ण की जो जीवन-यात्रा मथुरा के कारावास से शुरू हुई, उसने यहां विराम लिया और यहीं से गोलोक चले गये।

यहीं से शुरू हो गई जरा नामक उस बहेलिये की अनंत पीड़ा, जिसने उसे पूरे पांच वर्ष तक धरती के कोने-कोने पर भटकाया। उसके हाथों मरने वाला वो आदमी सिर्फ आदमी ही था, कोई देवता या भगवान नहीं, इस बात के प्रमाण ढूंढने के लिए वह जहां भी गया, वहीं उसे सुनाई दिया कि किसी दुष्ट बहेलिये ने भगवान कृष्ण को मार दिया। पांच वर्ष की असहनीय पीड़ा के बाद उसे अहसास हो गया कि उसने किसी आम-आदमी को नहीं मारा बल्कि मानव की देह धारण करके पृथ्वी पर आए साक्षात भगवान की देह अपने तीर से छीनी है। वापस उसी स्थान पर जाकर ``गोविंद गोविंद'' कहते हुए उस बहेलिये ने समुद्र में समाकर ही अपनी पीड़ा को शांत किया।

जिस स्थान पर जरा ने श्रीकृष्ण को तीर मारा, उसे आज `भालुका तीर्थ' कहा जाता है। वहाँ बने मंदिर में वृक्ष के नीचे लेटे हुए कृष्ण की आदमकद प्रतिमा है। उसके समीप ही हाथ जोड़े जरा खड़ा हुआ है। इन प्रतिमाओं का अनावरण 1967 में तत्कालीन केन्द्राrय मंत्री मोरारजी देसाई ने किया था। कुछ दूरी पर त्रिवेणी-संगम के किनारे श्रीकृष्ण देहोत्सर्ग स्थल है। त्रिवेणी-संगम में कभी कपिला, हिरण्य व लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी का संगम होता था। कपिला व हिरण्य का संगम आज भी है।

भगवान कृष्ण के एक बहेलिये के तीर का शिकार होने के पीछे जो धारणाएँ बतायी जाती हैं, उनमें सर्वाधिक प्रचलित धारण यह है कि गांधारी के श्राप से विनाशकाल आने के कारण श्रीकृष्ण यदुवंशियों के साथ प्रयास क्षेत्र में आ गये थे। यदुवंशी अपने साथ अन्न-भंडार भी ले आये थे। कृष्ण ने ब्राह्मणों को अन्नदान देकर यदुवंशियों को मृत्यु का इंतजार करने का आदेश दिया था।

कुछ दिनों बाद महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और मित्र सात्यकि समेत सभी यदुवंशी मारे गये थे, केवल बब्रु और दारूक ही बचे रह गये थे। इस संहार के बाद बलराम वनागमन कर गये। क्लांत और खिन्न होकर ही श्रीकृष्ण वृक्ष के नीचे लेटे हुए थे, तभी जरा ने उनके बायें पैर में तीर मारा।

संत लोग यह भी कहते हैं कि प्रभु ने त्रेता में राम के रूप में अवतार लेकर भगवान बलि को छुपकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान ने उसी बलि को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बलि को दी थी।

देहोत्सर्ग स्थल पर भगवान कृष्ण के चरण-चिह्न भी बनाये गये हैं। बराबर में ही बलदेव जी की गुफा है। कहते हैं कि श्रीकृष्ण के देह-त्याग देने पर बलराम ने भी नर-रूप त्याग दिया था और यह शेषनाग के रूप में आकर पाताल में प्रवेश कर गये थे। बलदेव जी की गुफा में शेषनाग और बलराम की प्रतिमा है। सन् 1967 में छ प्रतिमाओं का अनावरण किया गया था। बलदेव जी की गुफा से लगा हुआ ही गीता मंदिर है। मंदिर के 18 स्तम्भों पर गीता के 18 अध्याय अंकित हैं। इस मंदिर में श्रीकृष्ण की आदमकद प्रतिमा, बस बोलती हुई प्रतीत होती है। बराबर में ही लक्ष्मी-नारायण मंदिर भी है।
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निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

सभी शास्त्रों तथा धर्माचार्यों के प्रवचनों का यही सार है कि भगवान केवल भाव के भूखे हैं। वे हमसे किसी वस्तु अथवा पदार्थ की कामना नहीं रखते और न ही किसी फल-फूल की अपेक्षा रखते हैं। ईश्वर तो बस कोमल भाव और प्रेम चाहते हैं, निर्मल मन चाहते हैं। उनको तो भक्त का सच्चा प्रेम चाहिए, बस। जिस भक्त का स्वभाव निर्मल है, हृदय निर्मल है तथा जो छल-कपट से दूर है, उन्हें तो भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है।

संतों का भी मत है कि हम जन्म से पूर्ण और निर्मल ही थे, स्वभाव भी सरल ही था, एक नवजात शिशु की तरह, किंतु जैसे-जैसे हम बड़े होते चले गये, हमारे सरल स्वभाव तथा पवित्र हृदय में विकार प्रवेश करते चले गये। इन विकारों का आना भी स्वाभाविक है। हमारे लाख प्रयत्न करने के बाद भी पवित्र हृदय में विकारों का समावेश हो ही जाता है। जिस प्रकार एक बंद कमरे में धूल के कण पहुँच ही जाते हैं और उसे गंदा कर देते हैं, उसी प्रकार विकारों का हमारे अंदर प्रवेश होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसके लिए हम नियमित रूप से सत्संग और संतों की वाणी का पान करें तो सभी प्रकार के विकारों से बचा जा सकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकार बाह्य स्थूल स्वरूप के नहीं हैं। अंत इन विकारों को बाह्य साधनों से शुद्ध नहीं किया जा सकता है। ये विकार तो अंतकरण पर सूक्ष्म रूप में छाये रहते हैं, इसलिए इसके लिए सूक्ष्म साधनों की आवश्यकता होती है। जैसे, सूर्य की किरणें जो सूक्ष्म हैं, गंध को पवित्र कर देती हैं, उसी प्रकार ये विकार भी स्वच्छ होते हैं, लेकिन परमात्मा और संतों के प्रकाश को अपने अंदर धारण करने पर। सत्संग से यह विकार जो सत्, रज और तम गुणों से प्रभावित रहते हैं, अपनी विषमता को त्यागकर समता में आ जाते हैं। आत्मा का प्रकाश प्रस्फुटित होकर उसी प्रकार दिखने लगता है, जिस प्रकार काई को हटाने पर निर्मल जल दिखाई देने लगता है। ऐसा निर्मल मन ही परमात्मा से साक्षात्कार का अधिकारी बन सकता है।

अपने भक्तों की भावनाओं का प्रभु ने सदैव ख्याल रखा है। हर युग में अपने भक्तों की भावनाओं का प्रभु ने प्रतिफल दिया है। शबरी मतंग त्र+षि के आश्रम में रहती थी। वह नित्य प्रतिदिन त्र+षि का सत्संग सुनती तथा उनकी सेवा में रत रहती। परमधाम सिधारने से पूर्व त्र+षि ने शबरी से कहा कि एक दिन भगवान राम तेरी कुटिया पर आयेंगे, तब तुम उनकी प्रतीक्षा करना। उस दिन से शबरी रोज अपनी कुटिया में भगवान के आने की प्रतीक्षा करती रही। वह कुटिया की साफ-सफाई, पेड़-पौधों का सिंचन तथा प्रभु का ध्यान करती रहती। एक दिन वह शुभ घड़ी भी आ ही गयी, जब भगवान राम अपने अनुज सहित शबरी की कुटिया में पधारे और शबरी का सत्कार स्वीकार किया। शबरी ने बड़े भाव से चख-चख कर बेर खिलाये ताकि कोई खट्टा बेर प्रभु को न खाना पड़े। प्रभु ने शबरी के जू"s बेर और उनकी सेवा को प्रसन्नता से स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि उनको अपना आशीर्वाद भी दिया-

`कंद मूल फल खाये बारंबार बखान।'
भगवान कृष्ण जब कौरवों-पांडवों के बीच सुलह कराने हेतु समझौता प्रस्ताव लेकर राजा धृतराष्ट्र के दरबार में पहुँचे तो दुर्योधन ने पांडवों को पाँच गाँव देने के प्रस्ताव को भी "gकरा दिया। सभा के बाद जब दुर्योधन ने भगवान कृष्ण को भोजन के लिए आमंत्रित किया, तो भगवान ने निमंत्रण को अस्वीकार करते हुए कहा कि भोजन वहाँ किया जाता है, जहाँ भोजन का अभाव हो अथवा भोजन कराने वाले का आमंत्रित व्यक्ति पर कोई प्रभाव हो या भोजन कराने वाले का निर्मल भाव हो। चूंकि इस समय इन तीनों में से एक भी परिस्थिति ऐसी नहीं है, अत आपके यहाँ मेरा भोजन करना अभीष्ट नहीं है। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण महात्मा विदुर के घर चले गये और वहाँ भोजन को स्वीकार किया। ऐसी लीलाओं से भगवान ने यह संदेश दिया कि वे तो भाव के भूखे हैं, भोजन के नहीं। संत-महात्मा कहते हैं कि प्रभु का दर्शन सर्वव्याप्त है। प्रकृति के कण-कण में ईश्वर का दर्शन होता है। जिस साधना में प्रेम की मि"ास न हो, वह व्यर्थ का शारीरिक परिश्रम है। भक्ति, ज्ञान, योग, साधना ये सभी प्रभु की कृपा-प्राप्ति की सीढ़ियाँ हैं, जिन्हें संसार के प्राणियों से प्रेम नहीं, जिन्हें भगवान की वस्तुओं से प्रेम नहीं, ऐसे क"ाsर हृदय को ईश्वर दर्शन नहीं देते। इसलिए पूजा में प्रेम का भाव सर्वोपरि होना चाहिए। हमारी पूजा में निष्काम भाव का रस होना चाहिए तभी हमें प्रसाद की कामना करनी चाहिए।
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श्रीमद्गोपीश्वरं वन्दे शंकरं करुणाकरम्।
सर्वक्लेशहरं देवं वृन्दारण्ये रतिप्रदम्।।

जब-जब भगवान ने अवतार लिया, तब-तब भगवान शंकर उनके बालरूप के दर्शन करने के लिए पृथ्वी पर पधारे। श्रीरामावतार के समय भगवान शंकर वृद्ध ज्योतिषी के रूप में श्री काकभुशुण्डिजी के साथ अयोध्या में पधारे और रनिवास में प्रवेश कर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के दर्शन किये।

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।।
काकभुसंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।

श्रीकृष्णावतार के समय बाबा भोलेनाथ साधु वेष में गोकुल पधारे। यशोदा जी ने वेष देखकर दर्शन नहीं कराया। धूनी लगा दी द्वार पर, लाला रोने लगे, नजर लग गयी। बाबा भोलेनाथ ने नजर उतारी। गोद में लेकर नन्द के आंगन में नाच उठे। आज भी नन्द गाँव में वे `नन्देश्वर' नाम से विराजमान हैं।

ऐसे ही भगवान शंकर ने समय-समय पर विभिन्न रूप धारण कर अपने प्रिय आराध्य की लीलाओं का दिग्दर्शन किया। वृंदावन में भगवान शंकर का विचित्र रूप में दर्शन होता है। वृंदावन में भगवान श्रीकृष्ण ने वंशीवट पर महारास किया था, जिसे देखने के लिए भगवान शंकर को गोपी बनना पड़ा। वृंदावन नित्य है, रास नित्य है, आज भी रास होता है, श्रीगोपीश्वर महादेव नित्य हैं, रास देख रहे हैं।

एक बार शरद पूर्णिमा की शरत-उज्ज्वल चांदनी में वंशीवट यमुना के किनारे श्याम सुंदर साक्षात मन्मथनाथ की वंशी बज उठी। श्रीकृष्ण ने छ मास की एक रात्रि करके मन्मथ का मानमर्दन करने के लिए महारास किया था। मनमोहन की मीठी मुरली ने कैलाश पर विराजमान भगवान श्री शंकर को मोह लिया, समाधि भंग हो गयी। बाबा बांवरे होकर चल पड़े। वृंदावन की ओर।

पार्वती जी भी मनाकर हार गयीं, किंतु त्रिपुरारि माने नहीं। भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त श्रीआसुरि मुनि, श्रीपार्वती जी, नन्दी, श्रीगणेश, श्रीकार्तिकेय के साथ भगवान शंकर वृंदावन के वंशीवट पर आ गये।

वंशीवट जहाँ महारास हो रहा था, वहाँ गोलोकवासिनी गोपियाँ द्वार पर खड़ी हुई थीं। पार्वती जी तो महारास में अंदर प्रवेश कर गयीं, किंतु द्वारपालिकाओं ने श्रीमहादेवजी और श्रीआसुरि मुनि को अंदर जाने से रोक दिया, बोलीं, ``श्रेष्ठ जनों, श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष इस एकांत महारास में प्रवेश नहीं कर सकता।''

श्री शिवजी बोले, ``देवियों! हमें भी श्रीराधा-कृष्ण के दर्शनों की लालसा है, अत आप ही लोग कोई उपाय बतलाइये, जिससे कि हम महाराज के दर्शन पा सकें?'' ललिता नामक सखी बोली, ``यदि आप महारास देखना चाहते हैं तो गोपी बन जाइए। मानसरोवर में स्नान कर गोपी का रूप धारण करके महारास में प्रवेश हुआ जा सकता है। फिर क्या था, भगवान शिव अर्धनारीश्वर से पूरे नारी-रूप बन गये। श्रीयमुना जी ने षोडश श्रृंगार कर दिया, तो बाबा भोलेनाथ गोपी रूप हो गये। प्रसन्न मन से वे गोपी-वेष में महारास में प्रवेश कर गये।

श्री शिवजी मोहिनी-वेष में मोहन की रासस्थली में गोपियों के मण्डल में मिलकर अतृप्त नेत्रों से विश्वमोहन की रूप-माधुरी का पान करने लगे। नटवर-वेषधारी, श्रीरासविहारी, रासेश्वरी, रसमयी श्रीराधाजी एवं गोपियों को नृत्य एवं रास करते हुए देख नटराज भोलेनाथ भी स्वयं ता-ता थैया कर नाच उठे। मोहन ने ऐसी मोहिनी वंशी बजायी कि सुधि-बुधि भूल गये भोलेनाथ। बनवारी से क्या कुछ छिपा है? मुस्कुरा उठे, पहचान लिया भोलेनाथ को। उन्होंने रासेश्वरी श्रीराधा व गोपियों को छोड़कर ब्रज-वनिताओं और लताओं के बीच में गोपी रूप धारी गौरीनाथ का हाथ पकड़ लिया और मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए बड़े ही आदर-सत्कार से बोले, ``आइये स्वागत है, महाराज गोपीश्वर।''

श्रीराधा आदि श्रीगोपीश्वर महादेव के मोहिनी गोपी के रूप को देखकर आश्चर्य में पड़ गयीं। तब श्रीकृष्ण ने कहा, ``राधे, यह कोई गोपी नहीं है, ये तो साक्षात् भगवान शंकर हैं। हमारे महारास के दर्शन के लिए इन्होंने गोपी का रूप धारण किया है।'' तब श्रीराधा-कृष्ण ने हंसते हुए श्रीशिव जी से पूछा, ``भगवन! आपने यह गोपी वेष क्यों बनाया?'' भगवान शंकर बोले, ``प्रभो! आपकी यह दिव्य रसमयी प्रेमलीला-महारास देखने के लिए गोपी-रूप धारण किया है।'' इस पर प्रसन्न होकर श्रीराधाजी ने श्रीमहादेव जी से वर मांगने को कहा तो श्रीशिव जी ने यह वर मांगा ``हम चाहते हैं कि यहाँ आप दोनों के चरण-कमलों में सदा ही हमारा वास हो। आप दोनों के चरण-कमलों के बिना हम कहीं अन्यत्र वास करना नहीं चाहते हैं।''

भगवान श्रीकृष्ण ने `तथास्तु' कहकर कालिन्दी के निकट निकुंज के पास, वंशीवट के सम्मुख भगवान महादेवजी को `श्रीगोपीश्वर महादेव' के नाम से स्थापित कर विराजमान कर दिया। श्रीराधा-कृष्ण, गोपी-गोपियों ने उनकी पूजा की और कहा कि व्रज-वृंदावन की यात्रा तभी पूर्ण होगी, जब व्यक्ति आपके दर्शन कर लेगा। आपके दर्शन किये बिना यात्रा अधूरी रहेगी। भगवान शंकर वृंदावन में आज भी `गोपीश्वर महादेव' के रूप में विराजमान हैं और भक्तों को अपने दिव्य गोपी-वेष में दर्शन दे रहे हैं। गर्भगृह के बाहर पार्वतीजी, श्रीगणेश, श्रीनन्दी विराजमान हैं। आज भी संध्या के समय भगवान का गोपीवेश में दिव्य श्रृंगार होता है।
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श्रीमद्भागवत कल्पवृक्ष


श्रीमद्भागवत कल्पवृक्ष की ही तरह है, यह हमें सत्य से परिचय कराता है। उन्होंने कहा कि कलयुग में तो श्रीमद् भागवत कथा की अत्यंत आवश्यकता है, क्योंकि मृत्यु जैसे सत्य से हमें यही अवगत कराता है।

माधवानंदजी महाराज ने राजा परीक्षित के सर्पदंश और कलयुग के आगमन की कथा सुनाई। उन्होंने बताया कि राजा परीक्षित बहुत ही धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में कभी भी प्रजा को किसी भी चीज की कमी नहीं थी।

एक बार राजा परीक्षित आखेट के लिए गए, वहाँ उन्हें कलयुग मिल गया। कलयुग ने उनसे राज्य में आश्रय माँगा, लेकिन उन्होंने देने से इनकार कर दिया। बहुत आग्रह करने पर राजा ने कलयुग को तीन स्थानों पर रहने की छूट दी। इसमें से पहला वह स्थान है जहाँ जुआ खेला जाता हो, दूसरा वह स्थान है जहाँ पराई स्त्रियों पर नजर डाली जाती हो और तीसरा वह स्थान है जहाँ झूठ बोला जाता हो। लेकिन राजा परीक्षित के राज्य में ये तीनों स्थान कहीं भी नहीं थे।


NDतब कलयुग ने राजा से सोने में रहने के लिए जगह माँगी। जैसे ही राजा ने सोने में रहने की अनुमति दी, वे राजा के स्वर्णमुकुट में जाकर बैठ गए। राजा के सोने के मुकुट में जैसे ही कलयुग ने स्थान ग्रहण किया, वैसे ही उनकी मति भ्रष्ट हो गई। कलयुग के प्रवेश करते ही धर्म केवल एक ही पैर पर चलने लगा। लोगों ने सत्य बोलना बंद कर दिया, तपस्या और दया करना छोड़ दिया। अब धर्म केवल दान रूपी पैर पर टिका हुआ है।

यही कारण है कि आखेट से लौटते समय राजा परीक्षित श्रृंगी ऋषि के आश्रम पहुँच कर पानी की माँग करते हैं। उस समय श्रृंगी ऋषि ध्यान में लीन थे। उन्होंने राजा की बात नहीं सुनी, इतने में राजा को गुस्सा आ गया और उन्होंने ऋषि के गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया। जैसे ही उनका ध्यान समाप्त हुआ, उन्होंने राजा परीक्षित को सर्पदंश से मृत्यु का श्राप दे दिया।

माधवानंदजी महराज ने कहा कि हम सब कलयुग के राजा परीक्षित हैं, हम सभी को कालरूपी सर्प एक दिन डस लेगा, राजा परीक्षित श्राप मिलते ही मरने की तैयारी करने लगते हैं। इस बीच उन्हें व्यासजी मिलते हैं और उनकी मुक्ति के लिए श्रीमद्भागवत्‌ कथा सुनाते हैं। व्यास जी उन्हें बताते हैं कि मृत्यु ही इस संसार का एकमात्र सत्य है। श्रीमद् भागवत की कथा हमें इसी सत्य से अवगत कराया जाता है।
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राधा है रानी, कृष्ण मंत्री

अक्षर यात्रा की कक्षा में र वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "ऋग्वेद" में रात्रि और उषा को अग्नि रूप कहा गया है। ये दोनों आकाश अथवा स्वर्ग की बहनें और ऋत की माता मानी गई है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, हमने रात्रि का अर्थ रात और उषा का अर्थ प्रात: पढ़ा है। फिर रात और प्रभात में बहिनापा कैसे हुआ।
आचार्य बोले- वैदिक शब्दों पर अनुसंधान करने वाले पाश्चात्य विद्वान मैकडॉनेल ने रात्रि को अन्धकार का प्रतियोगी माना है। "ऋग्वेद" में रात्रि के लिए एक ऋचा मिलती है। उसमें रात के आगे "चमकीली" विशेषण लगाया है। वेद में "प्रकाशपूर्ण रात्रि" घने अंधकार के विरोध में खड़ी दिखती है। इसलिए वेद उषा और रात्रि को "दिव्य बहनें" कहता है।

आचार्य बोले- "एकाक्षरी कोश" में समृद्धि और सफलता के अर्थ में राधा शब्द का प्रयोग मिलता है। जयदेव के "गीतगोविन्द" में राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम का वर्णन है। "गीतगोविन्द" की नायिका राधा का उल्लेख "महाभारत" में कृष्ण-कथा के साथ नहीं मिलता। "श्रीमद्भागवतपुराण" में एक गोपी के प्रति श्रीकृष्ण गहन अनुराग रखते हैं। अन्य गोपियां इस अनुराग भाव को देखकर यह अनुमान करती हैं कि इस गोपी ने पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की आराधना की होगी। यही वह स्त्रोत है जिससे राधा शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है। राधा शब्द राध् धातु से बना है। जिसका अर्थ है सोच-विचार करना, सम्पन्न करना, आनन्द और प्रकाश देना। इस तरह "राधा उज्ज्वल आनन्ददायिनी शक्ति" भी है। अयनघोष गोप की पत्नी और वृषभानु गोप की पुत्री को भी राधा कहा गया है। "ब्रह्मवैवर्त" और "देवीभागवत" में राधा का वर्णन मिलता है। पर "श्रीमद्भागवत" में राधा का नाम नहीं मिलता है। एक मान्यता कहती है कि जन्म लेते ही राधा पूर्ण वयस्क हो गई। इनका विवाह श्रीकृष्ण के साथ नहीं होना माना जाता है। जबकि "गर्गसंहिता" में राधा का विवाह श्रीकृष्ण से हुआ। वृन्दा भी राधा का एक नाम है। एक दूसरी मान्यता के अनुसार राधा शब्द का प्रथम उल्लेख "गोपालतापनीयोपनिषद्" में हुआ है। वृन्दावन में राधा की पूजा 1100 ई. के लगभग आरम्भ हुई। 1585 ई. में "राधावल्लभीय सम्प्रदाय" अस्तित्व में आया। इसके स्थापक गोस्वामी हरिवंश थे। इनके तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इस सम्प्रदाय का मानना है कि श्रीकृष्ण राधा के सेवक हैं। राधा रानी है जबकि श्रीकृष्ण राधा के मंत्री हैं। राधा भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को पैदा हुई। इसलिए दूसरे दिन राधाष्टमी मनाई जाती है। "ज्योतिषशास्त्र" में विशाखा नक्षत्र को राधा कहा है। बिजली के अर्थ में भी राधा शब्द प्रयुक्त होता है। कर्ण का एक विशेषण राधेय है, क्योंकि उनका पालनपोषण करने वाली अधिरथ की पत्नी राधा थी।

आचार्य ने बताया- सुन्दर, प्रिय, मनोहर और आनन्दप्रद के लिए राम शब्द का प्रयोग हुआ है। श्वेत और कृष्ण के विपरीत अर्थ को भी राम शब्द धारण करता है। "वाल्मीकि रामायण" के अनुसार राम विष्णु के अवतार थे। 1014 ई. में अमितगति नामक जैन लेखन ने राम को सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सबका रक्षक बताया है। राम के साहसिक कार्यो के लिए रामायण शब्द काम में लिया गया है। राम के पराक्रम का वर्णन करने वाला ग्रंथ वाल्मीकि रचित "रामायण" है। महाभारत काल में रामायण की कथा "पुरातनी कथा" यानी पुरानी कहानी मानी जाती थी। "द्रोणपर्व" में लिखा है- "अपिचायं पुरा गीत: श्लोको वाल्मिकीना भुवि"। वाल्मीकि ने रामायण के 24,000 श्लोक रचे थे। जो 500 सर्गो में बंटे थे। आजकल रामायण के तीन पाठ मिलते हैं- औदीच्य, दाक्षिणात्य और प्राच्य अथवा गौड़ीय। इन तीनों में पाठभेद है और कोई भी पूरा नहीं है। रामायण संस्कृत का पहला महाकाव्य होने से "आदिकाव्य" कहा गया है। राम भक्तों के लिए तुलसीदास का "रामचरितमानस" पारायण गं्रथ है। भगवती की एक मूर्ति को रामजयन्ती कहते हैं। चैत्र शुक्ल नवमी को भी रामजयन्ती अथवा रामनवमी कहते हैं। "वाल्मीकि रामायण" के युद्धकाण्ड के अनुसार रामेश्वर के निकट समुद्री चट्टानों के समूह को रामसेतु कहा गया है। दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध शिवलिंग रामेश्वर कहा गया है। इसकी स्थापना रामसेतु बांधते समय रामजी ने की। कोई भी शिल्पकार्य आरम्भ करने से पहले देव स्थापना करने की प्राचीन प्रथा थी। इसका अनुसरण करते हुए राम ने रामेश्वर की स्थापना और पूजन के बाद रामसेतु बांधने में हाथ लगाया। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, बुधवार, हस्तनक्षत्र, गदकरण, आनन्द, व्यतीपात योग, कन्या राशि के चन्द्रमा तथा वृष के सूर्य में रामेश्वर और रामसेतु की स्थापना हुई थी। इसे "एडम्सब्रिज" भी कहते हैं।
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'मार्कण्डेयपुराण'

की कथा के अनुसार विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के गर्भ से उत्पन्न सूर्य की पुत्री को यमुना कहते हैं। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, अपने देश में तो पवित्र नदी का नाम यमुना है। फिर सूर्य पुत्री को यमुना क्यों कहा गया।

आचार्य ने बताया- संज्ञा ने अपने पति सूर्य के तेज के भय से अपनी आंखें बंद कर लीं। इससे सूर्य क्रुद्ध हो गए और शाप दिया। जिससे इसका पुत्र 'यम' सब लोकों का नियमन करने वाला बना। फिर संज्ञा ने सूर्य की ओर चंचल दृष्टि से देखा और सूर्य के शाप से पुत्री यमी नदी के रू प में बहने लगी और यमुना कहलाई। 'श्रीमद्भागवतपुराण' के अनुसार श्रीकृष्ण के बडे भाई बलराम ने अपने हल से यमुना को दो भागों में बांट दिया इसलिए वे यमुनाभिद् कहे गए। जौ के दाने को यव कहा है। जौ भी युगल भाव लिए होता है। एक अंगुली के 1/6 अथवा 1/8 नाप को भी यव कहते हैं। 'लक्षणशास्त्र' में हाथ की अंगुलियों में बने जौ के दाने के चिह्न को सौभाग्यसूचक माना है। जौ की शराब को यवसुरा कहते हैं।

आचार्य ने बताया- 'मनुस्मृति' के अनुसार ग्रीक देश अथवा यूनान के निवासी को यवन कहते हैं। यवन तुर्वसु के वंशज थे। इन्हें वीर और बुद्धिमान माना गया है। राजा सगर ने इन्हें परास्त किया और इसके सिर मुंडवा दिए। यवनों के पूर्वज राजा कालयवन का नाम पुराणों में भी मिलता है। कालयवन ने श्रीकृष्ण से कई युद्ध किए। मान्यता है कि यवनों की उत्पत्ति वशिष्ठ और विश्वामित्र के झगडे के समय वशिष्ठ ऋषि की गाय से हुई। पुराण में इन सब के विवरण प्रतीकात्मक अर्थ में हैं। कालयवन के शत्रु होने से श्रीकृष्ण का एक विशेषण यवनारि है। गाजर को भी यवन कहते हैं। यवनों की भाषा और लिपि को यवनानी कहा गया है।

यवन स्त्री को यवनिका कहते हैं। यवन बालाएं राजाओं की दासियों के रू प में नियुक्त थीं। ये राजाओं के धनुष और तरकश को संभालती थीं। संस्कृत के नाटकों में मंच पर पर्दा डालने का काम भी यवन बालाएं करती थीं। इसलिए नाटक के पर्दे के लिए भी यवनिका शब्द रू ढ हो गया। 'कामायनी' में नाटक के पर्दे के गिरने के अर्थ में यवनिका पतन शब्द काम में लिया है। 'नाटक शकुंतला' और 'विक्रमोर्वशीयम्' में यवनिकाओं यानी यवन बालाओं के मनोहारी चित्रण मिलते हैं। 'याज्ञवल्क्य संहिता' में घास के अर्थ में यवस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'मनुस्मृति' में भी चारे के अर्थ में यवस शब्द देखा गया है। चारागाह को याव कहा गया है। राजस्थानी का 'जाव' शब्द भी चारागाह के अर्थ को प्रकट करता है। जाव शब्द याव का अपभ्रंश है। 'सुश्रुत' में चावल की कांजी अथवा माड को यवागु कहा है। 'महाभारत' में भी इसी अर्थ में यवागु शब्द मिलता है।

आचार्य ने बताया- स्तम्भ, गदा, लकडी और लाठी के अर्थ में यष्टि शब्द का प्रयोग होता है। झंडे के डंडे को ध्वजयष्टि और कदम्ब की टहनी को कदम्बयष्टि कहते हैं। पतली लता के अर्थ में भी यष्टि शब्द का प्रयोग होता है। इसीलिए 'संस्कृत साहित्य' में कामिनी की कमनीय काया को देहयष्टि कहा गया है। लाठी अथवा गदाधारी को यष्टिग्रह कहते हैं। 'रघुवंश' में पक्षियों के बैठने की जगह के लिए यष्टि निवास शब्द काम में लिया गया है। निर्बल और शक्तिहीन को यष्टिप्राण, एक लड के मोतियों के हार और टिटहरी को भी यष्टिका कहते हैं। जिस अनुष्ठान में आहुतियां दी जाती हैं उसे याग कहा गया है। यज्ञ और उपहार के अर्थ में भी याग शब्द प्रयुक्त होता है। केशवदास ने कहा है- 'यज्ञ, योग याग व्रत दान जो कीजै।' 'रघुवंश' में भी याग शब्द का उल्लेख मिलता है। 'श्रीमद्भागवत' के अनुसार इंद्र के पुत्र जयंत का एक नाम यागसंतान है।

आचार्य ने बताया- याज्ञवल्क्य एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम है। ये वैशम्पायन के शिष्य थे। गुरू के नाराज होने पर उनकी आज्ञा से इन्होंने सारा ज्ञान उगल दिया। वैशम्पायन के अन्य शिष्यों ने तीतर बनकर इस उलीचे ज्ञान को ग्रहण किया इसलिए वे तैत्तिरीय कहलाए और याज्ञवल्क्य शाखा का नाम 'तैत्तिरीय शाखा' पडा। सूर्य के वरदान से याज्ञवल्क्य 'वाजसनेयी संहिता' के आचार्य भी हुए। याज्ञवल्क्य के पिता का नाम वाजसन था। इसलिए इन्हें वाजसनेय भी कहा गया। उनकी संहिता शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता कहा है। राजा जनक के समय भी याज्ञवक्ल्य नामक ऋषि हुए। मैत्रेयी और गार्गी इनकी पत्नियां थीं। इन्होंने याज्ञवल्क्य स्मृति की रचना की। इसका दायभाग आज भी भारतीय अदालतों में कानून के रू प में मान्य है।
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