भगवान् श्रीकृष्ण लाई लेखेको पत्र नै विश्व को पहेलो प्रेम पत्र
[2010-02-11]
अहिले सम्म प्राप्त प्रमाण हरु को आधारमा रुक्मिणीले भगवान् श्रीकृष्ण लाई लेखेको पत्र नै विश्व को पहेलो प्रेम पत्र मानिएको छ
हे त्रिभुवन सुन्दर ! आफ्नो गुणगान सुन्नेहरूको हृदयमा कानद्वारा प्रवेश गरेर उनीहरूको प्रत्येक अङ्गकातापलाई शान्त गरिदिनुहुन्छ । मैले तपाईंको उपर्युक्त गुणहरू सुनेकी छु । संसारमा आँखा भएका प्राणी जति छन्, तिनीहरूको आँखा हुनाको सबभन्दा ठूलो फाइदा आफ्नो आँखाले समस्त स्वार्थ र परमार्थका एक मात्र आश्रय तपाईंको रूपको दर्शन गर्न पाउनु नै हो । मैले तपाईंको रूपको वर्ण्र्ाापनि सुनेकी छु । हे अच्युत ! त्यसै कारणले मेरो चित्त लोकलज्जालाई छाडेर तपाईंको चिन्तनमा तन्मय भइराखेको छु । हे मुकुन्द ! शील, कुल, स्वभाव, सौर्न्दर्य, विद्या, अवस्था, ऐर्श्वर्य तथा प्रभाव आफू समान नै हुनुहुन्छ अर्थात् तपाईं समान अरु कोही छैन । तपाईलाई देख्दा सबै प्रसन्न हुन्छन् । हे पुरुषसिंह ! तपाईं नै भन्नुहोस् न, विवाहयोग्य भएको कुन यस्ती कुलवती, गुणवती, तथा बुद्धिमती कन्या होली जो कि तपाईंलाई पतिका रूपमा वरण नगरोस् । यसैले मैले मनैमनमा तपाईलाई पतिकारूपमा वरण गरिसकेकी छु र तपाईंमा आत्मर्समर्पण गरिसकेकी छु । हे कमलनयन ! जसरी स्यालले सिंहको भाग खोसेर लैजान सक्दैन, त्यसैगरी, हे वीर !
तपाईंमा समर्पित भएकी मलाई चेदिराज शिशुपालले यहाँ आएर मेरो शरीरमा र्स्पर्श गर्न नपाओस् । यदि मैले जन्मजन्मात्रमा इनार, पोखरी आदि खनाएकी रहिछु, यज्ञयाग आदि गरेकी रहिछु, दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राहृमण र गुरु आदिको पूजाद्वारा अलिकता पनिर् इश्वरको आराधना गरेकी छु भने भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आएर मेरो पाणिग्रहण गर्नुहोस् । उहाँबाहेक दमवोषका छोराले अथवा अरु कसैले मलाई छुन नपाओस् । हे प्रभो ! तपाईं अजेय हुनुहुन्छ, तपाई कित्न सक्ने यस संसारमा कोही छैन । मेरो विववाह हुने एक दिन अगावै यावत् सेनापतिहरूसहित विर्भेदेशमा आएर शिशुपाल र जरासन्धका सेनालाई नष्ट, भ्रष्ट पारेर वीरताको मूल्य चुकाएर राक्षसविधानअनुसार मसँग विवाह गर्नुहोस् । तिनी जन्तपुरमा बस्दछ्यौ, त्रि्रा दाजुभाइ बन्धर्ुवर्गहरूलाई नमारिकन तिमीलाई कसरी लैजान सकूला भन्नु हुन्छ भने म उपाय बताउँछु । हाम्रो कुलको रीतिरिवाजअनुसार विवाहभन्दा एक दिन पहिला कुलदेवीको दर्शन गर्ने ठूलो यात्रा हुन्छ । त्यस यात्रामा नवबधुले सहर बाहिर पार्वतीको मन्दिरमा पैदल जानुपर्दछ । त्यसबेलामा तपाईंले मलाई हरेर लैजान सक्नुहुन्छ । हे कमलनयन ! उमापति शंकर बाहिर ठूलाठूला महापुरुषहरू पनि आफ्नो बाहृय कारणको अज्ञान हटाउन तपाईंको चरणको धुलाले स्नान गर्ने इच्छा गर्दछन् । भाग्वयश मैले तपाईंले चरणकमलको धूलो पाइन् भनेमा व्रतद्वारा आफ्नो शरीर सुकाएर प्राणत्याग्नेछु । त्यसरी सय जन्मसम्म गर्दै जाँदा तपाईंको प्रसाद अवश्य पाउनेछु ।
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कृष्ण संदर्भ / Krishna References
छान्दोग्य उपनिषद
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र कृष्ण को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा0उ0, अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6) में पाया जाता है।
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, अश्विनीकुमार नासिकास्थान, चंद्र और सूर्य नेत्र तथा विभिन्न देवता विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में ब्रह्मा के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। रुद्र इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे वसुदेव के पुत्र हुए। कंस के भय से वसुदेव उन्हें नंद गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। यशोदा (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने पूतना को मार डाला।
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण (बलदेव) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को यमल तथा अर्जुन नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा बांसुरी बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का यज्ञोपवीत भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।
(5) उन्होंने कदम्बवन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले कालिया नाग के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा गिरिराज को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से गोपगण उनकी पूजा करने लगे।
(7) जब इन्द्र ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी अरिष्ट नामक दैत्य का संहार किया।
(9) ब्रजनिवासी केशी नामक दैत्य का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।
(10) कंस के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।
(12) कंस के कुवलयापीड़ नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।
(13) कंस को मारकर उन्होंने उग्रसेन का राज्याभिषेक कर दिया।
(14) उज्जयिनी में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। सांदीपनि ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।
(15)श्रीकृष्ण ने नरकासुर (भौमासुर) को मार डाला। (16) श्रीकृष्ण ने उषा अनिरूद्ध का मिलन करवाया, बाणासुर को मारा।
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके रुक्मिणी का हरण किया।
(18) इन्द्र को परास्त करके परिजात वृक्ष का अपहरण किया।
महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत पांडवों के वनवास काल में कौरवों-पांडवों के युद्ध की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ धृतराष्ट्र, गांधारी, विदुर, सात्यकि इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु दुर्योधन उसके लिए तैयार न था। उसने शकुनि तथा कर्ण से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर अर्जुन, वायीं बांह पर हलधर, वक्ष पर शिव तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। महाभारत युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। अभिमन्यु की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित कुरुक्षेत्र में रहे। जब तक सूर्य उत्तरायण नहीं हो गया, भीष्म पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को हस्तिनापुर छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने द्वारकापुरी चले गये।
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, द्रोणपर्व 79)
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श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)
हरिवंश पुराण
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि ब्रजभूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि गोवर्धन पर्वत से युक्त कदम्ब इत्यादि वृक्षों से अपूरित वृन्दावन में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-गोपांगनाएं तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।
(हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व ।8-9)
श्रीमद भागवत
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नही गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में यमुना में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।
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नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम रोहिणी का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। यदुवंशियों को ययाति का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों अवंतीपुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने चौंसठ कलाओं में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)
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श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त भौमासुर को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)
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एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर भारत के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने गोपियों आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)
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एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)
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ब्रह्मा की प्रार्थना पर विष्णु ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)
देवी भागवत
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से कामधेनु मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में दिति और अदिति को दक्ष कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र इन्द्र था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने देवकी के रूप में जन्म लिया।
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विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त भृगु की पत्नी (शुक की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। नर-नारायण अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।
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दैत्य मधु का पुत्र लवण ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। लक्ष्मण के भाई शत्रुघ्न ने उस दैत्य को मारकर मथुरा नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में सूर्यवंश क्षीण हो गया। ययाति कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज शूरसेन के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत उग्रसेन को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम देवकी था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह वसुदेव से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से कंस का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया।
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वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी नारद ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे कालनेमि के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा गंधर्व हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे रोहिणी के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की
तालिका निम्नलिखित है:
मूलांश कृष्ण-कथा के पात्र
हिरण्यकशिपु शिशुपाल
विप्रचित्त जरासंध
प्रह्लाद शल्य
खर लंबक तथा धेनुक
वाराह और किशोर चाणूर और मुष्टिक
दिति पुत्र अरिष्ट कुवलय नामक
कंस का हाथी
यम, रुद्र, काम और क्रोध-चारों के अंश से अश्वत्थामा
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-बलराम।
(दे0 भा0, 4 । 20-25)
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श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , महेश के कारणभूत हैं। राधा सर्वशक्तिमति देवी हैं।
(दे0भा0, 8/3)
शिव पुराण
दुर्वासा कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी रुक्मिणी से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।
(शि0पु0, 44 ।7। 26)
महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण
मंगलाचरण
महाभारत धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।
द्रौपदी स्वयंवर
महाभारत के आदिपर्व में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन द्रौपदी-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब अर्जुन के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब कौरवपक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ पाण्डव सकुशल अपने निवास पर चले गये।
प्रथम पूजनीय
धर्मराज युधिष्ठर के राजसूययज्ञ में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा भीष्म ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।
द्रौपदी
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही भीमसेन के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में दु:शासन के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।
शान्तिदूत
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु दुर्योधन के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को गीता रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, द्रोण, कर्ण और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र परीक्षित अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में गान्धारी के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।
ऋग्वेद में कृष्ण
ऋग्वेद में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता अश्विनीकुमारों से प्रार्थना की थी।
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कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का इन्द्र ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर आंगिरस का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप,दान, आर्जव,अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।
बौद्ध साहित्य
बौद्ध साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत जातक में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।
अनेक वृत्तान्त
निपुण बलवान योद्धा
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त वेद-वेदान्त के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। उद्योग पर्व में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, काशी नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, यमुना के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष प्रलंब, नरग, जृम्भ, मुर, कंस आदि का संहार किया था, जल देवता वरुण को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर पान्चजन्य प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से पारिजात लाये थे।
वासुदेव
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे वृष्णि वंशीय सात्वत जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और पुराणों में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।
पुराणों में कृष्ण
महाभारत, हरिवंश पुराण तथा विष्णु पुराण, वायु पुराण, वामन पुराण, भागवत पुराण आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी गोवर्धन धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और गोपी प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। सभा पर्व के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, पद्म पुराण , ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।
शूरसेन प्रदेश
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: शूरसेन प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में कालिय-दमन का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें धेनुकासुर वध, यमलार्जुन उद्धार तथा मृष्टिक चाणूर के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: राधा का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, शकटभंजन और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी किले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं*।
काव्य में कृष्ण
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित अश्वघोष के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल सातवाहन द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, यशोदा आदि से सम्बद्ध मिलती हैं *। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-राम और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी लक्ष्मी का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।
राधा के प्रेम सन्दर्भ
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो श्लोकों में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है।
प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।
असंख्य कथा प्रसंग
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।
सूरदास
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि सूरदास से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में विद्यापति ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।
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कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।
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सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की।
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।
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कृष्ण
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अनुक्रम [छुपा]
1 कृष्ण / Krishn / Krishna
2 इतिहास और पुरातत्व
3 नारद कृष्ण संवाद
4 जन्म और जीवन परिचय
4.1 राक्षस आदि का संहार
4.2 गोवर्धन पूजा
4.3 रास
4.4 धनुर्याग
4.5 धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन
4.6 कृष्ण का मथुरा-गमन
4.7 कंस-वध
5 संस्कार
6 जरासंध की पहली चढ़ाई
7 महाभिनिष्क्रमण
8 बलराम का पुन: ब्रज-आगमन
9 कृष्ण और पांडव
10 पांडवों का राजसूय यज्ञ और जरासंध का वध
11 युद्ध की पृष्ठ भूमि
12 महाभारत युद्ध
13 श्रीकृष्ण का द्वारका का जीवन
14 यादवों का अंत
15 अंतिम समय
16 अंधक-वृष्णि संघ
16.1 वसुदेव उवाच
16.2 नारद उवाच
16.3 वासुदेव उवाच
16.4 नारद उवाच
17 वीथिका
18 टीका टिप्पणी
कृष्ण
Krishnaकृष्ण / Krishn / Krishna
सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका गीता- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भगवत गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।
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ब्रज या शूरसेन जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, मगध-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान भीषण संग्राम हुआ जिसे महाभारत युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है।
मथुरा नगरी इस महान विभूति का जन्मस्थान होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही,साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।
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वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू0 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य[1] में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण या विष्णु के अवतार रूप में।
इतिहास और पुरातत्व
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्ज़ापुर ज़िले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफ़ाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जबकि, मोटे तौर पर, वाराणसी में पहली बस्ती की नींव पड़ी। *
चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही (इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है। जो मूल चित्र मैं नहीं है।)ये रथारोही आर्य रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफ़ाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , ॠग्वेद में कृष्ण को दानव और इन्द्र का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से यदु क़बीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, अंधक-वृष्णि भी, और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) देवकी के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति वसुदेव सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इन्द्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर कालिय नाग का, जिसने मथुरा के पास यमुना के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई बलराम ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।
नारद कृष्ण संवाद
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम बलराम था जो अपनी शक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे प्रद्युम्न अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष नारद के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।
महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम। वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे। रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
जन्म और जीवन परिचय
कंस की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र वसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने वासुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और उग्रसेन के भाई देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी ।
देवकी से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।* यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।[2] जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र नंद के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।[3]बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने बालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'
कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- राजा रवि वर्मा
Vasudev Taking Krishna To Gokul From Mathura Jailराक्षस आदि का संहार
पूतना वध,
शकटासुर वध,
यमलार्जुन मोक्ष,
कलिय दमन,
धेनुक वध,
प्रलंब वध,
अरिष्ट वध
गोवर्धन पूजा
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षा काल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर इन्द्र देवता की पूजा किया करते थे।[4] इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा गोप-गोपिकाओं, गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन पूजा की स्थापना की गई।[5]
रास
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार शरद पूर्णिमा की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम रास प्रसिद्ध हुआ।,[6]धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।
धनुर्याग
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुण्डों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन
कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- राजा रवि वर्मा
Krishna-Balram Meeting Devki-Vasudevकृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रूर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में अंधक-वृष्णि संघ के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरुष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।
कंस ने पहले धनुर्याग की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।[7] अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वधार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।[8]
कृष्ण का मथुरा-गमन
एक दिन सन्ध्या समय कृष्ण ने समाचार पाया कि अक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहाँ अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।[9] नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे सन्ध्या समय मथुरा पहुंचे थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगे।
कंस-वध
महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:
कृष्ण:-
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये[10]और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।[11] कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। [12]
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" [13] मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।[14] इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान आदर्श उपस्थित किया।
संस्कार
कंस-वध तक कृष्ण का जीवन एक प्रकार से अज्ञातवास में व्यतीत हुआ। एक ओर कंस का आतंक था तो दूसरी ओर आकस्मिक आपत्तियों का कष्ट। अब इनसे छुटकारा मिलने पर उनके विद्याध्ययन की बात चली। वैसे तो वे दोनो भाई प्रतिभावान्, नीतिज्ञ तथा साहसी थे, परन्तु राजत्य-पंरपरा के अनुसार शास्त्रानुकूल संस्कार एवं शिक्षा-प्राप्ति आवश्यक थी। इसके लिए उन्हें गुरु के आश्रम में भेजा गया। वहाँ पहुँच कर कृष्ण-बलराम ने विधिवत् दीक्षा ली[15] और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी सुदामा ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ। जरासंध की मथुरा पर चढ़ाई कंस की मृत्यु का समाचार पाकर मगध-नरेश जरासंध बहुत-कुद्ध हो गया। वह कंस का श्वसुर था। जरासंध अपने समय का महान् साम्राज्यवादी और क्रूर शासक था। उसने कितने ही छोटे-मोटे राजाओं का राज्य हड़प कर उन राजाओं को बंदी बना लिया था। जरासंध ने कंस को अपनी लड़कियाँ संभवत: इसीलिए ब्याही थी जिससे कि पश्चिमी प्रदेशों में भी उसकी धाक बनी रहे और उधर गणराज्य की शक्ति कमजोर पड़-जाय। कंस की प्रकृति भी जरासंध से बहुत मिलती-जुलती थी। शायद जरासंध के बल पर ही बैठा था। अपने जामातृ और सहायक का इस प्रकार वध होते देख जरासंध का कुद्ध होना स्वाभाविक ही था। अब उसने शूरसेन जनपद पर चढ़ाई करने का पक्का विचार कर लिया। शूरसेन और मगध के बीच युद्ध का विशेष महत्व है, इसीलिए हरिवंश आदि पुराणों में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है।
जरासंध की पहली चढ़ाई
जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद पर चढ़ाई की। पौराणिक वर्णनों के अनुसार उसके सहायक कारूप का राजा दंतवक, चेदिराज, शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रूक्मी, काय अंशुमान तथा अंग, बंग, कोषल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, दरद देश का राजा तथा कौरवराज दुर्योधन आदि भी उसके सहायक थे। मगध की विशाल सेना ने मथुरा पहुँच कर नगर के चारों फाटकों को घेर लिया।[16] सत्ताईस दिनों तक जरासंध मथुरा नगर को घेरे पड़ा रहा, पर वह मथुरा का अभेद्य दुर्ग न जीत सका। संभवत: समय से पहले ही खाद्य-सामग्री के समाप्त हो जाने के कारण उसे निराश होकर मगध लौटना पड़ा। दूसरी बार जरासंध पूरी तैयारी से शूरसेन पहुँचा। यादवों ने अपनी सेना इधर-उधर फैला दी। युवक बलराम ने जरासंध का अच्छा मुक़ाबला किया। लुका-छिपी के युद्ध द्वारा यादवों ने मगध-सैन्य को बहुत छकाया। श्रीकृष्ण जानते थे कि यादव सेना की संख्या तथा शक्ति सीमित है और वह मगध की विशाल सेना का खुलकर सामना नही कर सकती। इसीलिए उन्होंने लुका-छिपी वाला आक्रमण ही उचित समझा। उसका फल यह हुआ कि जरासंध परेशान हो गया और हताश होकर ससैन्य लौट पड़ा।
पुराणों के अनुसार जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासन कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कृष्ण बलदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा।[17]
महाभिनिष्क्रमण
अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारकापुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी संख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को न जाने देना चाहते थे और कृष्ण स्वयं भी ब्रज को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा-
'जरासंध के साथ हमारा विग्रह हो गया है दु:ख की बात है। उसके साधन प्रभूत है। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी अनेक है। यह मथुरा छोटी जगह है और प्रबल शत्रु इसके दुर्ग को नष्ट किया चाहता है। हम लोग यहाँ संख्या में भी बहुत बढ़ गये हैं, इस कारण भी हमारा इधर-उधर फैलना आवश्यक है।'
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार उग्रसेन, कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी संख्या में मथुरा से प्रयाण किया और सौराष्ट्र की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये।[18] द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी संख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ।[19] मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम-से-कम दो बार खाली की गई थी-पहली बार शत्रुध्न-विजय के उपरांत लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर खाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। कालयवन और जरासंध की सम्मिलित सेना ने नगरी को कितनी क्षति पहुँचाई, इसका सम्यक पता नहीं चलता। यह भी नही ज्ञात होता कि जरासंध ने अंतिम आक्रमण के फलस्वरूप मथुरा पर अपना अधिकार कर लेने के बाद शूरसेन जनपद के शासनार्थ अपनी ओर से किसी यादव को नियुक्त किया अथवा किसी अन्य को। परंतु जैसा कि महाभारत एवं पुराणों से पता चलता है, कुछ समय बाद ही श्री कृष्ण ने बड़ी युक्ति के साथ [[पांडव|पांडवों की सहायता से जरासंध का वध करा दिया। अत: मथुरा पर जरासंध का आधिपत्य अधिक काल तक न रह सका।
बलराम का पुन: ब्रज-आगमन
संभवत: उक्त महाभिनिष्क्रमण के बाद कृष्ण फिर कभी ब्रज न लौट सके। द्वारका में जीवन की जटिल समस्याओं में फंस कर भी कृष्ण ब्रजभूमि, नंद-यशोदा तथा साथ में खेले गोप-गोपियों को भूले नही। उन्हें ब्रज की सुधि प्राय: आया करती थी। अत: बलराम को उन्होंने भेजा कि वे वहाँ जाकर लोगों को सांत्वना दें। बलराम ब्रज में दो मास तक रहे। इस समय का उपयोग भी उन्होंने अच्छे ढंग से किया। वे कृषि-विद्या में निपुण थे। उन्होंनें अपने कौशल से वृन्दावन से दूर बहने वाली यमुना में इस प्रकार से बाँध बांधा कि वह वृन्दावन के पास से होकर बहने लगी।[20]
कृष्ण और पांडव
द्वारका पहुँच कर कृष्ण ने वहाँ स्थायी रूप से निवास करने का विचार दृढ़ किया और आवश्यक व्यवस्था में लग गये। जब पंचाल के राजा द्रुपद द्वारा द्रौपदी-स्वयंवर तथा मध्य-भेद की बात चारों तरफ फैली तो कृष्ण भी उस स्वयंवर में गये। वहाँ उनकी बुआ के लड़के पांडव भी मौजूद थे। यही से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्टता का आरंम्भ हुआ। पांडव अर्जुन ने मध्य भेद कर द्रौपदी को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट किया। इससे कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के प्रति वे विशेष रूप से आकृष्ट हुए। वे पांडवों के साथ हस्तिनापुर लौटे। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पांडवों को इन्द्रप्रस्थ के आस-पास का प्रदेश दिया था। पांडवों ने कृष्ण के द्वारका-संबंधी अनुभव का लाभ उठाया। उनकी सहायता से उन्होंनें जंगल के एक भाग को साफ करा कर इन्द्रप्रस्थ नगर को अच्छें ढंग से बसाया। इसक बाद कृष्ण द्वारका लौट गये। कृष्ण के द्वारका लौटने के कुछ समय बाद अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए निकले। अनेक स्थानों में होते हुए वे प्रभास क्षेत्र पहुँचें। कृष्ण ने जब यह सुना तब वे प्रभास जाकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने साथ द्वारिका ले आये। यहाँ अर्जुन का बढ़ा स्वागत हुआ। उन दिनों रैवतक पर्वत पर यादवों का मेला लगता था। इस मेलें में अर्जुन भी कृष्ण के साथ गये। उन्होंनें यहाँ सुभद्रा को देखा और उस पर मोहित हो गये। कृष्ण ने कहा-सुभद्रा मेरी बहिन है, पर यदि तुम उससे विवाह करना चाहते हो तो उसे यहाँ से हर कर ले जा सकते हो, क्यों कि वीर क्षत्रियों के द्वारा विवाह हेतु स्त्री का हरण निंद्य नहीं, बल्कि श्रेष्ठ माना जाता है।[21]
अर्जुन सुभद्रा को भगा ले चले। जब इसकी खबर यादवों को लगी तो उनमें बड़ी हलचल मच गई। सभापाल ने सूचना देकर सब गण-मुख्यों को सुधर्मा-भवन में बुलाया, जहाँ इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ। बलराम अर्जुन के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रुद्ध हो गये थे और उन्होंने प्रण किया कि वे इस अपमान का बदला अवश्य लेंगें। कृष्ण ने बड़ी कुशलता के साथ अर्जुन के कार्य का समर्थन किया। श्रीमान् कृष्ण ने निर्भीक होकर कहा कि अर्जुन ने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है।[22] कृष्ण के अकाट्य तर्कों के आगे किसी की न चली। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर शांत किया। फिर वे बलराम तथा कुछ अन्य अंधक-वृष्णियों के साथ बड़ी धूमधाम से दहेज का सामान लेकर पांडवों के पास इंन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अन्य लोग तो शीघ्र इन्द्रप्रस्थ से द्वारका लौट आये, किंतु कृष्ण कुछ समय वहाँ ठहर गये। इस बार पांडवों के राज्य के अंतर्गत खांडव वन नामक स्थान में भयंकर अग्निकांड हो गया, किंतु कृष्ण और अर्जुन के प्रयत्नों से अग्नि बुझा दी गई और वहाँ के निवासी मय तथा अन्य दानवों की रक्षा की जा सकी।[23]
पांडवों का राजसूय यज्ञ और जरासंध का वध
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ कर दी। और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्णा को बुलाया। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने राजसूय यज्ञ के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय। कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार भीम और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बनाया।[24] फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध-जैसे महापराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पांडवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता।
अब पांडवों का राजसूय यज्ञ बड़ी धूमधाम से आरम्भ हुआ। कृष्ण ने यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों के पैर आदर-भाव से धोये। ब्रह्मचारी भीष्म ने कृष्ण की प्रशंसा की तथा उनकी `अग्रपूजा` करने का प्रस्ताव किया। सहदेव ने सर्वप्रथम कृष्णको अर्ध्यदान दिया। चेदि-नरेश शिशुपाल कृष्ण के इस सम्मान को सहन न कर सका और उलटी-सीधी बातें करने लगा। उसने युधिष्ठिर से कहा कि 'कृष्ण न तो ऋत्विक् है, न राजा और न आचार्य। केवल चापलूसी के कारण तुमने उसकी पूजा की है।'[25] शिशुपाल दो कारणों से कृष्ण से विशेष द्वेष मानता था-प्रथम तो विदर्भ कन्या रुक्मिणी के कारण, जिसको कृष्ण हर लाये थे और शिशुपाल का मनोरथ अपूर्ण रह गया था। दूसरे जरासंध के वध के कारण, जो शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था। जब शिशुपाल यज्ञ में कृष्ण के अतिरिक्त भीष्म और पांडवों की भी निंदा करने लगा तब कृष्ण से न सहा गया और उन्होंने उसे मुख बंद करने की चेतावनी दी। किंतु वह चुप नहीं रह सका। कृष्ण ने अन्त में शिशुपाल को यज्ञ में ही समाप्त कर दिया। अब पांडवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पांडवों की बढ़ती को देख उनके प्रतिद्वंद्वी कौरवों के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पांडवों को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।
युद्ध की पृष्ठ भूमि
यज्ञ के समाप्त हो जाने पर कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा ले द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से छल द्वारा जुए में पांडवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा। पांडव द्रौपदी के साथ काम्यकवन की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यक वन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेगें और उनका राज्य वापस दिलावेंगे। इसके बाद कृष्ण सुभद्रा तथा उसके बच्चे अभिमन्यु को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल राजा विराट के यहाँ व्यतीत किया। कौरवों ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा कृष्ण बलदेव भी सम्मिलित हुए।
इसके उपरांत विराट नगर में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नही था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये ? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। अतं में सर्व-सम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्धोधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने की राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्री कृष्ण ने सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन ने पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को ? दुर्योधन ने तत्त्काल सेना मांगी। कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेगें और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेगें।
कृष्ण अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये। कृष्ण के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करने हुए कहा- हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणाबत और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेगें, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने भी किया। वह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जाये। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।
महाभारत युद्ध
इस प्रकार कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, पंचाल, चेदि, कारूश, पश्चिमी मगध, काशी और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवो के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम अद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, अवंति, विदर्भ और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्वकि ने पांडव-सैन्य की ब्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन के युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों और उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से युधिष्ठर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक अश्वमेध यज्ञ किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट् घोषित हुए। कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। अब वे वृद्ध हो चुके थे। महाभारत-संग्राम में उन्हें जो अनवरत परिश्रम करना पड़ा उसका भी उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
श्रीकृष्ण का द्वारका का जीवन
द्वारका के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है कि यह नगर बिलकुल नवीन नही था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र शर्याति को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई।[26] यहाँ आकर कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर[27] की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई रूक्मी था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से कृष्ण उसे हर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस घटना से शिशुपाल कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।
हरिवंश के अनुसार बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ।[28] संभवत: पहले बलराम का विवाह हुआ, फिर कृष्ण का। बाद के पुराणों में बलराम और रेवती की विचित्र कथा मिलती है। कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों में मिलता है।[29] इनके नाम सत्यभामा, जांबवती, कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को कृष्ण विजय में प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि कृष्ण के संतानों की संख्या बड़ी थी ।[30] रुक्मिणी से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़ा प्रद्युम्न था। भागवतादि पुराणों में कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध का विवाह शोणितपुर[31] के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।
यादवों का अंत
अंधक-वृष्णि यादव बड़ी संख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके। श्रीकृष्ण-बलराम अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे और संभवत: यादवों के ऊपर उनका प्रभाव भी कम हो गया था। पौराणिक विवरणों से पता चलता है कि यादवों में विकास की वृद्धि हो चली थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन प्रभास के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, वे आपस में लड़ने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया।[32]
अंतिम समय
प्रभास के यादवयुद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नही लिया, जिससे वे बच गये। ये थे-कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और बभ्रु। बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नही चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।[33] कहते है मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया।[34] शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि जरा नामक एक बहेलियें ने हरिण के भ्रम से तीर मारा। वह वाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: 100वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। श्रीकृष्ण के अंत का इतिहास वास्तव में यादव गण-तंत्र के अंत का इतिहास है। कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। कही-कहीं उन्हें इन्द्रप्रस्थ का शासक कहा गया है।
अंधक-वृष्णि संघ
यादवों के अंधक-वृष्णि संघ का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस संघ की कार्य-प्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक-वृष्णि-संघ काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद़्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था; चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग-अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये। प्रत्येक दल अब अपना राजनैतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी। एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था। जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है, उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे। महाभारत के शांति पर्व के 82 वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और नारद के बीच संवाद के रूप में है। उसका हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जाता है ।
वसुदेव उवाच
देवर्षे! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो- ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं।(3)
स्वर्ग विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।(4)
मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। (5)
देवर्षे! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे ह्रदय को सदा मथता और जलाता रहता है।(6)
नारद जी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ।(7)
नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं।(8)
ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।(9)
आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान् दु:खदायी होता है)(10)
महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता। (11)
नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें। (12)
नारद उवाच
नारद जी ने कहा- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत[35] और परकृत[36] भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। (13)
अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हूई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं। (14)
आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया। (15)
सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते। (16)
श्री कृष्ण! अक्रूर और उग्रसेन के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते। (17)
बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान् संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा। (18)
अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोहो का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है , परिमार्जन[37] और अनुमार्जन[38] करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें- उन्हें मूक बना दें(जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो) (19)
वासुदेव उवाच
भगवान श्री कृष्ण ने कहा- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।(20)
नारद उवाच
नारद जी ने कहा- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बीना लोहे का बना हुआ शस्त्र है। (21)
जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें। (22)
जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें। (23)
समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं। (24)
केशव! आप इस यादवसंघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस संघ का- इस यादवगणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए। (25)
बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है। (26)
श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये। (27)
प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों के यथासमय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है।(28)
महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ॠषि-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं।(29)
आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुलतिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।(30)
उक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि अंधक-वृष्णि संध में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अंतर और वाह्म विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण-मुख्यों-अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी। `सभापाल' परिषद् बुलाता था। प्रत्येक सदस्स्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाडंवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से । इससे स्पष्ट है कि महाभारतयुद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी जोर हो गया था।[39]
वीथिका
कृष्ण जन्म
Birth Of Krishna
कृष्ण को गोकुल ले जाते हुए वसुदेव
Vasudev Carrying Krishna To Gokul
राधा-कृष्ण, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Radha - Krishna, Krishna's Birth Place, Mathura
माखन खाते कृष्ण
Krishna Eating Makhan
चीर हरण
Cheer Haran
राधा-कृष्ण
Radha-Krishna
कृष्ण-अर्जुन
Krishna-Arjuna
टीका टिप्पणी
↑ छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे0 तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। महाभारत तथा हरिवंश, विष्णु, ब्रह्म, वायु, भागवत, पद्म, देवी भागवत अग्नि तथा ब्रह्मवर्त पुराणों में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। (श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)
↑ ) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के कटरा केशवदेव मुहल्ले में औरंगजेब की लाल मस्जिद (ईदगाह) के पीछे माना जाता है।
↑ हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।
↑ प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग0 पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ0 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र0 वै0 (22 और भाग0 (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग0 (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।
↑ हरि (72-76) तथा पद्म0 ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु0 (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इन्द्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग0 (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरुण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।
↑ हरि0 77; ब्रह्म0 189, 1-45; विष्णु0 13; भाग0 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै0 के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है। भाग0 पु0 (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।
↑ हरिवंश 79; ब्रह्म0 190, 1-21; विष्णु0 15, 1-24; भाग0 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म0 और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।
↑ हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म0 190,22-48, भाग0 37, 1-25; विष्णु0 16, 1-28।
↑ हरिवंश 82; ब्रह्म0 191-92; विष्णु0 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै0 70, 1-72। हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करुण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।
↑ ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।
↑ पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र0 वै0 (अ0 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे ।
↑ भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है। कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु0 5, 20, 91) तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ0 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।
↑ हरि0 87, 52। sS
↑ "ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु0 5,21,120)
↑ हरिवंश में कृष्ण-बलराम के यज्ञोपवीत का कोई उल्लेख नहीं है, पर शिक्षा से पहले उसका विधान है। उनका विद्यारंभ संभवत: गोकुल में हुआ। बाद के पुराणों-जैसे पद्म (273, 1-5), ब्रह्मवैवर्त (99 -102) और भागवत (45, 26-50) में यज्ञोपवीत का वर्णन है। इनके अनुसार गर्गाचार्य ने उन्हें गायत्री-मन्त्र का उपदेश दिया। सांदीपनि के आश्रम में ये चौंसठ दिनों तक रहे। इतने दिनों में वे गुरुकुल की प्रथा का पालन करते हुए धनुर्विद्या में ही विशेश शिक्षा प्राप्त कर सके होंगे। उनकी अवस्था अब बढ़ चली थी, क्योंकि हरिवंश के अनुसार अब वे युवा (`प्राप्त यौवनदेह:') थे। देवी भागवत (24,25) के अनुसार सांदीपनि के यहाँ से लौटने पर उनकी अवस्था केवल बारह वर्ष की थी।
↑ हरिवंश (अ0 91)। पुराणों में यद्यपि अनेक देश के राजाओं का उल्लेख हुआ है, पर यह कहना कठिन है कि वास्तव में किन-किन राजाओं ने जरासंध की पहली मथुरा की चढ़ाई में उसकी सहायता की और अपनी सेनाएं इस निमित्त भेजीं। भागवत् के अनुसार जरासंघ की सेना 23 अक्षौहिणी थी; हरिवंश 20 अक्षौहिणी तथ पद्म 100 अक्षोहिणी बताता है।
↑ हरिवंश और भागवत के अनुसार जब कृष्ण ने यह सुना कि एक ओर से जरासंध और दूसरी ओर से कालयवन बड़ी सेनाएँ लेकर शूरसेन जनपद आ रहे हैं, तो उन्होंने यादवों को मथुरा से द्वारका रवाना कर दिया और स्वयं बलराम के साथ गोमंत पर्वत पर चढ़ गये। जरासंध पहाड़ पर आग लगा कर तथा यह समझ कर कि दोनो जल मरे होंगे, लौट गया। दूसरी कथा के अनुसार कृष्ण सब लोगों को द्वारका भेज चुकने के बाद कालयवन को आता देख अकेले भगे। कालयवन ने इनका पीछा किया। कृष्ण उसे वहाँ तक ले गये जहाँ सूर्यवंशी मुचकुंद सो रहा था। मुचकुंद को यह वर मिला था कि जो कोई उन्हें सोते से उठायेगा वह उनकी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो जायगा। कृष्ण ने ऐसा किया कि कालयवन मुचकुंद द्वारा भस्म कर दिया गया। (हरिवंश 100, 109; भागवत 50, 44,-52) आदि।
↑ महाभारत में यादवों के निष्क्रमण का समाचार श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर को इस प्रकार बताया गया है -
'वयं चैव महाराज जरासंधभयात्तदा।'
'मथुरां संपरित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम्।।' (महाभारत ,2, 13,65)
↑ हरिवंश (अ0 113) में आया है कि शिल्पियों द्वारा प्राचीन नगरी का जीर्णोद्धार किया गया। विश्वकर्मा ने सुधर्मा सभा का निर्माण किया (अ0 116)। दे0 देवीभागवत (24, 31)- 'शिल्पिभि: कारयामास जीणोद्धारम।'
↑ पुराणों में इस घटना को यह रूप दिया गया है कि बलराम अपने हल से यमुना को अपनी ओर खींच लिया (देखिए ब्रह्म पुराण 197,2, 198,19; विष्णु पुराण 24,8; 25,19 भागवत पुराण अ0 65) परंतु हरिवंश पुराण (103) में स्पष्ट कहा है कि यमुना पहले दूर बहती थी, उसे बलराम द्वारा वहाँ से निकट लाया गया, जिससे यमुना वृन्दावन के खेतों के पास से बहने लगी। कई पुराणों में बलराम द्वारा गोकुल में अत्यधिक वारुणी-सेवन का भी उल्लेख है और लिखा है कि यहाँ रेवती से उनका विवाह हुआ। परंतु अन्य प्रमाणों के आधार पर बलराम का रेवती से विवाह द्वारका में हुआ।
↑ 'प्रसह्म हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
विवाहहेतु: शूराणमिति धर्मविदो बिदु: ।।' (महाभारत, आदि पर्व महाभारत 219,22)
↑ उनका स्वयं का दृष्टान्त भी सामने था, क्योंकि वे विदर्भ-कन्या रुक्मिणी को भगा लाये थे और फिर उसके साथ विवाह किया था।
↑ ये दानव संभवत: इस भूभाग के आदिम निवासी थे। पुराणों तथा महाभारत से पता चलता है कि मय दानव वास्तु-कला में बहुत कुशल था और उसने पांडवों के लिए अनेक महल आदि बनाये। शायद इसी ने कृष्ण तथा पांडवों को अद्भुत शस्त्रास्त्र भी प्रदान किये । ॠग्वेद में असुरों के दृढ़ और विशाल किलों, महलों और हथियारों के उल्लेख मिलते हैं। खांडव-वन में मय असुर तथा उसके कुछ काल पहले मधुवन में मधु तथा लवण असुर का होना एक महत्वपूर्ण बात है।
↑ कृष्ण और पांडवों के पूर्व से लौटने के बाद सहदेव के कई प्रतिद्वंदी खड़े हो गये, जिन्होंने मगध साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया। कुरुराज दुर्योधन ने कुछ समय बाद कर्ण को अंग देश का शासक बनाया, जिसने बंग और पुंड्र राज्यों को भी अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार दुर्योधन को पूर्व में एक शक्तिशाली सहायक प्राप्त हो गया।
↑ नैव ऋत्विङ् न चाचार्यो न राजा मधुसूदन: ।
चर्चितश्य कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया ।। (महाभारत 2,37,17)
↑ यह स्थान आजकल 'मूल द्वारका' के नाम से ज्ञात है और प्रभास-पट्टन के पूर्व कोडीनार के समीप स्थित है। औखामंडल वाली द्वारका बाद में बसाई हुई प्रतीत होती है। सौराष्ट्र में एक तीसरी द्वारका पोरबंदर के पास है।
↑ यह कुंडिननुर विदर्भ देश (बरार) में था। एक जनश्रुति के अनुसार कुंडिनपुर उत्तरप्रदेश के एटा ज़िले में वर्तमान नोहखेड़ा के पास था। किंवदंती है कि कृष्ण यहीं से रुक्मिणी को ले गये थे। नोहखेड़ा में आज भी रुक्मिणी की मढ़िया बनी है, जहाँ लगभग आठवीं शती की एक अत्यंत कलापूर्ण पाषाण-मूर्ति रुक्मिणी के नाम से पूजी जाती है। खेड़े से अन्य प्राचीन कलावशेष प्राप्त हुए हैं। यह स्थान एटा नगर से करीब 20 मील दक्षिण जलेसर तहसील में है।
↑ हरि0, अ0 116। बलराम का विवाह आनर्त-वंशी यादव रेवत की पुत्री रेवती से हुआ।
↑ भागवत पुराण (56-57), वायु पुराण (96, 20-98), पद्म पुराण (276, 1-37), ब्रह्म वैवर्त पुराण (122), ब्रह्माण्ड पुराण (201, 15), हरिवंश पुराण (118) आदि । पुराणों में नरकासुर का श्रीकृष्ण के द्वारा वध तथा उसके द्वारा बंदी सोलह हज़ार स्त्रियों के छुड़ाने का भी वर्णन मिलता है और कहा गया है कि कृष्ण ने इन सबसे विवाह कर लिया।
↑ दे0 भागवत पुराण 61, 1-19; हरिवंश पुराण118 तथा 162; ब्रह्मवैवर्त पुराण 112, 36-41 आदि।
↑ यह शोणितपुर कहाँ था, इस संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे गढ़वाल ज़िले में रुद्रप्रयाग के उत्तर ऊषीमठ के समीप मानते हैं। कुमायूँ पहाड़ी का कोटलगढ़ आगरा के समीप बयाना, नर्मदा पर स्थित तेवर (प्राचीन त्रिपुरी) तथा आसाम के तेजपुर को भी विभिन्न मतों के अनुसार शोणितपुर माना जाता है। श्री अमृतवसंत पंड्या का मत है कि शोणितपुर असीरिया में था और श्रीकृष्ण ने असीरिया पर आक्रमण कर बाणासुर (असुरबानी पाल प्रथम) को परास्त किया (ब्रजभारती, फाल्गुन, सं0 2009, पृ0 25-31)।
↑ विभिन्न पुराणों में इस गृह-युद्ध का वर्णन मिलता है और कहा गया है कि ऋषियों के शाप के कारण कृष्ण-पुत्र सांब के पेट से एक मुशल उत्पन्न हुआ, जिससे यादव-वंश का नाश हो गया। दे0 महाभारत, मुशल पर्व; ब्रह्म पुर0 210-12; विष्णु0 37-38; भाग0 ग्यारहवां स्कंध अ0 1,6,30,31; लिंग पु0 69,83-94 आदि
↑ संभवत: इस अवसर पर अर्जुन की कृष्ण से भेंट न हो सकी। कृष्ण पहले ही द्वारका छोड़ गये होंगे। महाभारत (16,7) में श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव से अर्जुन के मिलने का उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि वसुदेव इस समय तक जीवित थे। इसके बाद वसुदेव की मृत्यु तथा उनके साथ चार विधवा पत्नियों के चितारोहण का कथन मिलता है।
↑ महाभारत 16,8,60; ब्रह्म0 212,26।
↑ जो आपत्तियाँ स्वत: अपना ही करतूतों से आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।
↑ जिन्हें लाने में दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती है।
↑ क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 'परिमार्जन' कहलाता है।
↑ यथायोग्य सेवा-सत्कार के द्वारा हृदय में प्रीति उत्पन्न करना 'अनुमार्जन' कहा गया है।
↑ विस्तार के लिए देखिये के. एम.मुंशी-ग्लोरी दैट वाज़ गुर्जर देश, पृ.130 तथा वासुदेवशरण अग्रवाल-इंडिया ऎज़ नोन टु पाणिनि
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Wednesday, May 12, 2010
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