Tuesday, May 11, 2010

शिव अर्जुन युद्ध /कुबेर पुत्रों का उद्धार/नारद मोह की कथा/ रुक्मिणी/वेणु का विनाश

शिव अर्जुन युद्ध / Shiva Arjuna Yuddha
हिमालय पर्वतमाला में ‘इन्द्रकील’ बड़ा पावन और शांत स्थल था। ॠषि-मुनि वहां तपस्या किया करते थे। एक दिन पांडु पुत्र अर्जुन उस स्थल पर पहुंच गए। अर्जुन को अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित देखकर मुनि कुमारों में खुसर-पुसर होने लगी। एक मुनि कुमार बोला, “यह अनजान व्यक्ति कौन है?”
“कोई भी क्यों न हो, इसे पवित्र स्थान पर अस्त्र शस्त्र नहीं लाने चाहिए थे। “दूसरा बोला।
ॠषि कुमार नदी के किनारे तक अर्जुन के पीछे-पीछे गए और यह देखने लगे कि वह करता क्या है? अर्जुन ने अपने अस्त्र-शस्त्र उतारे और वहां बने शिवलिंग के सामने बैठ गया। उसने बड़े मनोयोग से भगवान शिव की आराधना की, शिवलिंग पर फूल चढ़ाए। तभी एक मुनि कुमार अर्जुन को पहचान गया। बोला, ”अरे ये तो पांडु पुत्र अर्जुन है। मैंने इसके शौर्य के बहुत चर्चे सुने है। इस समय यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है।“
"पर यह यहां आया किसलिए है?” दूसरे मुनिकुमार ने जिज्ञासा प्रकट की।
“कपटी दुर्योधन के साथ जुए में सब-कुछ हारकर पांडव वनवास कर रहे है।“ पहले वाले मुनि कुमार ने बताया।
"तब तो ये भगवान शिव से वरदान मांगने आए होंगे?” तीसरे ने कहा।
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द्वापर युग में कुबेर जैसा शानवान कोई नहीं था। उसके दो पुत्र थे। एक का नाम नलकूबर था व दूसरे का मणिग्रीव। कुबेर के ये दोनों बेटे अपने पिता की धन−सम्पत्ति के प्रमाद में घमंडी और उद्दंड हो गए थे। राह चलते लोगों को छेड़ना, उन पर व्यंग्य कसना, गरीब लोगों का मखौल उड़ाना उन दोनों की प्रवृत्ति बन गयी थी। एक दिन दोनों भाई नदी में स्नान कर रहे थे। तभी आकाश मार्ग से आते हुए उन्हें देवर्षि नारद दिखाई दिए। उनके मुख से 'नारायण−नारायण' का स्वर सुनकर नदी पर स्नान के लिए पहुँचे लोग उन्हें प्रणाम करने लगे, लेकिन नलकूबर और मणिग्रीव तो अपने पिता के धन के कारण दंभ में भरे हुए थे। उन्होंने नारद को प्रणाम करने के स्थान पर उनकी ओर मुँह बिचकाया और उनका उपहास उड़ाया।

उन दोनों का व्यवहार नारद को बहुत अखरा। क्रोध में भरकर उन दोनों को शाप दे दिया, 'जाओ, मर्त्यलोक में जाकर वृक्ष बन जाओ।' शापवश उसी समय दोनों मर्त्यलोक में, गोकुल में नंद बाबा के द्वार पर पेड़ बन कर खड़े हो गए। कुबेर को अपने पुत्रों की दुर्दशा की खबर मिली तो वह बहुत दुःखी हुआ और महर्षि नारद से बार−बार क्षमा याचना करने लगा। नारद जी को उस पर दया आ गई। उन्होंने अपने शाप का परिमार्जन करते हुए कहा, 'अभी तो कुछ हो नहीं सकता, किंतु जब द्वापर में भगवान विष्णु कृष्ण के रूप में वहाँ अवतरित होंगे और दोनों वृक्षों का स्पर्श करेंगे तब उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।'

नारद के वचनों को सिद्ध करने के लिए ही मानो वासुदेव श्रीकृष्ण को गोकुल के राजा नंद के घर पलने के लिए छोड़ गए। वैसे तो सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण के गोकुल छोड़ आने का उद्देश्य था− प्रजा को कंस के अत्याचारों से बचाना। नंद की पत्नी यशोदा कृष्ण को बड़े लाड़−प्यार से पालती थी, परंतु कृष्ण को तो अपनी लीला रचानी थी। ग्वालिनों के घरों से मक्खन चुराना, उनके मटके फोड़ देना, घर के मक्खन को ग्वाल सखाओं में बाँटना, आदि खेल कृष्ण करते थे।

एक दिन सुबह−सुबह माता यशोदा दही मथ रही थीं और नंद बाबा गौशाला में बैठकर गायों का दूध दुहवा रहे थे, तभी कृष्ण जाग गए और माता यशोदा से दुग्ध पान की जिद करने लगे। किंतु काम में व्यस्त होने के कारण यशोदा को थोड़ा−सा विलम्ब हो गया। बस, फिर क्या था, कृष्ण रूठ गए और गुस्से में मथनी ही तोड़ डाली। यशोदा को भी क्रोध आ गया। उन्होंने एक रस्सी से कृष्ण को बांध दिया और रस्सी एक ऊखल से बांध दी। कृष्ण ठहरे अंतर्यामी, इन्हें अपने दरवाजे के दो शापित वृक्षों की याद आ गई। नारद द्वारा शापित कुबेर के पुत्र काफ़ी समय तक अपनी अशिष्टा की सजा पा चुके थे। अब उन्हें मुक्त करना था। ऐसा सोचकर ऊखल खिसकाते हुए कृष्ण आगे बढ़े और दोनों वृक्षों के समीप आकर उनका स्पर्श किया और ऊखल से धक्का मारा। दोनों वृक्ष तत्काल हरहराते हुए नीचे आ गिरे। वृक्षों के गिरने से जो भारी शोर हुआ, उसे सुनकर नंद बाबा, माता यशोदा सहित सभी पड़ोसी वहाँ दौड़ते हुए पहुँचे। तब सभी ने एक चमत्कार देखा। उन वृक्षों में से दो सुंदर युवक, जो कोई देवता जैसे लग रहे थे, कृष्ण के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। फिर वे अंतर्ध्यान होकर अपने लोक को चले गए। इस प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव को नारद के शाप से मुक्ति मिली।
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कई महिने बीत गए। अर्जुन तन्मय होकर ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करते रहे, शिवलिंग के आगे। उनके शरीर से तेज निकलकर वातावरण को गरम करने लगा। इस कारण ॠषि-मुनियों को मन्त्र-पूजा करने में बाधा होने लगी। देखते ही देखते सारा जंगल उस ताप से तपने लगा। घबराकर ॠषि-मुनि कैलाश गए जहां शिव का वास है। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की, “हे शिव शंकर, हे अभयंकर, अर्जुन की मनोकामना पूरी करो और हमारी पीड़ा हरो।“ शिव ने ॠषियों को आश्वस्त किया तो ॠषि-मुनि अपने स्थान को लौट गए। उनके जाने के पश्चात पार्वती ने शिव से पूछा, “स्वामी! अर्जुन को क्या चाहिए।“
‘देवी! उसे दिव्य अस्त्र-शस्त्र चाहिए?”
“परंतु क्या वह दिव्यास्त्रों क प्रयोग कर लेगा?”
“मै उसकी परीक्षा लेकर देखूंगा।“ शिव बोले, “मै किरात के भेष में जाकर उससे युद्ध करूंगा।“
“मैं भी साथ चलूंगी।“ पार्वती बोली।
“चलो, लेकिन भेष बदलकर्।“
“तो ठीक है, मैं किरात-नारी बन जाती हूं।“
यह बात जब शिव के गणों को मालूम हुई तो उन्होंने शिव से प्रार्थना की, “प्रभु! हमारी इच्छा है कि हम भी इस युद्ध को देखें। हमें भी साथ ले चलें।“
“चलो, किंतु तुम्हें किरात-नारियों का भेष धारण करना पड़ेगा।“ शिव ने कहा। तत्पश्चात सभी किरात के भेष में इन्द्रनील की ओर चल पड़े। वे इन्द्रनील पहुंचे तो माता पार्वती ने एक ओर संकेत करते हुए भगवान शिव से कहा, ”स्वामी! वह देखिए , कितना बड़ा शूकर्।“
“देख लिया। अभी से इसे तीर से मार गिराऊंगा।“ कहते हुए शिव ने अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया। किंतु शूकर भागने में किरात से तेज था। उसने ॠषियों के आश्रम में जाकर ऐसा उत्पात मचाया कि ॠषि भाग खड़े हुए, ‘बचाओ, रक्षा करो, मूकासुर फिर आ गया शूकर बनकर।‘ कहते हुए वे सहायता की गुहार लगाने लगे।
ॠषि-मुनियों की चीख-पुकार से अर्जुन का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने आंखें खोली और धनुष पर बाण चढ़ा लिया। तभी किरात भेषधारी भगवान शिव अपने धनुष पर बाण चढ़ाए उसे आते दिखाई दिए। अर्जुन को शूकर का निशाना बनाते देख शिव ने कहा’ “ठहरो। इस शूकर पर बाण मत चलाना। यह शिकार मेरा है। मैंने बहुत देर तक इसका पीछा किया है।“
“ठीक है, तुम इसे मार सको तो ले जाओ।“ अर्जुन बोले, “शिकारी भीख नहीं मांगा करते।“

शूकर के शरीर में एक साथ दो तीर आ घुसे। एक किरात भेषधारी शिव का और दूसरा अर्जुन का। दो-दो तीर खाकर शूकर भेषधारी मूकासुर ढेर हो गया। ज़मीन पर गिरते नी उसका असली रूप प्रकट हो गया।
“सरदार की जय।“ किरात नारियां बने शिवगणों ने जय-जयकार करनी शुरू कर दी।
“यह तुम्हारे बाण से मरा है, स्वामी।“ किरात नारी बनीं पार्वती मुदित स्वर में बोलीं।
किरात-नारियों के हर्षोल्लास पर अर्जुन मुस्कराए। शिव के सामने जाकर बोले, “किरात! इस घने वन में इन स्त्रियों को भय नहीं लगता? अकेले तुम्हीं पुरुष इनके साथ हो,”
“युवक! हमें किसी का भय नहीं। पर तुम शायद डरते हो। हो भी तो कोमल।“ शिव ने मुस्कराकर कहा।
“मै कोमल हूं? तुमने देखा नहीं मेरे बाण ने कैसे शूकर को वेधा है?” अर्जुन बोले।
“शूकर हमारे सरदार के बाण से मरा है।“ किरात नारियों ने चीखकर कहा।
“ये सच कहती है, युवक।“ किरात ने कहा, “तुम्हारा बाण शूकर के शरीर में तब लगा, जब वह मेरे बाण से मरकर नीचे गिर गया।“
“तब तो इस बात का निर्णय हो ही जाना चाहिए, किरात, कि हम दोनों में कौन श्रेष्ठ धनुर्धर है।“ अर्जुन ने गर्व भरे स्वर में चुनौती दी।
बस, फिर क्या था, दोनो ने अपने अस्त्र-शस्त्र एक दूसरे की ओर चलाने शुरू कर दिए। देखते ही देखते भयंकर बाण-वर्षा शुरू हो गई। लेकिन कुछ ही देर बाद अर्जुन का तूणीर बाणों से ख़ाली हो गया। तब वह विस्मय से बड़बड़ाया, मेरे सभी बाणों को इस किरात ने काट डाला, मेरा बाणों से भरा सारा तूणीर ख़ाली हो गया किंतु किरात को खरोंच तक नहीं लगी।
तभी किरात का व्यंग्य-भरा स्वर गूंजा, “धनुर्धारी वीर! उसने झपटकर किरात को अपने धनुष की प्रत्यंचा में फांस लिया, किंतु एक ही क्षण में किरात ने अर्जुन से धनुष छीनकर दूर फेंक दिया। यह देख किरात-स्त्रियां हर्ष से नाच उठी, “तपस्यी हार गया।“ वे जोर-जोर सेह हर्षनाद करने लगीं।

अर्जुन और भी चिढ़ गए। इस बार वह तलवार लेकर किरात की ओर झपटे और बोले, “किरात! भगवान का स्मरण कर ले, तेरा अंतकाल आ गया।“
किंतु जैसे ही अर्जुन ने तलवार किरात के सिर पर मारी, तलवार टूट गई। अर्जुन निहत्थे हो गए तो उन्होंने एक पेड़ उखाड़ लिया और उसे किरात पर फेंका। लेकिन उमके आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि किरात के शरीर से टकराते ही पेड़ किसी तिनके की भांति टूटकर नीचे जा गिरा। जब कोई और उपाय न रहा तो अर्जुन निहत्थे ही किरात पर टूट पड़े। किंतु किरात पर इसका कोई असर न हुआ। उसने अर्जुन को पकड़कर ऊपर उठाया और उन्हें धरती पर पटक दिया। अर्जुन बेबस हो गया। तब अर्जुन ने वहीं रेत का शिवलिंग बनाया और भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे। इससे उनके शरीर में नई शक्ति आ गई। उन्होंने उठकर फिर से किरात को ललकारा, “किरात! अब तेरा काल आ गया।“ वह चीखे।
लेकिन जैसे ही नजर किरात के गले में पड़ी फूलमाला पर पड़ी, वह स्तब्ध होकर खड़े-के-खड़े रह गए, ‘अरे! ये पुष्पमाला तो मैंने भगवान शिव के लिंग पर चढ़ाई थी, तुम्हारे गले में कैसे आ गई?’
पल मात्र में ही अर्जुन का सारा भ्रम जाता रहा। वे समझ गए कि किरात के भेष में स्वयं शिव शंकर ही उनके सामने ख़ड़े हैं।

अर्जुन किरात के चरणों में गिर पड़े, रुंधे गले से बोले, “मेरे प्रभु, मेरे आराध्य देव। मुझे क्षमा कर दो। मैंने गर्व किया था।“
तब शिव अपने असली रूप में प्रकट हुए, पार्वती भी अपने असली रूप में आ गई। शिव बोले, “अर्जुन! मैं तेरी भक्ति और साहस से प्रसन्न हूं। मैं पाशुपत अस्त्र का भेद तुझे बताता हूं। संकट के समय यह तेरे काम आएगा।“
शिव का वचन सत्य हुआ। महाभारत के युद्ध में अर्जुन अपने परम प्रतिद्वंद्वी कर्ण को पाशुपत अस्त्र से ही मारने में सफल हो चुके थे।
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नारद मोह की कथा / Narad ki Katha


नारद जी ने एक आश्रम में जन्म लिया था । उनकी मां उस आश्रम की सेविका थीं। नारद जी का बचपन ऋषि कुमारों के साथ खेल-कूदकर बीता। ऋषि-महर्षियों के संग ने उनके मन में छुपी हुई आध्यात्मिक जिज्ञासा को जगा दिया और वे भी योग के रास्ते पर चल पड़े। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त कीं और सदा के लिए अमर हो गए। नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उनसे बढ़कर इस पृथ्वी पर और कोई दूसरा विष्णु भगवान का भक्त नहीं है। उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। भगवान से कोई बात छुपी थोड़े ही है। उन्हें तुरंत इसका पता चल गया। भला वे अपने भक्त का पतन कैसे देख सकते थे। इसलिए उन्होंने नारदजी को इस दुष्प्रवृत्ति से बचाने का निर्णय किया।


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एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले, 'भई नारद जी हम तो थक गए, प्यास भी लगी है। कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला ही नहीं जा रहा है। हमारा तो गला सूख रहा है।'

एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले, 'भई नारद जी हम तो थक गए,प्यास भी लगी है। कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला ही नहीं जा रहा है। हमारा तो गला सूख रहा है।' नारद जी तुंरत सावधान हो गए, उनके होते हुए भला भगवान प्यासे रहें। वे बोले, 'भगवान अभी लाया, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें।' नारद जी एक ओर दौड़ लिए। उनके जाते ही भगवान मुस्कराए और अपनी माया को नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई। नारद जी थोड़ी दूर ही गए होगें कि एक गांव दिखाई पड़ा, जिसके बाहर कुएं पर कुछ युवा स्त्रियां पानी भर रही थीं। कुएं के पास जब वे पहुंचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे, बस उसे ही निहारने लगे। यह भूल गए कि वे भगवान के लिए पानी लेने आए थे। कन्या भी समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर लपकी। नारद जी भी उसके पीछे हो लिए। कन्या तो घर के अंदर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर 'नारायण', 'नारायण' का अलख जगाया । गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया। उसने नारद जी को तुरंत पहचान लिया। अत्यन्त विनम्रता और आदर के साथा वह उन्हें घर के अन्दर ले गया और उनके हाथ-पैर धुलाकर स्वच्छ आसन पर बैठाया तथा उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न छोड़ी। तब शान्ति के साथ उनके आगमन से अपने को धन्य बताते हुए अपने योग्य सेवा के लिए आग्रह किया। नारदजी बोले, 'आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घड़ा लेकर अभी-अभी आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूं।' गृहस्वामी एकदम चकित रह गया लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान योगी तथा संत के पास जाएगी। उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने घर में ही रख लिया। दो-चार दिन पश्चात शुभ मुहूर्त ने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें ग्राम में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया कि खेती करके वे आराम से अपना पेट भर सकें। अब नारद जी की वीणा एक खूंटी पर टंगी रहती जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए। दिन भर खेती में लगे रहते। कभी हल चलाते, कभी पानी देते, कभी बीज बोते, कभी निराई-गुड़ाई करते। जैसे-जैसे पौधे बढ़ते उनकी प्रसन्नता का पारा वार न रहता। फसलें हर वर्ष पकतीं, कटतीं, अनाज से उनके कोठोर भर जाते। नारद जी की गृहस्थी भी बढ़ती गई। तीन-चार लड़के-लड़कियां भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण भी फुरसत न थी। वे हर समय उनके पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेती में काम करते।

अचानक एक बार वर्षा के दिनों में तेज बारिश हुई। कई दिनों तक बंद होने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके ह्दय में भय उत्पन्न कर दिया। मूसलाधार वर्षा ने ग्राम के पास बहने वाली नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी। किनारे तोड़कर नदी उफन पड़ी। चारों ओर पानी ही पानी कच्चे-पक्के सभी मकान ढहने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए। अनेक व्यक्ति मर गए। गांव में त्राहि-त्राहि मच गई। नारद जी अब क्या करें। उन्होंने भी घर में जो कीमती थोड़ा-बहुत सामान बचा था उसकी गठड़ी-मुठरी बांधी और अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर पानी में से होते हुए जान बचाने के लिए घर से बाहर निकले। बगल में गठरी, एक हाथ से एक बच्चे का पकड़े, दूसरे से अपनी स्त्री को संभाले तथा पत्नी भी एक बच्चे को गोद में लिए, एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़े। पानी का बहाव अत्यन्त तेज था तथा यह भी पता नहीं चलता था कि कहां गड्ढा है और कहां टीला। अचानक नारद जी ने ठोकर खाई और गठरी बगल से निकलकर बह गई। नारद जी गठरी कैसे पकड़ें, दोनों हाथ तो घिरे थे। सोचा जैसा उसकी इच्छा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी ओर गोद का बच्चा बह गया। पत्नी बहुत रोई, लेकिन क्या हो सकता था, धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए, बहुत कोशिश की उन्हें बचाने की, लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी, रोते, कलपते, एक-दूसरे को सात्वना देते, आगे कोई ऊंची जगह ढूंढते बढ़ते रहे। एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्ढे समा गए। नारद जी तो किसी प्रकार के गड्ढे में से निकल आए, लेकिन उनकी पत्नी का पता नहीं चला । बहुत देर तक नारदजी उसे इधर से उधर दूर-दूर तक ढूंढ़ते रहे लेकिन व्यर्थ, रोते-रोते उनका बुरा हाल था, ह्दय पत्नी और बच्चों को याद कर करके फटा जा रहा था । उनकी तो सारी गृहस्थी उजड़ गई थी। बेचारे क्या करें, किसे कोसें अपने भाग्य को या भगवान को। भगवान का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फैल गया और पुरानी सभी बातें याद आ गई। वे किसलिए आए थे और कहां फंस गए। ओ हो! भगवान विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहां गृहस्थी बसाकर बैठ गए। वर्षो बीत गए, गृहस्थी को बसाने मे और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे बैठे होंगे। यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गई। गांव भी अतंर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे। नारद जी पछताते और शरमाते हुए दौड़े, देखा कुछ ही दूर पर उसी वृक्ष के नीचे भगवान लेटे हैं। नारद जी को देखते ही वे उठ बैठे और बोले, 'अरे भाई नारद, कहां चले गए थे, बड़ी देर लगा दी । पानी लाए या नहीं।'

नारद जी भगवान के चरण पकड़कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने। उनके मुंह से एक बोल भी न फटा। भगवान मुस्कराए और बोल, 'तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है।' लेकिन नारद जी को लगता है कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में आया कि सब भगवान की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी। उन्हें बड़ा घमण्ड था कि उनसे बढ़कर त्रिलोक में दूसरा कोई भक्त नहीं है। जरा सी देर में ढेर हो गया। वे पुनः सरलता और विनय के साथ भगवान के गुण गाने लगे।


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इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमारे पास कुछ है, हमने अथक परिश्रम, लगन तथा निष्ठा से कुछ प्राप्त कर लिया है चाहे वह अपार धन हो, शारीरिक शक्ति हो, भरा-पूरा परिवार हो या फिर कोई ऊंची योग्यता, पद या यश हो तो उस पर घमण्ड क्यों करें। क्या हमसे ऊपर और लोग नहीं हैं? क्या हम ही सर्वोपरि हैं? अनेक हमसे पहले हो चुके हैं और आगे भी होगें फिर घमण्ड कैसा। अपनी इस विशेषता से अपना और दूसरों का लाभ होने दें तभी उसका कुछ महत्व है अन्यथा वह तो कोयले की बोरी के समान है जो आपके स्टोर मे व्यर्थ में ही बिना उपयोग में आए रखी है। इकट्ठा करने में नहीं बांटने में सुख है, आनन्द है।

शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर*

सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बांटो।


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रुक्मिणी / Rukmani
द्वारका में रहते हुए भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का नाम चारों ओर फैल गया। बड़े-बड़े नृपति और सत्ताधिकारी भी उनके सामने मस्तक झुकाने लगे। उनके गुणों का गान करने लगे।
बलराम के बल-वैभव और उनकी ख्याति पर मुग्ध होकर रैवत नामक राजा ने अपनी पुत्री रेवती का विवाह उनके साथ कर दिया। बलराम अवस्था में श्रीकृष्ण से बड़े थे। अतः नियमानुसार सर्वप्रथम उन्हीं का विवाह हुआ। उन दिनों विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक परम तेजस्वी और सद्गुणी नृपति राज्य करते थे। कुण्डिनपुर उनकी राजधानी थी। उनके पांच पुत्र और एक पुत्री थी। उसके शरीर में लक्ष्मी के शरीर के समान ही लक्षण थे। अतः लोग उसे लक्ष्मीस्वरूपा कहा करते थे।
रुक्मिणी जब विवाह योग्य हो गई, तो भीष्मक को उसके विवाह की चिंता हुई। रुक्मिणी के पास जो लोग आते-जाते थे, वे श्रीकृष्ण की प्रशंसा किया करते थे। वे रुक्मिणी से कहा करते थे, श्रीकृष्ण अलौकिक पुरुष हैं। इस समय संपूर्ण विश्व में उनके सदृश अन्य कोई पुरुष नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण के गुणों और उनकी सुंदरता पर मुग्ध होकर रुक्मिणि ने मन ही मन निश्चय किया कि वह श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी को भी पति रूप में वरण नहीं करेगी। उधर, भगवान श्रीकृष्ण को भी इस बात का पता हो चुका था कि विदर्भ नरेश भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी परम रूपवती तो है ही, परम सुलक्षणा भी है।
भीष्मक का बड़ा पुत्र रुक्मी भगवान श्रीकृष्ण से शत्रुता रखता था। वह बहन रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था, क्योंकि शिशुपाल भी श्रीकृष्ण से द्वेष रखता था। भीष्मक ने अपने बड़े पुत्र की इच्छानुसार रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ ही करने का निश्चय किया। उसने शिशुपाल के पास संदेश भेजकर विवाह की तिथि भी निश्चित कर दी।
रुक्मिणी को जब इस बात का पता लगा, तो वह बड़ी दुखी हुई। उसने अपना निश्चय प्रकट करने के लिए एक ब्राह्मण को द्वारिका श्रीकृष्ण के पास भेजा। उसने श्रीकृष्ण के पास जो संदेश भेजा था, वह इस प्रकार था—‘हे नंद-नंदन! आपको ही पति रूप में वरण किया है। मै आपको छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं कर सकती। मेरे पिता मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह शिशुपाल के साथ करना चाहते है। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई। मेरे कुल की रीति है कि विवाह के पूर्व होने वाली वधु को नगर के बाहर गिरिजा का दर्शन करने के लिए जाना पड़ता है। मैं भी विवाह के वस्त्रों में सज-धज कर दर्शन करने के लिए गिरिजा के मंदिर में जाऊंगी। मैं चाहती हूं, आप गिरिजा मंदिर में पहुंचकर मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करें। यदि आप नहीं पहुंचेंगे तो मैं आप अपने प्राणों का परित्याग कर दूंगी।
रुक्मिणी का संदेश पाकर भगवान श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर शीघ्र ही कुण्डिनपुर की ओर चल दिए। उन्होंने रुक्मिणी के दूत ब्राह्मण को भी रथ पर बिठा लिया था। श्रीकृष्ण के चले जाने पर पूरी घटना बलराम के कानों में पड़ी। वे यह सोचकर चिंतित हो उठे कि श्रीकृष्ण अकेले ही कुण्डिनपुर गए हैं। अतः वे भी यादवों की सेना के साथ कुण्डिनपर के लिए चले।
उधर,भीष्मक ने पहले ही शिशुपाल के पास संदेश भेज दिया था। फलतः शिशुपाल निश्चित तिथि पर बहुत बड़ी बारात लेकर कुण्डिनपुर जा पहुंचा। बारात क्या थी, पूरी सेना थी। शिशुपाल की उस बारात में जरासंध, पौंड्रक, शाल्व और वक्रनेत्र आदि राजा भी अपनी-अपनी सेना के साथ थे। सभी राजा कृष्ण से शत्रुता रखते थे।
विवाह का दिन था। सारा नगर बंदनवारों और तोरणों से सज्जित था। मंगल वाद्य बज रहे थे। मंगल गीत भी गाए जा रहे थे। पूरे नगर में बड़ी चहल-पहल थी। नगर-नगरवासियों को जब इस बात का पता चला कि श्रीकृष्ण और बलराम भी नगर में आए हुए हैं, तो वे बड़े प्रसन्न हुए। वे मन-ही मन सोचने लगे, कितना अच्छा होता यदि रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण के साथ होता, क्योंकि वे ही उसके लिए योग्य वर हैं।
सन्ध्या के पश्चात का समय था। रुक्मिणी विवाह के वस्त्रों में सज-धजकर गिरिजा के मंदिर की ओर चल पड़ी। उसके साथ उसकी सहेलियां और बहुत-से अंगरक्षक भी थे। वह अत्यधिक उदास और चिंतित थी, क्योंकि जिस ब्राह्मण को उसने श्रीकृष्ण के पास भेजा था, वह अभी लौटकर उसके पास नहीं पहुंचा था। रुक्मिणी ने गिरिजा की पूजा करते हुए उनसे प्रार्थना की— 'हे मां। तुम सारे जगत की मां हो! मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं करना चाहती।'
रुक्मिणी जब मंदिर से बाहर निकली तो उसे वह ब्राह्मण दिखाई पड़ा। यद्यपि ब्राह्मण ने रुक्मिणी से कुछ कहा नहीं, किंतु ब्राह्मण को देखकर रुक्मिणी बहुत प्रसन्न हुई, उसे यह समझने में संशय नहीं रहा के श्रीकृष्ण भगवान ने उसके समर्पण को स्वीकार कर लिया है।
रुक्मिणी अपने रथ पर बैठना ही चाहती थी कि श्रीकृष्ण ने विद्युत तरंग की भांति पहुंचकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे खींचकर अपने रथ पर बिठा लिया और तीव्र गति से द्वारका की ओर चल पड़े।
क्षण भर में ही संपूर्ण कुण्डिनपुर में ख़बर फैल गई कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी का हरण करके उसे द्वारकापुरी ले गए। शिशुपाल के कानों में जब यह ख़बर पड़ी तो वह क्रुद्ध हो उठा। उसने अपने मित्र राजाओं और उनकी सेनाओं के साथ श्रीकृष्ण का पीछा किया, किंतु बीच में ही बलराम और यदुवंशियों ने शिशुपाल आदि को रोक लिया। भयंकर युद्ध हुआ। बलराम और यदुवंशियों ने बड़ी वीरता के साथ लड़कर शिशुपाल आदि की सेना को नष्ट कर दिया। फलतः शिशुपाल आदि निराश होकर कुण्डिनपुर से चले गए।
रुक्मी यह सुनकर क्रोध से कांप उठा। उसने बहुत बड़ी सेना लेकर श्रीकृष्ण का पीछा किया। उसने प्रतिज्ञा की कि वह या तो श्रीकृष्ण को बंदी बनाकर लौटेगा, या फिर कुण्डिनपुर में अपना मुंह नहीं दिखाएगा।
रुक्मी और श्रीकृष्ण का घनघोर युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण ने उसे युद्ध में हराकर अपने रथ से बांध दिया, किंतु बलराम ने उसे छुड़ा लिया। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा, 'रुक्मी अब अपना संबंधी हो गया है। किसी संबंधी को इस तरह का दंड देना उचित नहीं है।'
रुक्मी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पुनः लौटकर कुण्डिनपुर नहीं गया। वह एक नया नगर बसाकर वहीं रहने लगा। कहते हैं, रुक्मी के वंशज आज भी उस नगर में रहते है।
भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को द्वारका ले जाकर उनके साथ विधिवत विवाह किया। प्रद्युम्न उन्हीं के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, जो कामदेव के अवतार थे।
श्रीकृष्ण की पटरानियों में रुक्मिणी का महत्वपूर्ण स्थान था। उनके प्रेम और उनकी भक्ति पर भगवान श्रीकृष्ण मुग्ध थे। उनके प्रेम और उनकी कई कथाएं मिलती हैं, जो बड़ी प्रेरक हैं।
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वेणु का विनाश / Fall 0f Venu

ध्रुव जब श्रीहरि के लोक में जाने लगे, तो वे अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंप गए थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम कल्प था। बहुत से लोग उसे उत्कल भी कहते थे। उत्कल की सांसारिक सुखों और राज्य में बिल्कुल रूचि नहीं थी। वह विरक्त था, समदर्शी था। उसे अपने और दूसरों में बिलकुल भेद मालूम नहीं होता था। वह अपने ही भीतर समस्त प्राणियों को देखता था। अतः उसने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया। जब ध्रुव के ज्येष्ठ पुत्र ने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया तो ध्रुव का कनिष्ठ पुत्र राजसिंहासन पर बैठा। वह बड़ा धर्मात्मा और बुद्धिमान था। उसने बहुत दिनों तक राज्य किया। उसके राज्य में चारों ओर शांति थी। प्रजा को बड़ा सुख था।

वत्सर के ही वंश में एक ऐसा राजा उत्पन्न हुआ जो धर्म की प्रतिमूर्ति था। वह सत्यव्रती और बड़ा शूरवीर था। जिस प्रकार बसंत ऋतु में प्रकृति फूली, फली रहती है, उसी प्रकार उस राजा के राज्य में प्रजा फूली और फली रहती थी। उस राजा का नाम अंग था। अंग की कीर्ति−चांदनी चारों ओर छिटकी हुई थी। छोटे−बड़े सभी उसके यश का गान करते थे। वह पुण्यात्मा तो था ही, बड़ा प्रजापालक भी था। उसकी प्रजा उसका आदर उसी प्रकार करती थी, जिस प्रकार लोग देवताओं का आदर करते हैं।

एक बार अंग ने एक बहुत बड़े यज्ञ की रचना की। यज्ञ में बड़े−बड़े ऋषि−मुनि और विद्वान ब्राह्मण बुलाए गए थे। यज्ञ के लिए पवित्र स्थानों से चुन−चुनकर सामग्रियाँ मंगायी गयीं थीं। तीर्थस्थानों से जल मंगाया गया था। शुद्ध और पवित्र लकड़ियाँ इकट्ठी की गई थीं। किंतु विद्वान ब्राह्मणों ने वेदमन्त्रों के साथ देवताओं को आहुतियाँ दीं तो देवताओं ने उन आहुतियों को लेना अस्वीकार कर दिया। केवल यही नहीं, प्रार्थनापूर्वक बुलाए जाने पर भी देवतागण भाग लेने के लिए नहीं आए। विद्वान ब्राह्मणों ने चिंतित होकर कहा, 'महाराज! यज्ञ की सामग्रियाँ पवित्र हैं, जल भी शुद्ध है और यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण भी शुद्ध तथा चरित्रनिष्ठ हैं किंतु फिर भी देवगण आहुतियों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, मन्त्रों से अभिमन्त्रित किए जाने पर भी अपना भाग लेने के लिए नहीं आ रहे हैं।' विद्वान ब्राह्म्णों के कथन को सुनकर महाराज अंग चिंतित और दुःखी हो उठे। उन्होंने दुःख भरे स्वर में कहा, 'पूज्य ब्राह्मणों, यह तो बड़े दुःख की बात है। क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है या मुझसे कोई दूषित कर्म हुआ है? मैंने तो अपनी समझ में आज तक कोई ऐसा कार्य किया नहीं।'

विद्वान ब्राह्म्णों ने उत्तर में कहा, 'आप तो बड़े धर्मात्मा और पुण्यात्मा हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि आपके द्वारा कभी कोई पाप कर्म हुआ होगा। इस जन्म में तो आपने कभी कोई दूषित कर्म किया नहीं। हो सकता है, पूर्वजन्म में आपने कोई पाप कर्म किया हो। मनुष्य को पूर्वजन्म में किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल भी भोगना पड़ता है।' महाराज अंग ने दुःख के साथ निवेदन किया, 'यज्ञ मंडप में बड़े−बड़े विद्वान ब्राह्मण और ऋषि व मुनि एकत्र हैं। यहाँ ऐसे भी ऋषि और मुनि हैं जो तीनों कालों के ज्ञाता हैं। मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे अवगत कराएं, इस जन्म में या पूर्वजन्म में मुझसे कौन−सा दूषित कर्म हुआ है?' महाराज अंग की प्रार्थना को सुनकर ऋषिगण विचारों में डूब गए। कुछ क्षणों के पश्चात ऋषियों ने कहा, 'महाराज, इस जन्म में या पूर्वजन्म में आपसे कोई पाप कर्म नहीं हुआ है। सच बात तो यह है कि आप पुत्रहीन हैं। जो पुत्रहीन होता है, देवगण उसके यज्ञ की आहुतियाँ स्वीकार नहीं करते। अतः यदि आप देवताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करें। जब तक आप पुत्र प्राप्त नहीं कर लेंगे, देवगण आपकी आहुतियों को स्वीकार नहीं करेंगे।' ऋषियों और मुनियों की सलाह से महाराज अंग ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। यज्ञकुंड में एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ जो अपने हाथों में खीर का पात्र लिए हुए था। उसने खीर के पात्र को महाराज अंग की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'महाराज, पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दीजिए। आपको अवश्यमेव पुत्र की प्राप्ति होगी।'

दिव्य पुरुष अंग को खीर का पात्र देकर अदृश्य हो गया। अंग की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। उन्होंने पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दिया। रानी गर्भवती हुईं। उन्होंने समय पर एक बालक को जन्म दिया। ज्योतिषियों ने बालक की कुण्डली बनाकर, उसके ग्रहों के अनुसार उसका नाम वेणु रखा। वेणु का अर्थ होता है − बांस। जहाँ बांस पैदा होता है, वहाँ दूसरे पौधे पैदा नहीं होते। यों भी कहा जा सकता है कि, बांस दूसरे पौधों को उगने नहीं देता है। बांसों की रगड़ से कभी−कभी आग लग जाती है तो सारे बांस अपनी ही आग में जल जाया करते हैं व दूसरों को भी जला देते हैं। वेणु की कुण्डली में भी इसी प्रकार के ग्रह पड़े थे। वेणु धीरे−धीरे बड़ा हुआ। वह जब बड़ा हुआ, तो अंग के उलटे रास्ते पर चलने लगा। जुआ खेलने लगा, मद्यपान करने लगा और परायी स्त्रियों की लज्जा को लूटने लगा। उसके अत्याचारों से प्रजा कांप उठी। अंग के कानों में जब वेणु के बुरे कर्मों के समाचार पड़े, तो वे बड़े दुःखी हुए। उन्होंने वेणु को समझाने का प्रयत्न किया, किंतु वह क्यों मानने लगा? उसकी जन्मकुण्डली में तो ग्रह ही बुरे पड़े थे। किसी ने ठीक ही कहा है−

फूलहि फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद।
मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंच सम।।

अंग के बहुत समझाने पर भी जब वेणु ने बुरे कर्मों का परित्याग नहीं किया, तो वे बड़े दुःखी हुए। वे सब कुछ छोड़कर तप करने के लिए वन में चले गए। मनुष्य का जब कोई बस नहीं चलता, तो वह ईश्वर को छोड़कर और किसी का सहारा नहीं लेता। महाराज के चले जाने पर वेणु राजसिंहासन पर आसीन हुआ। वह अतिचारी और अविचारी तो पहले से ही था, जब राजसिंहासन पर बैठा, तो उसके बुरे विचारों को पंख लग गए। वह अपने आप को सर्वेश्वर और अखिलेश्वर समझने लगा। उसने अपने राज्य में चारों ओर आदेशपत्र प्रचारित किया− 'कोई भी मनुष्य यज्ञ न करे, पूजा−पाठ न करे, ईश्वर का नाम न ले, ईश्वर के गुणों का गुणगान न करे। जो मनुष्य ऐसा करेगा, उसे दण्ड दिया जाएगा। प्रत्येक प्रजाजन को ईश्वर की जगह पर वेणु की ही पूजा करनी चाहिए। वेणु के ही यश−गुणों का गान करना चाहिए, क्योंकि वेणु ही परमात्मा है, अखिलेश्वर है।' वेणु की घोषणा ने सारे राज्य में हलचल उत्पन्न की दी। किंतु कोई कर क्या सकता था? उसके सैनिक और सिपाही राज्य में चारों ओर घूम−घूमकर उसकी आज्ञा का पालन करवा रहे थे। जो मनुष्य उसके आदेश का उल्लंघन करता था, उसे तलवार के घाट उतार दिया जाता था, उसके घर को जला दिया जाता था। वेणु और उसके सिपाहियों के अत्याचारों से चारों ओर हाहाकार पैदा हो उठा, दुःख और पीड़ा के बादल छा गए।

राज्य में रहने वाले ऋषि, मुनि और ब्राह्मण चिंतित हो उठे। वे वेणु को समझाने के लिए उसकी सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने वेणु को समझाते हुए कहा, 'महाराज, आप जो कुछ कर रहे हैं, वह आपके पूर्वजों के विपरीत है। आपके पूर्वजों में स्वयंभू मनु और ध्रुव प्रजा को पुत्रवत मानते थे। वे प्रजा का पालन करना ही अपना सबसे बड़ा धर्म समझते थे। आपके पूर्वज ईश्वरानुरागी थे। वे अपने को ईश्वर का तुच्छ सेवक समझते थे। जो राजा प्रजा का पालन नहीं करता, उसे नर्क की यातना भोगनी पड़ती है।' किंतु वेणु के हृदय पर ऋषियों और मुनियों के कथन का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। वह उनके कथन के उत्तर में बोला, 'ऋषियों, राजा के शरीर में देवता वास करते हैं। अतः वही सर्वश्रेष्ठ है। प्रजा को उसी का गुणानुवाद करना चाहिए, उसी को सर्वेश्वर मानना चाहिए। मैंने जो कुछ किया है, ठीक ही किया है। तुम सबको मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए। मेरे बताये हुए मार्ग पर चलना चाहिए।' वेणु का खरा उत्तर सुनकर ऋषियों और मुनियों ने सोचा, वेणु के हृदय पर किसी भी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मनुष्य जब उन्मत्त हो जाता है, तो वह अपने हाथों से ही अपना विनाश कर डालता है।

ऋषि और मुनिगण दुःखी होकर वन में चले गए। वेणु निडर होकर पापाचार से खेलने लगा। अत्याचार का व्यापार करने लगा। प्रजा उसके अत्याचारों से दुःखी होकर करुण क्रंदन करने लगी, चीत्कार करने लगी, सकरुण स्वरों में भगवान को पुकारने लगी। प्रजा की पुकार ऋषियों के कर्णकुहरों में पड़ी। ऋषियों ने एकत्र होकर सोचा, वेणु जब तक जीवित रहेगा, उसका अत्याचार बंद न होगा। अतः उसे मार डालना चाहिए। अत्याचारी और अधर्मी को मार डालने से पाप नहीं लगता। ऋषियों और मुनियों ने अपने मन्त्रों की शक्ति से वेणु को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया। जो अत्याचार करता है, जो अधर्म के पथ पर चलता है, एक न एक दिन सज्जनों के हाथों से वेणु के समान ही मारा जाता है।

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